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Updated: 11 मई, 2015 06:37 AM
स्मिता मिश्रा
स्मिता मिश्रा
  @smita.mishra.7528
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जब भी मैं अपनी मां के बारे में सोचती हूं, एक ठंडी बयार दिल को छू जाती है. मैंने कभी भी उनकी ऊंची आवाज नहीं सुनी या उन्होंने कभी मेरी शैतानी भरे दिनों में भी आपा नहीं खोया. अंग्रेजी साहित्य में गोल्ड मेडलिस्ट होने की वजह से एक बड़े सरकारी संस्थान में उन्हें लेक्चरर की नौकरी मिली थी, वो भी उन दिनों जब महिलाओं की शादी 15 साल में हो जाया करती थी. वह बहुत ही प्रतिभावान थीं. एक संयुक्त परिवार में दिन-रात कड़ी मेहनत किया करती थी. घरेलू नौकरों को रसोई में जाने की इजाजत नहीं थी, इसलिए घर की महिलाओं को ही सब संभालना पड़ता था. चाहे 20 लोगों का खाना बनाने की बात ही क्यों न हो.

उन दिनों एक महिला की परिवार में प्रतिष्ठा, उसके कॅरियर की संभावनाएं या उसकी खुशी सब किस्मत भरोसे हुआ करती थी. अगर उसे एक अच्छा पति और सास-ससुर मिल जाएं, जैसे मेरी माँ को मिले तो वो पढाई और काम भी जारी रख सकती थीं. अगर नहीं तो पूरी जिंदगी उदास चारदीवारी के भीतर बच्चे पैदा करने और परिवार की सेवा करने में बिता देना होता है. तीन दशक बाद भी, कई ऐसी मां हैं जिनकी स्थिति आज भी लगभग वैसी ही रह गयी है. मैंने मदर्स के बारे में कहा, महिलाओं के बारे में नहीं, जो निश्चित ही आज बच्चे पैदा करने की मशीन की बजाय पढ़ी लिखी और निजी विचारों के साथ उभर कर आई हैं. नई जनगणना के अनुसार 55 प्रतिशत से ज्यादा महिलाएं पढ़ी लिखी हैं और विश्व में सबसे ज्यादा पेशेवर रूप से दक्ष महिलाओं की संख्या भारत में है.

फिर ऐसा क्यों है की केवल 3 से 4 प्रतिशत महिलाएं ही प्रबंधन और उच्च पदों पर काबिज हैं?

एक बड़े मीडिया घराने में जूनियर इंटर्न के रूप में मैं हमेशा से अचंभित रहती कि क्यों मिडिल एज की कोई भी महिला किसी भी डिपार्टमेंट में नहीं है. एक माँ के रूप में आज मैं समझ सकती हूँ, वे सभी मातृत्व का दबाव संभाल नहीं पायीं और नौकरी छोड़ दीं. भारी संख्या में भारत में लगभग 48 प्रतिशत महिलाएं अपने कॅरियर के बीच पहुंचने से पहले ही नौकरी छोड़ देती हैं.

पारिवारिक दबाव: पर कौन उन मदर्स को नौकरी करके सफल कहलाने और उन सपनों को पूरा करने से रोकता है. माता-पिता, सास-ससुर, पति, बच्चे या वे खुद?

कोई मम्मी हार्मोन या केमिकल लोचा: जब एक माँ जन्म लेती है, ज्यादातर एक कॅरियर को लेकर उत्साहित महिला की मौत हो जाती है. ज्यों ही किसी छोटे से चेहरे पर नजर पड़ती है, अपने-आप गौरव और सम्मान से भरी दुनिया को छोड़ने का मन बना लेती हैं. सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश महिलाओं को इस कदर भावनाओं से भर देता है कि उनका नौकरियों के पक्ष में फैसला लेना कठिन हो जाता है.

काम पर जाने की इच्छाशक्ति में कमी: अगर मौका मिले तो हर कोई घर में पड़े रहना चाहता है. और भारत में ज्यादातर महिलाओं के पास यह मौका मौजूद है. पारम्परिक रूप से वो एक घर चलाने वाली के रूप में देखी जाती हैं और परिवार के लिए कमाने की जिम्मेदारी घर के पुरुष पर होती है. फिर परेशानी क्यों उठाई जाए. और बच्चे को भी उसकी जरूरत है.

छोटा परिवार: बच्चे की देख रेख कौन करेगा? यह एक सवाल है जो ज्यादातर महिलाओं को घर पर रहने के लिए बाध्य करता है. आया या बच्चों के क्रेच महंगे हैं और नन्हे मुन्नों के लिए सुरक्षित भी नहीं है. संयुक्त परिवार अब अस्तित्व में नहीं हैं, इसलिए महिलाओं के पास और कोई विकल्प नहीं बचता. लेकिन मुझे आश्चर्य भी होता है, क्या संयुक्त परिवार बच्चों के लिए सुरक्षित थे? क्या हमने चचेरे भाइयों, अंकल-आंटियों के बच्चों के यौन उत्पीड़न की कहानियां नहीं सुनी?

