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Updated: 17 अप्रिल, 2016 01:51 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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छोटे बच्चों के लुक्स के साथ माता-पिता अक्सर कुछ अजीब एक्सपेरिमेंट्स करते हैं. लड़कों को लड़कियों के कपड़े पहना दिए जाते हैं, उनकी चोटियां बना दी जाती हैं, और माथे पर बिंदी लगा देती हैं माएं. आपने भी कभी न कभी ऐसा किया ही होगा, किया नहीं तो देखा तो होगा ही. ये सब करने के पीछे केवल एक ही कारण होता है वो है लाड़. बच्चा क्यूट लगता है और उसे दखकर मां-बाप खुश हो लेते हैं बस. एक अमेरिकी दंपत्ति भी अपने जुड़वां बेटों के साथ कुछ ऐसा ही एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं, लेकन ऐसा करने के पीछे वजह थोड़ी अलग है.  

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 गैबरिएला और जो के जुड़वां बेटे हैं, इनकी उम्र 5 साल है

गैबरिएला और जो हॉगटन मलिक ने अपने पांच साल के बेटों को कभी ये नहीं बताया कि लड़कों और लड़कियों के कपड़ों में फर्क होता है, ठीक उसी तरह जैसा कि लड़कों और लड़कियों के खिलौनों में होता है. ये दोनों पति-पत्नी लिंग समानता में विश्वास करते हैं और इसीलिए चाहते हैं कि इनके बच्चे भी इसी तरह बड़े हों.

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'कलीब' और 'काई' कपड़ों में फर्क नहीं समझते
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 दोनों जो मन करता है पहनते और खेलते हैं

बच्चों को अपने कपड़े और खिलौने चुनने की पूरी आजादी है. इसलिए इनके बेटे लड़के और लड़कियों दोनों तरह के कपड़े पहनते हैं. इन्हें कारें और बंदूकें भी उतनी ही पसंद हैं जितना कि गुड़ियां. दोनों बच्चे राजकुमारी की ड्रैस पहनते हैं, अपने बाल बनाते हैं और तो और नेल पॉलिश भी लगाते हैं. 

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 इनकी मां इन्हें लड़कियों की तरह सजाती हैं
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अपनी मां से कुकिंग भी सीखते हैं और उसका आनंद उठाते हैं बच्चे

ये पेरेंट्स चाहते हैं कि उनके बच्चे बिना किसी हिचक के अपने व्यक्तित्व के हर हिस्से को अभिव्यक्त करें. उनके बेटे अपनी जिंदगी के फैसले खुद लें, वो कुछ भी पहनें, कुछ भी खेलें और कुछ भी करें, लेकिन खुश रहें. 

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सिर्फ लड़कियों के ही नहीं बल्कि लड़कों के कपड़े भी पहनते हैं ये बच्चे
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 दोनो दिन भर घर में ऐसे ही रहते हैं

मां का कहना है कि– ’वो जैसा चाहते हैं हम उन्हें करने देते हैं. और ऐसा हमने पहले दिन से ही किया है. मैं चाहती हूं कि वो महसूस करें कि वो खुद को व्यक्त कर सकते हैं. मैं उन्हें कहती हूं कि वो चाहे पैंट पहनें या फिर फ्रॉक, वो हर कपड़े में सुंदर लगते हैं.'

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 कभी बंदूक से खेलते हैं तो कभी गुड़ियों से

पेरेंट्स का मानना है कि गुड़ियों और टैडी बियर से खेलने का मतलब है कि वो केयरिंग हैं और इससे साबित होता है कि वो भविष्य में अच्छे पिता बनेंगे. हालांकि गैबरिएला और जो का पालन पोषण सामान्य तरीके से ही हुआ है, और उन्हें अपने पालन पोषण के इस तरीके में कुछ भी विवादास्पद नहीं लगता. 

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पर क्या इन सवालों के लिए तैयार हैं?

इन पेरेंट्स को भले ही अपने पालन पोषण के इस तरीके में कुछ भी गलत नहीं लगता हो, लेकिन सच तो ये है कि समाज इस तरह नहीं सोचता. इसलिए इन्हें भविष्य में पूछे जाने वाले कुछ सवालों के उत्तर देने के लिए तैयार रहना होगा, वो ये कि- अगर भविष्य में ये बच्चे हॉस्टल में गए तो ये लड़कों के हॉस्टल में दाखिला लेंगे या फिर लड़कियों के? वो लड़कों के टॉयलेट में जाएंगे या फिर लड़कियों के और क्या वो लड़कियां उन्हें ऐसा करने देंगी? क्या वो ट्रेन में लड़कियों के डब्बे में बैठ पाएंगे? शारीरिक बदलाव आने पर क्या ये सहज महसूस कर पाएंगे? क्या ये दूसरी लड़कियों की भावनाओं को भी समझ पाएंगे? लड़कियों की तरह नहीं समझ पाएंगे ये तो तय क्योंकि वो खुद लड़के हैं, और लड़कों की भावनाएं यकीनन नहीं समझ पाएंगे क्योंकि उन्हें लड़कियों की तरह पाला जा रहा है. डर है कि लिंग समानता के नाम पर ये बच्चे अपनी खुद की पहचान ही न खो दें.

लड़के और लड़की में फर्क न करना अलग बात है, लेकिन इस तरह से अपने बच्चों को इस फर्क के बारे अनभिज्ञ रखना ठीक नहीं है. कल जब इस तरह बच्चे घर के बाहर जाएंगे तो दूसरे बच्चे इन बच्चों का मज़ाक बनाएंगे, तब इन मासूमों को ये भी पता नहीं होगा कि उन्हें जवाब क्या देना है. क्योंकि ये तो उन्हें सिखाया ही नहीं गया. ये बच्चे जमाने की आलोचनाओं को झेलने के लिए अभी तैयार नहीं हैं. लेकिन निश्चित तौर पर आलोचनाएं इन्हें झेलनी ही होंगी. इन बातों का उनके मानस पर किस तरह का असर होगा ये इन पेरेंट्स को समझना होगा. अगर बच्चों को केयरिंग बनाना है तो ये आपको सिखाना होगा, लिंग समानता के प्रति जागरुक भी आपको ही करना होगा. लेकिन ऐसा करके इन्होंने खुद अपने बच्चों को दुनिया के सामने मजाक का पात्र बनाने की तैयारी की है और खुद के पालन पोषण के तरीकों पर उंगली उठाने की भी.

लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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