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 |  एक अलग नज़रिया बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 12 अगस्त, 2021 11:53 AM
ज्योति गुप्ता
ज्योति गुप्ता
  @jyoti.gupta.01
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वे महान कौन लोग हैं जिन्हें ऑफिस नहीं जाना...यहां तो लड़कियां चाहती हैं कि वर्कफ्रॉम होम जितना जल्दी खत्म हो जाए सही है. जिन लोगों को अपनी टैनिंग और डार्क सर्कल की पड़ी है उन्हें शायद पता ही नहीं है कि वर्कफ्रॉम होम में ऑफिस और घर दोनों के काम करने पड़ते हैं. दोनों को बैलेंस करते-करते लड़कियों की कमर टूट जाती है.

अगर 10 बजे से ऑफिस का काम शुरु होता है तो 5 मिनट पहले तक वे घर के काम निपटा रही होती हैं. हो सकता है कि कोई के घर 10 नौकर काम करने के लिए लगे हों लेकिन हमारी बला से...अगर आम घरों की लड़कियां लगीं कुक रखने तो उनकी सैलरी तो इसी में चली जाएगी...फिर वे महिलाएं खाएंगी क्या और बचाएंगी क्या?

यह दिक्कत भी तो है कि कोरोना वायरस के डर से लोगों ने कामवाली को घर में बुलाना ही बंद कर दिया. जब हम कभी पहले के दिनों के बारे में सोचते हैं तो लगता है वह कोई और दुनियां थी जब हम आजाद हुआ करते थे. इस क्रूर कोरोना ने हमारी वो दुनियां ही छीन लीं. एक जमाना था जब लोग वर्क फ्रॉम होम के लिए मरे जाते थे लेकिन अब घर से काम करने वालों की नींद उड़ी पड़ी है, खासकर महिलाओं की.

Work from home, Women, men, girls,work,home,work from home, officeलड़कियां घर से काम नहीं करना चाहतीं

हम यहां किसी से किसी की तुलना नहीं कर रहे हैं लेकिन जो लड़कियां सच में महसूस कर रही हैं वही बता रहे हैं. जो महिलाएं संयुक्त परिवार में रहती हैं उनके लिए तो अलग मुसीबत है. उपर से जिनके छोटे बच्चे हैं उनकी हालात तो छोड़ ही दीजिए. ये पतिदेव या भाई लोग हफ्ते में एक दिन सब्जी काटकर या मैगी बनाकर जो एहसान जताते हैं इनकी बात की निराली है.

''चैरिटी प्रेग्नेंट देन स्क्रूड'' द्वारा की गई एक रिसर्च के अनुसार महिलाओं के लिए घर से ऑफिस का काम करते हुए बच्चों की देखभाल करना किसी चुनौती से कम नहीं है. इस सर्वे में 19,950 महिलाओं को शामिल किया गया. इनमें से 72% महिलाओं का कहना है कि वर्क फ्रॉम होम के दौरान बच्चों की देखभाल करते हुए उनके पास ऑफिशियल वर्क के लिए कम समय होता है. वहीं 65% मांओं का कहना है कि ऑफिस के काम को मैनेज न कर पाने की वजह बच्चे की देखभाल करना है.

उपर से हमारी भारतीय मम्मीयों की तो पूछिए मत, इनका कहना है कि मेरे सामने बेटा आटा गूथेगा, चाय बनाएगा...इतना बोलकर वे खुद ही काम करने लग जाती है. नजीता यह होता है कि ऑफिस टाइम में भी लड़कियां बाल्टी भर-भर के गिल्ट से भर जाती हैं और घर के काम में लग जाती हैं. एक दिन की छुट्टी मिलती है वो घर की साफ-सफाई में निकल जाती है, ना कहीं आना ना कहीं जाना ऐसे में खराब मानसिक हालात का सामना करना पड़ता है. 

