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Updated: 20 सितम्बर, 2015 07:13 PM
अल्‍पयू सिंह
अल्‍पयू सिंह
  @alpyu.singh
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प्रधानमंत्री जी. सबसे पहले मैं अपना परिचय आपको दे दूं. मैं महाराष्ट्र की पारिल तहसील के नागापुर गांव से हूं. मेरी उम्र 70 साल के करीब है.

मैं आज आपको हमारे सूबे के मराठवाड़ा इलाके में सूखे के हालात की कहानी बताना चाहती हूं, लेकिन इससे पहले मैं आपको अपनी कहानी सुनाना चाहती हूं. मेरा 33 साल का बेटा हनुमंत सोनटक्के और बहू सुमित्रा अब इस दुनिया में नहीं हैं. उन्होंने बोरवेल खुदवाने के लिए कर्ज लिया था, लेकिन न पानी और न फसल बची. सदमा दोनों लोग बर्दाश्त न कर पाए और उन्होंने जहर खाकर जान दे दी.

उनके पीछे अब परिवार में उन के छोटे-छोटे 4 बच्चे और मेरे अंधे पति हैं, जिनकी जिम्मेदारी मेरे कंधों पर है. मैं दूसरों के खेतों में काम करती हूं और इस पूरे परिवार का पेट पालती हूं. लेकिन ये महज मेरी कहानी नहीं है, पूरे मराठवाड़ा में ऐसी या इससे बदतर कहानियां बिखरी पड़ी हैं, जनवरी से लेकर अब तक 660 किसान जीवन खत्म कर चुके हैं, कितने बच्चों ने अपने पिता खोए हैं और कितने ही घरों के इकलौते कमाने वाले इस सूखे की भेंट चढ़ गए हैं. कुछ ने दुनिया छोड़ दी है तो कुछ ने गांव. जाने कितने ही ऐसे गांव है, जहां अब सिर्फ बच्चे और बूढ़े ही रह गए हैं. लोग-बाग पलायन कर शहर की ओर चले गए हैं. जालना के कठी गांव को ही देख लीजिए, वहां रहने वाले देवराव पांढरे और उनकी पत्नी अंजना मेरे जानने वालों में से हैं, इन दोनों बूढ़े लोगों के पास अब सूखे खेत और जली फसल के अलावा कुछ नहीं. बच्चे घर में ताला लगाकर शहर चले गए हैं. 3000 की आबादी वाले गांव में तकरीबन 40 परिवार पलायन कर गए हैं. जीवन की इस सांझ में हमारे जैसे बूढ़े लोगों के कंधों पर बच्चों की देखभाल और बच्चों के हिस्से पानी की तलाश की जद्दोजहद आ गई है. यकीन मानिए मराठवाड़ा में हालात इतने खराब पहले कभी नहीं हुए. मेरे जैसे लोगों ने 1972 का भी अकाल देखा है. लेकिन उस वक्त भी हालात ऐसे ना थे, तब खाने को नहीं था, लेकिन पीने के पानी के लिए ऐसी मारामारी कभी नहीं देखी, नौजवानों को ऐसे शहर की ओर भागते नहीं देखा, लोगों को ऐसे मरते नहीं देखा.

प्रधानमंत्री जी आप तो भारतीय चिंतन और दर्शन में रूचि रखते हैं और मुझे लगता है कि मराठवाड़ा की ही धरती पर जन्मे संत एकनाथ के बारे में जरुर जानते होंगे. यहां के पैठन में जन्मे संत की सहनशीलता के बारे में एक किस्सा बेहद मशहूर है. कहा जाता है कि संत एक बार नदी से स्नान कर घर की ओर जा रहे थे कि एक शख्स ने उन पर थूक दिया. संत ने उस शख्स से कुछ नहीं कहा और फिर से स्नान किया. लेकिन थूकने और स्नान करने का ये सिलसिला 108 बार तक चला... यानी तब तक जब तक कि उस शख्स को अपनी गलती का अहसास नहीं हो गया.

