New

होम -> समाज

 |  5-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 08 मार्च, 2021 03:55 PM
मुकेश कुमार गजेंद्र
मुकेश कुमार गजेंद्र
  @mukesh.k.gajendra
  • Total Shares

आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (International Womens Day) है. मशहूर शायर साहिर लुधियानवी का आज जन्मदिन भी है. 8 मार्च 1921 को पंजाब के लुधियाना में उनका जन्म हुआ था. साहिर ने साल 1958 में आई फिल्म 'साधना' में महिलाओं के हालात को बयां करता एक गीत लिखा, जो रुपहले पर्दे पर आते ही मशहूर हो गया. गाने का बोल था, 'औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाजार दिया'. इस गाने को लता मंगेशकर ने गाया था. भारतीय समाज में महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार को इस गाने में बखूबी बयान किया गया है. आइए इस गाने के जरिए महिलाओं के हालात को समझते हैं.

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

जब जी चाहा मसला कुचला जब जी चाहा धुत्कार दिया

तुलती है कहीं दीनारों में बिकती है कहीं बाज़ारों में

नंगी नचवाई जाती है अय्याशों के दरबारों में

ये वो बे-इज़्ज़त चीज़ है जो बट जाती है इज़्ज़त-दारों में

औरत ने जनम दिया मर्दों को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया

 ichowk-650_030821123824.jpgअंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और मशहूर शायर साहिर लुधियानवी का जन्म एक दिन होना सुखद संयोग है.

एक महिला के गर्भ से बच्चे का जन्म होता है. बच्चा का सबसे पहला परिचय अपनी मां से होता है. उसके जीवन में ये पहली महिला होती है. बच्चा बड़ा होता है, तो घर में बहन के रूप में दूसरी महिला से परिचित होता है. कुछ और बड़ा होता है प्रेमिका के रूप में तीसरी महिला से परिचित होता है. उसकी जब शादी होती है, तो पत्नी के रूप में चौथी महिला से उसका साक्षात्कार होता है. प्रारंभ से लेकर अंत तक महिलाओं के साए में ही उसकी जिंदगी गुजर जाती है. लेकिन बदले में वो महिलाओं को क्या देता है? पुरुषों द्वारा सबसे ज्यादा अत्याचार महिलाओं पर ही किया जाता रहा है.

साहिर लुधियानवी के शेरों, गजलों और नज़्मों में औरत का दर्द और मर्द की उसके प्रति क्रूरता साफ दिखाई देती है. दरअसल साहिर ने अपने बचपन से जो जैसा देखा उसे बाद में अपनी लेखनी से वैसा ही उतार दिया. साहिर के लिए उनकी अम्मी ने बहुत दुख झेला था. दरअसल साहिर के वालिद और अम्मी एक-दूसरे से अलग हो गए थे. उस वक्त वो 10 साल के थे. साहिर किसके पास रहेंगे इसके फैसले के लिए दोनों कोर्ट गए. कोर्ट ने साहिर के वालिद फजल मुहम्मद से पूछा, 'साहिर की तालीम का इंतजाम किस तरह से करेंगे?' वालिद ने कहा, 'हमारे पास सबकुछ तो है, फिर पढ़कर क्या करेगा.'

यही सवाल जब साहिर की अम्मी से कोर्ट ने पूछा तो उन्होंने कहा, 'मैं अपने अपने बेटे को इतना पढ़ाऊंगी कि वह एक दिन दुनियाभर में अपने इल्म-ओ-फन के लिए जाना जाएगा.' मां के संघर्षों को बयां करती साहिर ने कई नज़्म लिखी, जो आज भी कई महिलाओं के हालात को बयान करने वाली कड़वी सच्चाई है. वैसे शायरी का सही अर्थ सिर्फ औरतों की पहचान हुस्न तक सीमित कर देना नहीं बल्कि शायरी तो वो ज़रिया है जो औरतों की जिंदगी के अलग-अलग पहलुओं को रौशन कर सके. वही पहलू जो हुस्न और बेवफाई के अधिक जिक्र की वजह से कहीं धुंधली होती मालूम होती है.