इसके उलट घर के पुरुष आराम से सोकर उठेंगे. लैपटॉप ऑन करेंगे और चाय लेकर बैठ जाएंगे. बना बनाया नाश्ता करेंगे और लंच टाइम में खाने बैठ जाएंगे. हां घर के काम से मतलब सिर्फ खाना बनाने तक की सीमित नहीं होता है. 10 और काम होते हैं जो खत्म होने का नाम नहीं लेते. ऐसे में लड़कियां चिड़चिड़ी होती जा रही हैं. लड़कियों की वर्क लाइफ बैलेंस अब बची नहीं है. ना वे टाइम से खा पाती हैं ना सो पाती हैं, अब सारा का सारा साइड इफेक्ट होता है उनकी सेहत पर.

इस मामले में ऑनलाइन प्रोफेशनल नेटवर्क लिंक्डइन के ‘श्रमबल विश्वास सूचकांक’ के अनुसार हमारे यहां कोरोना महामारी की वजह से करीब 50 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं अधिक दबाव महसूस कर रही हैं. असल में वर्क फ्रॉम होम और वर्क फॉर होम का मेल कामकाजी महिलाओं की व्यस्तता ही नहीं बढ़ा रहा, बल्कि मानसिक तनाव की वजह भी बन रहा है.

घर में रहने के कारण वे सेल्फकेयर तो भूल ही गई हैं, सारा समय तो काम में निकल जाता है. उपर से दिन भर बैठे-बैठे शरीर अकड़ने के साथ फैलता भी जा रहा है. पजामे में जिंदगी बिताने के चक्कर में वे सजना-सवरना भी भूल गई हैं. जो ड्रेस आलमारी में रखे-रखे सड़ रही है वो अब फिट आएगी भी या नहीं, पता नहीं है. मेकअप तो बिना इस्तेमाल किए एक्सपयार हो गए और सैंडल, चीख-चीख कर कहते हैं मुझे पहन लो बहन...

वहीं कोरोना काल से पहले का समय याद कीजिए जब हम रोज सुबह उठकर ऑफिस जाते थे, वहां काम करते थे, लंच करते थे, चाय पीते थे और सहकर्मी दोस्तों से मिलते थे. इसी बहाने महिलाओं को घर से बाहर निकलने का मौका मिलता था.

ये अलग बात है कि कभी-कभी हमारा ऑफिस जाने का मूड नहीं करता था. हमें इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी से चिढ़ है लेकिन घर में रहते हुए भी हम समय के साथ ही तो भाग रहे हैं. बिना काम किए जिंदगी चल भी तो नहीं सकती...हमने अपने आपको इसी के हिसाब से सेट कर लिया था.

कोरोना काल से पहले पांच दिन काम करने के बाद जब वीकेंड आता था तो लोग अलग ही रूमानियत में जीते थे. पहले से ही वीकऑफ का प्लान बन जाता था. वो जो दो दिन की छुट्टी होती थी वह हमारे लिए सुकून होती थी. जब हम सिर्फ खुद को समय देते और अपने बारे में सोचते...आखिर जिंदगी खुलकर जीने का नाम है. दोस्तों यारों से मिलना, खाना, घूमना, मूवी, मस्ती, परिवार के साथ टाइम बिताना...

इस कोरोना वायरस ने जिस तरह लोगों की जिंदगियां छीन लीं, एक बात तो समझ आ गई ही कल के बारे में सोचकर मत जीयो हमेशा अपने आज को जीने की कोशिश करो. जो जो छोटे-छोटे सपने हैं, ख्वाहिशें हैं उन्हें आज पूरा करने की सोचो. एक बात याद रखो आप इंसान हो कोई मशीन नहीं...जिंदगी काटने का नाम नहीं है जीने का नाम है.

लड़कियों का इस बारे में क्या कहना है

1- आईटी सेक्टर में काम करने वाली रुचिका का कहना है कि घर के पुरुष काम में मदद नहीं करते. वे पूरी तरह से महिलाओं के उपर निर्भर हो जाते हैं. घर का सारा काम लड़कियों पर आ जाता है. वहीं कोई काम बाकी रहता है तो लड़कियों से देखा नहीं जाता वे देर रात तक काम ही करती रहती हैं.