कुछ लोग यहां के किसानों की जिंदगी से हार मानने की प्रवृति को भी इस धरती के सहनशीलता के संस्कार से जोड़ते हैं, जो मेरी नजर में गलत है, हालांकि वो कहते हैं कि यहां का भीरू किसान अपने हालातों का गुस्सा भी खुद पर ही निकाल लेता है, लेकिन इस बार वही लोग ये भी कह रहे है कि सूखे ने किसान की सहनशीलता को अब विस्फोटक गुस्से से भर दिया है. धीरे-धीरे उबल रहा ये गुस्सा उसे कभी भी नक्सली बना सकता है... मतलब हालात इस बार वाकई खतरनाक हैं.

प्रधानमंत्री जी मैं तो अनपढ़ औरत हूं. ज्यादा समझती नहीं लेकिन युवा लोगों का कहना है कि ये सिर्फ मौसम की नाराजगी वाला सूखा नहीं है. बहुत कुछ ऐसा ही जो हम इंसानों के स्वार्थ ने पैदा किया है और जिसका खामियाजा बेबस किसान को अपनी जान देकर भुगतना पड़ रहा है. ये लोग कहते हैं कि नकदी फसलों की खेती ने साल-दर-साल जमीन के भीतर के पानी को सोख लिया है. आखिरकार एक गन्ने को तैयार करने में 180 लीटर पानी की जरुरत जो पड़ती है.

मैं आपसे पूछना चाहती हूं कि क्या ये बात भी सही है कि चीनी मिलें धीरे-धीरे उन्हीं किसानों को निगल रही हैं, जिन्हें निजी हाथों से बचाने के लिए सहकारी आंदोलन शुरू किया गया था. युवा लोग कहते हैं कि राजनेताओं से रिश्तों के चलते ही चीनी मिलों को बिना रोक टोक पानी मुहैया कराया जाता है... बांधों का पानी मोड़ा जाता है.

इस सब का असर ये हुआ कि सूखी धरती का शोक किसान खुद की जान देकर ही मनाने लग गए हैं. प्रधानमंत्री जी आप देश के युवाओं को बड़ी ताकत मानते हैं, क्या आपको मालूम है कि मराठवाड़ा में खुदकुशी करने वाले किसानों में से 50 फीसदी किसान 20-40 साल की उम्र के थे. मेरा बेटा हनुमंत भी 33 साल का ही था.  

अब जरा सरकार की बात कर लें. ये बात सही है कि पानी के टैंकर गांवों में आते हैं... सरकार तो कहती है कि 14000 टैंकरों से राहत पहुंचाई जा रही है, लेकिन ये काफी नहीं है. कुएं बावड़ी सब तो सूख चुके हैं, ऐसे में कई जगह मीलों दूर चलकर पीने के पानी का जुगाड़ करना पड़ रहा है. घर के ज्यादातर लोग सुबह-सुबह ही पानी की तलाश में निकल जाते हैं और जैसे तैसे खुद को और जानवरों को जिंदा रखने की जद्दोजहद जारी है.

हमारे इन हालातों के लिए कौन सी वजहें कम जिम्मेदार हैं, कौन सी ज्यादा? आप बेहतर जानते होंगे. लेकिन प्रधानमंत्री हम चाहते हैं कि आप एक बार खुद आकर यहां के हालात देखें. आप तो देश-विदेश जाते रहते हैं. सुना है बहुत जल्द आप अमेरिका जा रहे हैं, वहां आप फेसबुक के दफ्तर भी जाएंगे. हमारी अपील सिर्फ इतनी है कि एक बार आप मराठवाड़ा आएं, खुद हालातों का जायजा लें ताकि हमें आपसे अपने इस सवाल का जवाब मिल सके कि क्या लोग ठीक कहते हैं कि साल-दर-साल पड़ने वाला ये सूखा सिर्फ कुदरत का नियम नहीं, बल्कि बहुत कुछ ऐसा है, जो हम इंसानों ने ही पैदा किया है.

आपके दर्शनों की आकांक्षीविमलाबाई

नोट : किरदार असली लेकिन पत्र काल्पनिक है.

लेखक

अल्‍पयू सिंह अल्‍पयू सिंह @alpyu.singh

लेखक आज तक न्यूज चैनल में एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर हैं.

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