साहिर के शब्दों ने हिंदी सिनेमा और हिंदुस्तान की आवाम पर एक गहरा असर छोड़ा है. आज भी प्यासा फिल्म से उनकी यह पंक्तियां कितनी प्रासंगिक जान पड़ती है, 'ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के, कहां है कहां है मुहाफ़िज़ खुदी के? जिन्हें नाज़ है हिंद पर, वो कहां हैं?' ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं. साहिर, आज ही नहीं, आने वाले कल और अगली सदी के शायर हैं. साल 1963 में आई ताजमहल के लिए उन्हें फ़िल्म फेयर अवॉर्ड से नवाजा गया. इसके बाद 1976 में उन्होंने फिल्म 'कभी-कभी' के गीत 'मैं पल दो पल का शायर हूं' के लिए भी फिल्म फेयर पुरस्कार मिला था.

साहिर जब फिल्मों से जुड़े तो उन्होंने अपनी साहित्यिक कृतियों का इस्तेमाल हिन्दी सिनेमा में भी किया. साल 1950 से 1970 के कालखंड में जब मजरूह सुल्तानपुरी, राजा मेहदी अली ख़ान, शकील बदायुनी, हसरत जयपुरी, कैफ़ी आज़मी, राजेन्द्र कृष्ण, जांनिसार अख़्तर, क़मर जलालाबादी जैसे शायर सिनेमा में लिख रहे थे तो दीनानाथ मधोक, पंडित प्रदीप, नरेन्द्र शर्मा, शैलेन्द्र, इंदीवर जैसे गीतकार भी सक्रिय थे. जिस समय इतने महान रचनाकार सक्रिय हों, उस समय सरताज बन पाना आसान काम नहीं था. लेकिन साहिर ने ऐसा कर दिखाया. उनका ये आशावादी गीत आज भी सभी को प्रेरणा देता है...

वो सुबह कभी तो आएगी, वो सुबह कभी तो आएगी

इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलके

गाजब अम्बर झूम के नाचेगी, जब धरती नग़मे गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी...

जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से,हम सब मर-मर के जीते हैं

जिस सुबह की अमृत की धुन में, हम ज़हर के प्याले पीते हैं

इन भूखी प्यासी रूहों पर, एक दिन तो करम फ़रमाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी...

महिला दिवस पर साहिर लुधियानवी का जन्मदिन एक सुखद संयोग है. साहिर हिंदी सिनेमा के एकमात्र नारीवादी कवि थे. उनकी रचनाएं इसकी गवाह है. कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, शैलेंद्र और गुलज़ार जैसे दिग्गजों के जमाने में भी उनके गीतों का मर्म महिलाओं के हालात बखूबी बयां करता है. दूसरे कवियों ने भले ही नारीवादी प्रकृति के कुछ गीत लिखे हों, लेकिन लैंगिक उत्पीड़न और लैंगिक समतावाद के प्रति साहिर का पूर्वाग्रह उनके काम के माध्यम से झलकता रहा है. 'मैं तुझे रहम के साए में ना पलने दूंगी, जिंदगी की कड़ी धूप में जलने दूंगी' इन पंक्तियों के जरिए साहिर ने एक महिला जो मां के रूप में है, का वो रूप दर्शाया है, जो अपने बच्चे को भविष्य की चुनौतियों के लिए तैयार करती है. उसे किसी के रहम पर पलने नहीं देती है.

#अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, #साहिर लुधियानवी, #जन्मदिन, International Womens Day, Lyricists Poets Sahir Ludhianvi Birth Anniversary, Bollywood

लेखक

मुकेश कुमार गजेंद्र मुकेश कुमार गजेंद्र @mukesh.k.gajendra

लेखक इंडिया टुडे ग्रुप में सीनियर असिस्टेंट एडिटर हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय