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Updated: 22 अप्रिल, 2016 06:09 PM
शिवानन्द द्विवेदी
शिवानन्द द्विवेदी
  @shiva.sahar
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महाराष्ट्र का लातूर क्षेत्र सूखे के संकट से जूझ रहा है. निश्चित तौर पर यह एक गंभीर समस्या का दौर है. ऐसा बताया जा रहा है कि लातूर में यह अभूतपूर्व संकट है. मॉनसून के लगातार फेल होने की वजह से लातूर का यह संकट पैदा हुआ है. हालांकि पानी-पानी को बेहाल लातूर की इस समस्या के समाधान को लेकर सरकारी स्तर पर कुछ कदम उठाये गये हैं, लेकिन लातूर संकट पर माननीय उच्च न्यायलय द्वारा इन्डियन प्रीमियर लीग के मैचों पर प्रतिबन्ध लगाना बेहद अटपटा सा लगता है. लातूर से मुंबई और नागपुर दोनों की दूरी लगभग पांच सौ किलोमीटर के आसपास है. लिहाजा लातूर के संकट के लिए नागपुर और मुंबई में होने वाले क्रिकेट मैच को प्रतिबंधित करना समझ से परे है. ऐसे में अगर विवेकपूर्ण ढंग से लातूर के संकट और आईपीएल मैचों पर प्रतिबन्ध का मूल्यांकन करें तो ऐसा लगता है कि हाथ के मर्ज का इलाज दांत की दवा से करने की कोशिश की जा रही हो!

इतना तो लगभग सभी मान रहे हैं कि आईपीएल मैचों पर प्रतिबंध लगाने से लातूर जल-संकट के निस्तारण में जरा सा भी योगदान नहीं मिल सकता है. अगर मिल सकता है तो यह सार्वजनिक होना चाहिए कि आईपीएल मैचों के हिस्से का कितना पानी बचाकर लातूर भेजा गया है और क्या जहां से पानी भेजा गया है वहां भी पानी की वैसी ही किल्लत है, जैसे लातूर में है? अगर नहीं तो फिर सवाल उठता है कि इस प्रतिबन्ध का औचित्य क्या था? कई विशेषज्ञ भी यह तर्क दे रहे हैं कि आईपीएल पर प्रतिबन्ध से तो लातूर जल-संकट को कोई समाधान नहीं मिलेगा लेकिन उच्च न्यालालय के इस फैसले को एक प्रतीकात्मक संदेश के तौर पर देखे जाने की जरूरत है.

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सूखे के कारण महाराष्ट्र के 90 लाख किसान प्रभावित हुए हैं, इनमें से लातूर के हालात सबसे ज्यादा खराब है

संविधान में आस्था रखने वाला और 'रुल ऑफ़ लॉ' को मानने वाला कोई भी नागरिक माननीय न्यायालय के निर्णय का सम्मान करेगा लेकिन इस तर्क को खारिज नहीं किया जा सकता है कि जब लातूर को पानी की जरूरत है तो भला 'प्रतीकात्मक संदेश' भेजने से समस्या का समाधान कैसे होगा? एक समस्या से हम निपट नहीं पा रहे तो कुछ न कुछ करने के नाम पर किसी एक चीज पर प्रतिबन्ध ही लगा देने की एक कु-प्रथा हमारे शासकीय तंत्र में काफी पहले से विकसित होती आ रही है. ऐसी कु-प्रथाओं का विकास लोकतंत्र के वास्तविक एवं व्यवहारिक मूल्यों को नष्ट करने जैसा है.

तर्कपूर्ण ढंग से अगर सोचें तो आईपीएल में जो पानी खर्च होता वो लातूर के काम आने वाले पानी का हिस्सा था, अथवा वो अब प्रतिबन्ध के बाद लातूर के काम आया, क्या इसका कोई मूल्यांकन किया गया है? मेरी जानकारी में नहीं किया गया है! अगर नहीं किया गया अथवा इसका मूल्यांकन नहीं हुआ है कि आईपीएल पर प्रतिबन्ध से लातूर को कोई लाभ हुआ या नहीं, तो फिर इस पूरे प्रतिबन्ध के औचित्य पर सवाल तो उठेंगे. हम तर्कविहीन और तथ्यहीन ढंग से किसी समस्या से निपटने की कोशिश तो कर कर सकते हैं लेकिन सफलता नहीं प्राप्त कर सकते हैं. समस्या के समाधान की सफलता के लिए आवश्यक है कि वो कदम उठायें जो सीधे एवं प्रभावी तौर पर समस्या का समाधान करते नजर आ रहे हों.

