क्या सरकारें सिर्फ बुरी ही होती हैं?
रामनाथ गोयनका ने एक बार एक रिपोर्टर को (केवल इसलिए) नौकरी से निकाल दिया था, क्योंकि उनसे एक राज्य के मुख्यमंत्री ने कहा था कि आपका रिपोर्टर बड़ा अच्छा काम कर रहा है.
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जान पड़ता है, रामनाथ गोयनका बड़े अहमक़ किस्म के शख़्स थे. इंडियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा ने हाल ही में, किंचित गौरव के साथ, यह चकित करने वाली सूचना दी कि गोयनका ने एक बार एक रिपोर्टर को (केवल इसलिए) नौकरी से निकाल दिया था, क्योंकि उनसे एक राज्य के मुख्यमंत्री ने कहा था कि आपका रिपोर्टर बड़ा अच्छा काम कर रहा है.
इंडियन एक्सप्रेस के संपादक राजकमल झा |
मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इसका क्या मतलब निकाला जाए! झा और गोयनका का आशय यह था कि-
1) सरकारें, वे चाहे कोई भी हों, बुराई का ही पर्याय होती हैं.
2) पत्रकार, वह चाहे कोई भी हो, का दायित्व केवल और केवल सरकार की आलोचना करना ही होता है.
3) मीडिया, वह चाहे कैसा भी हो, का काम केवल और केवल क्रिटिसिज़्म ही है एप्रिसिएशन नहीं.
4) अगर कोई सरकार किसी पत्रकार की प्रशंसा करती है तो इसका केवल यही आशय है कि वह पत्रकार अनैतिक है और उस स्थिति में उसे नौकरी से निकाल दिया जाना इस समस्या का एक नैतिक निदान होगा.
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झा ने बताया नहीं कि उस प्रसंग का सटीक परिप्रेक्ष्य क्या था और जैसा कि उन्होंने पहले ही चेता दिया कि विकीपीडिया पर हमें इसकी जानकारी नहीं मिलेगी, इसलिए इस बारे में जानने का कोई उपाय भी नहीं सूझता कि
1) वह कौन-से राज्य का और किस पार्टी का मुख्यमंत्री था जिसने उस पत्रकार की प्रशंसा की थी और
2) उस मुख्यमंत्री ने किस विशेष संदर्भ में वह सराहना की थी.
इन दोनों बातों को जाने बिना उपरोक्त किस्से का कोई अर्थ नहीं निकाला जा सकता. वह केवल एक तालीपिटाऊ मुहावरा है और अखबारों के प्रबुद्ध संपादकों से इस तरह की बातें कहने की उम्मीद नहीं की जा सकती.
मसलन, अगर कोई सरकार किसी गांव में जल संरक्षण की योजना लागू करती है तो क्या पत्रकारिता का धर्म यह होना चाहिए कि वह पूरी कोशिश करे कि वह योजना सफल ना हो सके,
1) क्योंकि पत्रकारों को अनिवार्यत: सरकारों की आलोचना ही करनी चाहिए
2) क्योंकि सरकारें अनिवार्यत: बुरी ही होती हैं
3) क्योंकि अगर आप सरकार की आलोचना नहीं करेंगे तो आपके संपादक आपको नौकरी से निकाल सकते हैं.
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कहना ना होगा, यह बहुत ही फिल्मी किस्म की तर्कप्रणाली है. इस तर्क को आगे बढ़ाएं तो अगर सरकारें अनिवार्यत: बुरी ही होती हैं. तो क्यों ना निर्वाचन की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही निरस्त कर दिया जाए और इस बुराई से हमेशा के लिए पिंड छुड़ा लिया जाए. इससे भी बेहतर होगा अगर पत्रकारों को ही देश का सच्चा जनप्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाए और मीडिया चैनलों के हाथ में देश की कमान सौंप दी जाए.
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