2- तितिक्षा का कहना है कि घर से काम करने पर मन भटकता रहता है, एकाग्र नहीं रह पाता. हमेशा घर के कामों में दिमाग जाता है. ऑफिस में अलग-अलग तरह के लोग मिलते हैं, उनसे सीखने को मिलता है. अलग-अलग विचार मन में आते हैं जिससे दिमाग भी चलता है. घर से काम करने की वजह से ऑफिस और घर अलग हैं यह समझ नहीं आता. दिमाग में टेंशन लगी रहती है. ऑफिस टाइम के बाद थोड़ा घूमने का भी समय मिल जाता है और घर से निकलने का ना तो मन करता है ना मौका मिलता है.

3- कंटेट राइटर सोनिया का कहना है कि यह सच में एक समस्या बनती जा रही है, जिसकी तरफ घर के लोगों का ध्यान नहीं जाता. लड़कियों को ऑफिस के साथ-साथ हर समय घर के भी काम करने पड़ते हैं. वर्क फ्रॉम होम में मेरा काम तो बहुत बढ़ गया है. यही समस्या बाकी महिलाओं को भी होगी. फ्रॉम होम है तो कभी-कभी ऑफिस वाले भी ज्यादा काम दे देते हैं ऐसे में हेडेक हो जाता है. 8 घंटे की ड्यूटी कब 12 घंटे में बदल जाती है पता भी नहीं चलता.

उपर से घरवालों को लगता है कि फ्रॉम होम है मतलब छुट्टी है बल्कि काम तो करना ही पड़ता है, अब चाहें आप दिन में करो या रात में. ऑफिस में कम से कम टाइम तो फिक्स होता है, उसके बाद हम और हमारा दिमाग टेंशन फ्री हो जाता है लेकिन फ्रॉम होम में यह संभव नहीं है.

4- सोनम बताती हैं कि काम बहुत बढ़ जाता है उपर से हम बोर हो जाते हैं. सोशल लाइफ तो बची नहीं है और दोस्तों से मिले तो जमाना हो गया. ऐसा लगता है हम बस काम करने के लिए जी रहे हैं. सीखने की सीमा सीमित हो गई है. अकेलापन लगता है. घरवाले भी चिढ़ने लगते हैं कि हम लैपटॉप से ही चिपके रहते हैं. घर में रहते हुए भी घरवाली बात नहीं लगती. उपर से घरवालों की नजरें घूरती हैं, कोई महेमान आया चाय बना दो...यही चल रहा है. काम करने का भी मन नहीं करता.

5- पारुल भी फ्रॉम होम पर हैं. इनका कहना है कि घर पर हर समय रोक-टोक, उनकी आज़ादी में खलल उन्हें परेशान कर रहा है. उन्हें लगता है कि उनका परिवार उन पर हर समय कैमरे की तरह नज़र रखे हुए है. न तो खुल कर फ्रेंड्स के साथ मस्ती हो पा रही हैं और न ही खुल कर आउटिंग. ऐसे में वे खुद को हर समय बंधा बंधा सा महसूस कर रही हैं. जो उनकी प्रोडक्टिविटी को भी प्रभावित करने का काम कर रहा है. इसलिए वे फिर से पुराने दिन वापिस लौटने की आस देख रही हैं. उन्हें सजने संवारने का भी कोई खास मौका नहीं मिल रहा है, जिससे वे अंदर ही अंदर घुटन महसूस कर रही हैं.

इस दर्द को सिर्फ वे लड़कियां ही समझ सकती हैं जिनपर बीत रही है. जो अपने लिए समय नहीं निकाल पा रही हैं. बंधा-बंधा महससू करना, खुलकर ना जी पाना और घर के कामों के बोझ तले दबे रहना क्या होता, वे लोग नहीं समझेंगे जिन्हें सिर्फ अपने डॉर्क सर्कल की चिंता हो. घर से काम करने वाली लड़कियों को जरा गौर से देखिएगा, बच्चों को संभालती हुई लडकियां, मां-बाप की सेवा करती लड़कियां, खाना बनाती लड़कियां, घर की सफाई करती लड़कियां...

लेखक

ज्योति गुप्ता ज्योति गुप्ता @jyoti.gupta.01

लेखक इंडिया टुडे डि़जिटल में पत्रकार हैं. जिन्हें महिला और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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