सामाजिक दबाव: मैं अपने दोस्तों और पड़ोसियों की हमदर्दी भरी नज़रों से परेशान हो गयी हूं. जब मैं क्रेच से अपने बच्चे को लेकर रात घर आती हूँ, "बड़ी देर से आ रही हो, कौन इसकी देखभाल करता है? बेचारा बच्चा" और भी इसी तरह की बातें. जब मैं दिन भर के काम से थकी वापस आती हूं, कुछ अच्छा सुनने की ख्वाहिश होती है. जबकि भारत में लोग अपना निर्णय सुनाने को तैयार रहते हैं अगर आप अपने बच्चे को किसी के पास देखभाल करने के लिए छोड़ जाते हैं. लेकिन कोई भी इस घर और बाहर की दोहरी जिम्मेवारी को निभाते देख तारीफ नहीं करता.

ये माँ का काम है: जन्म देने से लेकर चड्ढियां बदलने तक, होमवर्क में मदद करने से लेकर उसके लिए पौष्टिक खाना बनाने तक सब एक माँ की जिम्मेदारी है. एक पूर्णकालिक नौकरी के साथ-साथ घर को संभालना और बूढ़े माँ बाप की सेवा करना सब उसकी जिम्मेदारी की हद में आता है. क्या वो कोई सुपरवुमन हैं?

भोजन और मर्दानगी: महिलाओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे भी वही पाठ्यक्रम पढ़ें और पास करें जो उनके पुरुष सहपाठी पढ़ा करते हैं. काम के घंटे भी दोनों के लिए बराबर निर्धारित किये गए हैं. फिर घरों में पुरुष महिलाओं की तरह काम क्यों नहीं करते? खाना बनाना, सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना, सामान खरीदना, रसोई देखना. उन्हें खाना बनाना इसलिए नहीं सिखाया जाता क्योंकि यह उनका काम नहीं है और वे यह नहीं करते क्योंकि वे पुरुष हैं. इसका मतलब महिलायें वो करें जो पुरुषों का काम हैं लेकिन पुरुष नहीं. मुझे ताज्जुब है कि ये अहम है या असमर्थता!

निष्पक्ष कार्य परिवेश:महिलाओं और पुरुषों के साथ एक जैसे बर्ताव के चक्कर में संस्थानों में अक्सर महिलाओं के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं. उन्हें पुरुषों के बराबर ही काम करना पड़ता है, उसे बराबर मौके दिए जाते हैं और किसी खास तरह की सुविधा इसलिए नहीं दी जाती क्योंकि संस्थान पुरुषों और महिलाओं में कोई भेद भाव नहीं करता. लेकिन क्या पुरुष माहवारी से गुजरते हैं? क्या उनका भी महीने के तीन से पांच दिनों तक ढेरों खून बहता है और क्या वे दर्दनाक ऐंठन महसूस करते हैं? क्या उन्हें घर जाकर खाना पकाना, बच्चों की देखभाल करना, कपड़े धोना और खासकर गर्भावस्था के पहले और बाद के दिनों में शारीरिक बदलाव से गुजरना होता है? क्या वे बच्चे पैदा करते हैं? और महिलाएं जिस दर्द और पीड़ा से गुजरती हैं, उन्हें अपने 3 महीने के बच्चे को छोड़ कर काम पर इसलिए जाना पड़ता है क्योंकि सरकार की नजर में बच्चों के आत्मनिर्भर होने के लिए 96 दिन पर्याप्त हैं. साथ ही उसे काम के घंटों में किसी बदलाव की अनुमति नहीं होती. ओह! मदर्स के लिए कितना इंसाफ है उस देश में जिसे मातृदेश, मातृभूमि कहा जाता है. हैरानी नहीं कि हम माँ दुर्गा की पूजा करते हैं, क्योंकि इस देश में कामकाजी महिलाएं सच में कई कार्यों को एक साथ करने की दक्षता से दुर्गा को परिभाषित करती हैं.

मेरी माँ अब जीवित नहीं हैं. अक्सर मैं सोचती हूं कि वो कुछ साल और जीवित रहती, अगर उन्होंने अपने परिवार की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए इतनी कड़ी मेहनत न की होती. हमारी पढाई, आराम का ख्याल और रोज की जरूरतों को पूरा करते हुए उन्होनें अपने आप पर ही ध्यान नहीं दिया शायद.

कुछ गुलाब, एक कार्ड और चॉकलेट पर्याप्त नहीं हैं उन मां को धन्यवाद कहने के लिए, जो अपने ऑफिस और घर में संतुलन बनाये रखने के लिए कड़ी मेहनत करती हैं.

बस थोड़ी सी मदद, थोड़ी समझदारी और थोड़ा समर्थन महिलाओं को अपना काम और अपने सपनों से जुड़ा रखने में मदद कर सकता है. इससे पहले कि आप उसे एक माँ, कर्मचारी, पत्नी या बेटी के रूप में देखें, बस एक बार सोचिये, क्या इस महिला को अपने उज्ज्वल सपनों को महज इसलिए पूरा करने का कोई हक़ नहीं है क्योंकि वह अपनी क्षमता से ज्यादा संभाल रही है? आखिरकार वह एक ऐसा चिराग है जिसने अपने दोनों सिरे बस आपकी जिंदगी रोशन करने के लिए जला रखे हैं. एड्ना सेंट विन्सेंट मिले के शब्दों में:My candle burns at both ends;it will not last the night;but ah, my foes, and oh, my friendsit gives a lovely light!

#मदर्स डे, #मां, #बच्चे, मदर्स डे, मां, बच्चे

लेखक

स्मिता मिश्रा स्मिता मिश्रा @smita.mishra.7528

लेखिका इंडिया टुडे ग्रुप (डिजिटल) से जुड़ी हैं.

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