संतान का सरनेम पिता का ही क्यों? यह सवाल समाज के लिए झटका है!
यहां तो शादी के बाद महिलाओं का ही सरनेम (Surname) बदल जाता है तो फिर किसी बच्चे को उसकी मां का उपनाम कैसे मिलेगा? जब भी कुछ लोग बच्चे के नाम के साथ मां का उपनाम लगाने की बात करते हैं तो समाज को एक जोर का झटका लगता है. लोग इसे अपने मुंह पर लगे तमाचे जैसा समझते हैं और बौखला जाते हैं.
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पुराणों में कृष्ण को देवकीनंदन और भगवान राम को कौशल्यानंदन कहा गया है. भगवान राम और कृष्ण को उनकी माताओं के नाम से जाना गया, लिखा गया और पढ़ा गया. वहीं युग बदला और समाज में पितृसत्ता हावी होती गई. धीरे-धीरे महिलाओं को दासी और भोग की वस्तु समझा जाने लगा. महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिया जाता था. धीरे-धीरे अब जाकर समाज में महिलाओं को उनके अधिकार मिलने लगे हैं लेकिन आज भी पिता की प्रधानता वाली परंपरा कायम है और यही वजह है कि बच्चों के नाम के साथ पिता के उपनाम को ही आगे बढ़ाया जाता है, माता का नहीं.
यहां तो शादी के बाद महिलाओं का ही सरनेम बदल जाता है तो फिर किसी बच्चे को उसकी मां का उपनाम कैसे मिलेगा? जब भी कुछ लोग बच्चे के नाम के साथ मां का उपनाम लगाने की बात करते हैं तो समाज को एक जोर का झटका लगता है. लोग इसे अपने मुंह पर लगे तमाचे जैसा समझते हैं और बौखला जाते हैं. जबकि एक बच्चे के जन्म में माता और पिता दोनों का बराबर का सहयोग रहता है.
क्या कुल और वंश, स्त्री के नाम से नहीं चल सकते?
वहीं पिछले कुछ सालों में सिंगल मदर के लिए कोर्ट ने कहा है कि बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र में पिता का नाम होना जरूरी नहीं है. दरअसल, हमारे समाज में उपनाम की परंपरा तार वंश प्रथा से जुड़ी हुई है. पुराने जमाने में लोगों ने अपनी पहचान बनाने के लिए अपने गांव या कबीले के नाम पर उपनाम रखने की शुरुआत की थी, जिसपर पुरुषों ने धीरे-धीरे अपना अधिकार जमा लिया.
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असल में कबीलाई सभ्यताओं में स्त्रियों को लोग जीत-हार की वस्तु समझते थे और उन्हें अपनी संपत्ति मानकर अपना उपनाम देते थे. ऐसा वे इसलिए करते थे ताकि दूसरों को पता रहे कि वह महिला किसकी स्त्री है और इसके लिए किससे संघर्ष करना पड़ेगा? उस स्त्री से जन्म लेने वाली संतान को वे अपनी वंश वृद्धि के रूप में देखते थे. उनके लिए स्त्री सिर्फ उत्तराधिकारी पैदा करने की एक जरिया थी. पत्नी तो बस नाम की होती थीं जिनका ना तो कोई अधिकार था और ना ही कोई उत्तराधिकारी नहीं.
अब जब इस जमाने में स्त्री-पुरुष अधिकार की बातें हो रही हैं, जब अंतरजातीय विवाह हो रहे हैं तो यह सवाल उठना लाजिमी है. हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि बच्चे न सिर्फ पिता बल्कि मां के सरनेम का भी इस्तेमाल कर सकते हैं. समझ नहीं आता कि आखिर क्यों हमारा समाज घर के बाहर नेमप्लेट पर भी मां, पत्नी और बेटी का नाम लिखने से हिचकिचाता है? क्या कुल और वंश, स्त्री के नाम से नहीं चल सकते?
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असल में घर तो महिलाएं ही चलाती हैं, बच्चे को वही पालती हैं फिर उनका सरनेम बच्चे के नाम के साथ क्यों नहीं जुड़ सकता? बदलते समय के साथ कई महिलाएं अपना सरनेम नहीं बदल रही हैं. वहीं कई पुरुष फेसबुक पर ही सही, अपनी पत्नी का सरनेम अपने नाम के साथ जोड़ रहे हैं. अगर महिलाओं को समाज में आगे ले जाना है तो घर के पुरुषों को पहल करनी होगी.
दरअसल, भाषा की खोज के बाद ही लोगों के नामकरण हुए. नाम जरूरी है, इंसान अपने नाम के लिए कुछ भी कर जाता है. आखिर हम किसी को उसके चेहरे से कब तक याद रख सकते हैं? हम सभी महान पुरुषों को उनके नाम से ही तो याद रखते हैं. चाहें चाणक्य हों, सम्राट चंद्रगुप्त हों या फिर न्यूटन, लेकिन इस नाम के साथ जुड़ा होता है सरनेम यानी उपनाम.
हमारे नाम के आगे जुड़ा होता है पिता का सरनेम, माता के नाम का जिक्र ही बहुत कम जगहों पर होता है तो फिर उनके सरनेम की तो बात ही छोड़ ही दीजिए, पता नहीं रिवाज के उल्टे इस सवाल का जवाब कब सामान्य होगा? फिलहाल तो समाज के लिए यह सवाल एक झटका ही है.
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