समाज से जुड़े ऐसे गंभीर संकटों का समाधान किसी इमोशनल अथवा महज संदेश देने वाले हथकंडों से किया जाना हमारी अगम्भीरता को दर्शाता है. लातूर के संकट का समाधान क्या हो, इसपर विस्तार से चर्चा हो, बहस हो लेकिन समाधान न मिलने की स्थिति में कुछ भी समाधान के रूप में परोस देना कतई ठीक नहीं कहा जा सकता है. हमें उदाहरण के तौर पर संयुक्त अरब अमीरात का शारजाह शहर देखना चाहिए जो रेगिस्तान होने के बावजूद कभी पानी की ऐसी किल्लत से नहीं जूझता कि उसे क्रिकेट मैच पानी की वजह से रद्द करना पड़ा हो!

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 आईपीएल मैचों के दौरान पिच तैयार करने के लिए करीब 60 लाख लीटर पानी का इस्तेमाल किया जा रहा है

इस मामले को समझने में एक लघुकथा भी बेहद प्रासंगिक है कि एक राज्य में किसी प्रजा का बन्दर खो गया तो उसने न्याय की गुहार राजा से लगाई. इसपर राजा ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि जाओ और उस बंदर को लाकर पेश करो जो भाग गया है. कई दिन खोजने के बाद जब वो बन्दर नहीं मिला तो सिपाहियों ने एक भालू को पकड़कर पीटना शुरू किया. वे उसे तबतक पीटते रहे जबतक उसने मान नहीं लिया कि वही बन्दर है. कहने का अर्थ यह है कि समाधान न मिलने की स्थिति राज्य कुछ भी समाधान दे दे यह उचित नहीं है. आईपीएल पर प्रतिबन्ध और लातूर के संकट को इसी लघुकथा के माध्यम से समझा जा सकता है.

जल संकट की वजह और समाधान

पानी एक प्राकृतिक संपदा है लिहाजा प्राकृतिक रूप से भी यह संकट पैदा होने की संभावना रहती है. दूसरी यह किसी भी सरकार से ज्यादा समाज की निजी जरुरत है लिहाजा इस संकट का सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता है. लेकिन इस मामले में दिक्कत ये है कि पानी जैसी प्राकृतिक संपदा का सरकारीकरण होता जा रहा है. किसी के पास अपना पानी नहीं बच पा रहा है और संकट के समय लोग सरकार पर निर्भर होते जा रहे हैं जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. पानी एक फ्री-प्रोडक्ट है जो सरकार द्वारा जनता को दिया जाएगा, यह धारणा मन से निकालनी होगी. पानी फ्री नहीं है और सरकार भी जब आपको पानी देती है तो फ्री नहीं देती है. बेशक वो आपको फ्री में पानी देने का बोध कराती है, लेकिन सच्चाई ये है कि किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष जनता से उसका मूल्य वसूल लिया जाता है. अगर वाकई पानी एक बिकाऊ उत्पाद है तो इसको सरकार की बजाय समाज के हाथों में छोड़ देने में क्या समस्या है? जब संकट और समाधान दोनों की जिम्मेदारी समाज की होगी तो वो पानी के उपयोग के बेहतर फार्मूले इजाद कर लेगा.

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मान लीजिये पानी का कारोबार एक लघु-उद्योग व्यवसाय के तौर विकसित हो जाय तो एक ही क्षेत्र में पानी संरक्षण के तमाम विकल्प खुलकर सामने आ जायेंगे. आयात-निर्यात के बेहतर विकल्प खुलकर समाने आ जायेंगे. आकस्मिक अथवा मानसून वाली समस्याओं से निपटने के लिए पहले से तैयारियां भी निश्चित ही की जायेंगी. फलों के सन्दर्भ में इस मामले को देखें तो 'आम' अर्थात मैंगो हर मौसम पेड़ों पर नहीं उगा रहता लेकिन देश के किसी भी इलाके में किसी भी मौसम में आम की जरुरत हो तो उसकी उपलब्धता जरूरत के अनुरूप दर से सुनिश्चित रहती है. जिस क्षेत्र में 'एपल' यानी सेब का एक पेड़ भी नहीं दिखता, उन क्षेत्रों में भी सेब खाना कोई दुरूह कार्य नहीं है. आखिर क्यों? इसका जवाब सीधा है कि फलों के लिए हम किसी सरकार पर नहीं बल्कि समाजिक आदान-प्रदान वाले व्यापार पर निर्भर हैं. हमें उदारवादी दृष्टिकोण रखते हुए यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि हमेशा बाजार की उपलब्धता सरकार की उपलब्धता की तुलना में ज्यादा अवसर और विकल्प प्रदान करती है. पानी के लिए भी इस किस्म के एक खुले बाजारपरक दृष्टिकोण को रखना होगा.

लेखक

शिवानन्द द्विवेदी शिवानन्द द्विवेदी @shiva.sahar

लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउन्डेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम के संपादक हैं.

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