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Updated: 29 जुलाई, 2015 03:46 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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पहले बलात्कार. फिर अनचाहा गर्भ. और उसके बाद अबॉर्शन के लिए संघर्ष. कानूनी मजबूरी और सोशल स्टिग्मा के साये में लगातार मानसिक यातना. किसी बलात्कार पीड़ित के लिए ये बार बार बलात्कार होने जैसा ही होता है.

कुछ ही महीनों के अंतराल पर अदालत पहुंचे बलात्कार के दो मामलों ने अबॉर्शन को लेकर नए सिरे से पुरानी बहस शुरू कर दी है.

केस नं. 1

ज्यादा वक्त नहीं गुजरा है. गुजरात हाई कोर्ट में एक मामला पहुंचा जिसमें गर्भपात की अनुमति देना कानूनन संभव न था. कारण, तब तक काफी देर हो चुकी थी.

एक बार बलात्कार पीड़ित के बयान पर गौर करें. "अपहर्ताओं के कब्जे से बच निकलने के बाद मैं घंटों जंगल में छुपी रही, फिर हिम्मत जुटाकर पुलिस के पास गई. लेकिन पुलिस ने शिकायत लिखने से इनकार कर दिया. महिला पुलिस हेल्पलाइन को फोन किया. उसके बाद कहीं जाकर हमारी शिकायत लिखी गई."

असल में एमटीपी यानी मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रिगनेंसी एक्ट, 1971 के प्रावधानों के तहत गर्भाधान के 20 सप्ताह से अधिक अवधि के बाद गर्भपात कराना गैर-कानूनी माना जाता है. इसलिए कोर्ट ने अर्जी फौरन खारिज कर दी.

कोर्ट से अबॉर्शन की अर्जी खारिज हो जाने के बाद दो बच्चों की मां 23 साल की उस महिला को अनचाहे गर्भ का बोझ भी ढोना पड़ा.

बोझ इतना कि जीना दुश्वार हो जाए, बोझ ऐसा कि हर वक्त बलात्कार की याद दिलाता रहे.

बलात्कारियों के लिए तो सजा सख्त कर दी गई है लेकिन पीड़ितों की पीड़ा कम करने के इंतजाम अब भी नाकाफी नजर आते हैं.

खैर, कानून का सम्मान करते हुए उस महिला ने अपमान का घूंट नौ महीने तक हर रोज पिया. डिलीवरी के अगले दिन कोर्ट के आदेश पर अमल करते हुए सरकारी नुमाइंदे ने बच्चे को कब्जे में लेकर उसे एक अनाथालय को सौंप दिया.

फिर उसी गुजरात हाई कोर्ट में वैसा ही एक और मामला पहुंचा.

केस नं. 2

अहमदाबाद की एक छात्रा को टाइफाइड हो गया था. इलाज के लिए वो अपनी मां के साथ एक डॉक्टर के पास पहुंची. डॉक्टर ने उसे बेहोशी का इंजेक्शन दिया और बलात्कार किया. बाद में धमकाया भी.

हाई कोर्ट तक बात पहुंचते पहुंचते प्रेगनेंसी 23 हफ्ते और छह दिन की हो चुकी थी, लिहाजा अबॉर्शन की अर्जी खारिज हो गई. उसके बाद छात्रा के पिता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.

सुप्रीम कोर्ट ने 14 साल की बलात्कार पीड़ित को अबॉर्शन कराने की अनुमति दे दी है. लेकिन शर्तें लागू हैं. कोर्ट का कहना है कि अगर छात्रा के जीवन को कोई खतरा हो तो अबॉर्शन कराया जा सकता है. जीवन को लेकर खतरे के आकलन और फिर संभावित एमटीपी के लिए कोर्ट ने एक मेडिकल पैनल बनाने का भी हुक्म दिया है.

जीने का हक और सवाल

क्या सिर्फ जीने का अधिकार काफी है? क्या सम्मान के बगैर जीने के अधिकार का कोई मतलब रह जाता है? जीवन को लेकर खतरा यानी जान जाने की आशंका. क्या मौत की आशंका ही जीवन के लिए सबसे बड़ा खतरा है. जिंदगी भर के दर्द के साथ जीना क्या जिंदगी के लिए कोई खतरा नहीं है?

क्या डॉक्टरों का पैनल उसकी मानसिक यातना, बुरी यादें और दूसरी दुश्वारियों का भी उसी हिसाब से आकलन कर पाएगा जिसका पल पल अहसास पीड़ित की मजबूरी बन चुकी है. क्या मेडिकल पैनल 'थ्रेट टू लाइफ' से आगे बढ़ कर पीड़ित की मौजूदा हालत का आकलन कर पाएगा.

राइट टू लाइफ एंड लिबर्टी

वो दसवीं की छात्रा है. अभी उसे स्कूल जाना है. आगे पूरी जिंदगी पड़ी है. और अगर मेडिकल पैमाने पर थ्रेट टू लाइफ जैसी बात नहीं है तो उसे भी बलात्कार के बोझ को पूरे वक्त उसी महिला की तरह ढोना पड़ेगा.

छात्रा की ओर से एडवोकेट कामिनी जायसवाल ने सुप्रीम कोर्ट में यही बात रखी. जायसवाल ने कहा कि अगर पीड़ित को पूरे वक्त गर्भ का बोझ ढोना पड़ा और बच्चे को जन्म देना पड़ा फिर तो वो जीने के सम्मान से वंचित ही रह जाएगी.

वकील ने अपनी दलील से कोर्ट को इस बात की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश की कि इसमें लड़की के मूल अधिकार 'राइट टू लाइफ एंड लिबर्टी' का हनन हो रहा है. फिर याद दिलाया कि अपनी मर्जी से बच्चा पैदा करने का अधिकार भी तो लिबर्टी के दायरे में ही आता है. कोर्ट ने भी पीड़ित के साथ सहानुभूति जताई और माना कि कानून के कारण उसके हाथ बंधे हुए हैं.

ऐसे में घूम फिर कर मामला वहीं पहुंच जाता है जहां से शुरू होता है. एक बार फिर ये बहस शुरू हो गई है कि अबॉर्शन का मतलब मां को जिंदगी, लेकिन बच्चे का कत्ल. आखिर इस बहस का अंत भी तो होना चाहिए. कोई ऐसा उपाय तो होना चाहिए जिससे दर्द थोड़ा कम हो सके.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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