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Updated: 30 अगस्त, 2015 04:23 PM
आईचौक
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अभी दो दिन पहले खबर आई थी कि आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के एक सरकारी अस्पताल में चूहों के काटने से एक नवजात बच्चे की मौत हो गई. आप इसे लापरवाही की इंतहा नहीं तो और क्या कहेंगे. कोलकाता में कोई नर्स बैंडेज काटने की बजाए बच्चे का अंगूठा ही काट डालती है! आगरा के किसी अस्पताल के एनआईसीयू में बिजली नहीं होने से तीन नवजात अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं! बिजली नहीं थी तो मशीनों ने काम करना बंद कर दिया और अस्पताल के किसी डॉक्टर, नर्स या स्टाफ ने भी उनकी सुध लेने की जहमत तक भी नहीं उठाई.

कटक में 10 दिनों में 45 नवजात बच्चों की मौत
कटक के वल्लभभाई पटेल इंस्टिट्यूट (शिशुभवन) में पिछले 10 दिनों में अब तक 45 नवजात अपनी जान गंवा चुके हैं. स्वास्थ्य विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार शिशुभवन में पिछले पांच सालों में 5900 नवजात बच्चे अपनी जान गंवा चुके हैं! इनमें 3,869 मामले ओपीडी जबकि 2,034 आईसीयू से जुड़े हैं. यह बातें हैरान तो करती ही हैं, शर्मिंदगी का अहसास भी कराती हैं. हर दो-चार महीनों में किसी न किसी शहर से ऐसी खबरें आती रहती हैं. फिर बात जांच, मदद, इंफ्रास्ट्रक्चर तक पहुंचते-पहुंचते आई-गई जैसी हो जाती है.

आधारभूत सुविधाओं की हालत खस्ताहाल
देश के ज्यादातर जिलों में सदर अस्पतालों की हालत क्या है, यह किसी से छिपी नहीं है. बेड टूटे हैं, साफ-सफाई नहीं, गद्दा है तो चादर नहीं... चादर है तो तकिया नहीं. डॉक्टर और स्टाफों के बारे में तो पूछिए भी मत. ज्यादातर जगहों पर या तो पर्याप्त मात्रा में स्टाफ नहीं हैं और अगर कहीं हैं भी तो कुछ कर्मचारियों की लेटलतीफी और लापरवाही सिस्टम पर भारी पड़ती है.

कटक की घटना के लिए भी कर्मचारियों की कमी और खराब इंफ्रास्ट्रक्चर का तर्क दिया जा रहा है. केंद्र सरकार की चार सदस्यीय टीम शिशुभवन अस्पताल का दौर कर चुकी है और राज्य के साथ मिलकर यहां की स्थिति को सुधारने की बात कही गई है. लेकिन सवाल है कि हमेशा ऐसी घटनाओं के बाद ही प्रशासन हरकत में क्यों आता है और व्यवस्था में जिस सुधार की कोशिश की बात कही जाती है, वह कभी मुकम्मल रूप क्यों नहीं ले पाती.

ये 45 बच्चे भी कल को आपके लिए वोटर बन सकते थे... लेकिन अफसोस!!!

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