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Updated: 04 फरवरी, 2022 07:40 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (Uniform Civil Code) हमेशा से ही एक बड़ा मुद्दा रहा है. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड के लागू होने की अटकलों का दौर शुरू हो गया था. लेकिन, अभी तक मोदी सरकार की ओर से यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने को लेकर कोई खास प्रयास किए जाते नहीं दिखे हैं. इन सबके बीच संघ के मुखपत्र कहे जाने वाले 'पाञ्चजन्य' ने एक ट्वीट कर खलबली मचा दी है. दरअसल, पाञ्चजन्य ने एक ट्वीट करते हुए लिखा है कि 'आज संसद में भाजपा सांसद पेश करेंगे यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल.' इस ट्वीट के सामने आने के साथ ही समान नागरिक संहिता को लेकर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है. क्योंकि, भाजपा के घोषणा पत्र के धारा-370 और राम मंदिर जैसे बड़े चुनावी वादे पूरे हो चुके हैं. तो, संभावना जताई जा रही है कि अब मोदी सरकार जल्द ही यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर कोई बड़ा फैसला ले सकती है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो 2024 आते आते समान नागरिक संहिता कानूनी हो जाएगी.

Uniform Civil Code Billभारत में अलग-अलग धर्मों और समुदायों के अपने अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं.

क्या है यूनिफॉर्म सिविल कोड?

भारत में अलग-अलग धर्मों और समुदायों के अपने अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं. इन पर्सनल लॉ के अनुसार, अलग-अलग धर्मों के लोगों को शादी की न्यूनतम उम्र से लेकर तलाक और जमीन-जायदाद जैसे मामलों पर भी अपने कानून मानने की इजाजत दी गई है. भारत में एक लंबे अरसे से समान नागरिक संहिता की मांग बहस का मुद्दा रही है. यूनिफॉर्म सिविल कोड के तहत देश के हर नागरिक के लिए एक जैसे कानून की बात की गई है, फिर चाहे वो किसी भी धर्म, पंथ, समुदाय, जाति का हो. देश में फिलहाल मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के अपने पर्सनल लॉ हैं. वहीं, हिंदुओं के लिए सिविल लॉ है. दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य को उचित समय आने पर सभी धर्मों लिए समान नागरिक संहिता बनाने का निर्देश दिया गया है. यहां बताना जरूरी है कि भारत में 1961 में गोवा के विलय से ही वहां समान नागरिक संहिता लागू है. गोवा इकलौता राज्य है, जहां पुर्तगाल सिविल कोड 1867 को लागू कर यूनिफॉर्म सिविल कोड का पालन किया जाता है.

क्या कहती हैं अदालतें?

बीते साल ही दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने एक सुनवाई के दौरान देश में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर एक टिप्पणी की थी. दरअसल, दिल्ली हाईकोर्ट ने एक तलाक के मुकदमे की सुनवाई के दौरान कहा था कि 'समाज में धर्म, जाति और समुदाय की पारंपरिक रूढ़ियां टूट रही हैं. समान नागरिक संहिता लाने का ये सही समय है. केंद्र सरकार को संविधान के अनुच्छेद 44 के आलोक में समान नागरिक संहिता के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए. भारतीय समाज अब सजातीय हो रहा है. धर्म, जाति और समुदाय की बंदिशें खत्म हो रही हैं. संविधान में समान नागरिक संहिता को लेकर जो उम्मीद जतायी गई थी, उसे केवल उम्मीद नहीं बने रहना चाहिए.' दिल्ली हाईकोर्ट ने 1985 के शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का जिक्र करते हुए कहा था कि '30 से ज्यादा साल का समय बीत जाने के बाद भी इस विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया है.'

सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल, 1985 में पहली बार समान नागरिक संहिता बनाने के संबंध में सुझाव दिया था. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो प्रकरण में मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के बाद गुजारे-भत्ते का हकदार मानते हुए पीड़िता के पक्ष में फैसला सुनाया था. लेकिन, मुस्लिम कट्टरपंथियों और वोट बैंक की राजनीति की वजह से तुष्टिकरण के लिए राजीव गांधी की तत्कालीन सरकार ने संसद में कानून के जरिये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था. जिसके बाद से अब तक यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर केवल चर्चाएं ही होती रही हैं. वैसे, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एसए बोबडे ने भी गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान राज्य की समान नागरिक संहिता की तारीफ करते हुए कहा था कि 'गोवा में लागू संहिता का देश के बुद्धिजीवियों को अध्ययन जरूर करना चाहिए. यह ऐसी संहिता है, जिसकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी.'

कौन करेगा विरोध?

1985 के शाहबानो प्रकरण से साफ हो जाता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का सबसे ज्यादा विरोध कांग्रेस की ओर से ही किया जाएगा. और, इस विरोध में उसके साथ राज्यों के वे तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक दल खड़े नजर आएंगे, जो मुस्लिमों को अपना वोट बैंक मानते हैं. इसे आसान शब्दों में कहा जाए, तो जो दल धारा-370, नागरिकता संशोधन कानून यानी CAA, तीन तलाक जैसे कानूनों के विरोध में मुस्लिमों को भड़काकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे हैं. वो भविष्य में समान नागरिक संहिता को लेकर भी इसी तरह का विरोध लोगों के बीच फैलाकर अपने सियासी हितों को साधने से नहीं चूकेंगे. क्योंकि, भारत में मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के ही अपने पर्सनल लॉ हैं. तो, इन समुदायों की ओर से भी इसका विरोध हो सकता है. हालांकि, जनसंख्या के लिहाज से देखा जाए, तो भारत में पारसियों की आबादी कुछ हजार में ही है. और, पारसी समुदाय को एक प्रबुद्ध वर्ग के तौर पर देखा जाता है, तो उनकी ओर से इसके विरोध की संभावना नगण्य मानी जा सकती है. ईसाईयों द्वारा भी यूनिफॉर्म सिविल कोड का विरोध किए जाने की संभावना बहुत कम है. तो, आसान शब्दों में कहा जाए, तो समान नागरिक संहिता के खिलाफ मुस्लिम समुदाय का विरोध मुखरता से देखा जा सकता है.

भाजपा क्यों करती है समर्थन?

मोदी सरकार ने 2016 में यूनिफॉर्म सिविल कोड के मामले को 21वें विधि आयोग के पास भेज दिया था. वहीं, दिल्ली हाईकोर्ट में इसे लेकर मोदी सरकार की ओर से दाखिल किए गए हलफनामे के अनुसार, विधि आयोग इस पर गहराई से विचार कर रहा है. और, विधि आयोग की रिपोर्ट के बाद केंद्र सरकार इस मामले पर फैसला लेगी. दरअसल, भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में समान नागरिक संहिता लंबे समय से शामिल रहा है. वैसे, समान नागरिक संहिता को लेकर समय-समय पर संवैधानिक अदालतों और संसद सदस्यों के द्वारा केंद्र सरकार से सवाल पूछे जाते रहे हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने को लेकर भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने लोकसभा में सवाल पूछा था. जिसके जवाब में कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि 'सरकार ने समान नागरिक संहिता का मुद्दा 22वें विधि आयोग को उचित सिफारिश करने के लिए भेजा है.' हालांकि, मीडिया रिपोर्टों की मानें, तो 22वें विधि आयोग में अंतिम आयोग का कार्यकाल समाप्त होने के तीन साल से अधिक समय के बाद भी एक अध्यक्ष नियुक्त किया जाना बाकी है.

वैसे, जब देश में बहुतायत मामलों में नागरिकों पर एक समान कानून लागू होते हैं, तो पर्सनल लॉ की जरूरत कहीं नजर नहीं आती है. देश में जारी पर्सनल लॉ एक तरह से भारत के संविधान पर ही प्रश्न चिन्ह लगाते प्रतीत होते हैं. वहीं, तीन तलाक जैसे मामले में फैसला लेने में ही हमारे देश को कई दशक लग गए. जबकि, कई मुस्लिम देशों में यह बहुत पहले से गैरकानूनी घोषित किया जा चुका था. खैर, देखना दिलचस्प होगा कि मोदी सरकार संसद में यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल कब पेश करती है?

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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