New

होम -> सियासत

 |  7-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 09 सितम्बर, 2016 05:59 PM
स्नेहांशु शेखर
स्नेहांशु शेखर
  @snehanshu.shekhar
  • Total Shares

क्रिकेट में अक्सर देखा गया है कि अगर बल्लेबाज फॉर्म में न हो तो फुलटॉस पर भी गिल्ली उड़ जाती है. क्रिकेट और राजनीति में थोड़ा फर्क है. यहां खिलाड़ी के फॉर्म से ज्यादा रणनीति काम आती है. एक गलत दांव और बना-बनाया खेल ध्वस्त होते वक्त नहीं लगता. आम आदमी पार्टी और खासकर केजरीवाल के लिए दिन कुछ अच्छे नहीं चल रहे हैं.

हालांकि राजनीति के एक किरदार की ही ज्यादा समीक्षा व्यक्तिगत तौर पर मैं ठीक नहीं मानता, लेकिन राजनीति के इस दौर में जहां नैतिकता, पारदर्शिता, शुचिता पर चर्चा ज्यादा हो रही है, ऐसे में ये विवाद क्या केजरीवाल या उनकी पार्टी के हक में है या नहीं? इस पर चर्चा जरूरी भी है. शुक्रवार को दिल्ली विधानसभा की स्पेशल बैठक बुलाई गई है और बैठक बुलाने वाले केजरीवाल अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने पहुंचे हुए हैं और कहा कि सरकार में आए तो अमृतसर को गोल्डन सिटी का दर्जा दिया जाएगा.

केजरीवाल रोम से लौटे हैं और एक दिन विराम कर पंजाब गए हैं और दावा किया है कि अब वह “खूंटा” गाड़ में पंजाब में रहेंगे और बीच-बीच में दो-चार दिन के लिए उनका दिल्ली आना-जाना लगा रहेगा. अब ये शब्द अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है. मुझे अनायास याद गया 14 फरवरी, 2015, जब दोबारा शपथ ग्रहण के वक्त रामलीला मैदान से केजरीवाल ने कुछ बातें कहीं थी.

कहा था कि राजनीति में घमंड अच्छा नहीं होता, जो घमंड करता है, जनता उसे सबक सिखाती है. लोकसभा चुनाव के दौरान इसी घमंड की हमें सजा मिली, हमने महत्वाकांक्षा पाली, दिल्ली छोड़कर दूसरे राज्यों में चले गए और उसकी हमें सजा मिली. अब दिल्ली की जनता ने जो प्यार दिया, अगले पांच साल तक हम दिल्ली से कहीं नहीं जाने वाले. पूरे तन-मन और धन से मैं दिल्ली की जनता की सेवा करूंगा.

ये भी पढ़ें: केजरीवाल के खिलाफ कितना कारगर है सिद्धू का 'पंजाबियत' दांव?

 

अब डेढ़ साल में ऐसी क्या बात हुई कि महत्वाकांक्षाएं फिर जाग उठी. पहले दिल्ली में शीला दीक्षित को जेल भेजने की कसमें खाते थे, अब पंजाब में मजीठिया और बादलों को जेल भेजने की कसमें खा रहे हैं. शीला दिल्ली से निकलकर अब तो उत्तर प्रदेश पहुंच गई, वहां मुख्यमंत्री पद की दावेदार हो गई, पर जेल भेजने की दिशा में क्या हुआ, पता नहीं.

kejriwal-650_090916052937.jpg
क्या पंजाब जीतने की केजरीवाल की महत्वाकांक्षा सफल होगी?

और यह आकांक्षा या महत्वाकांक्षा सिर्फ पंजाब तक सीमित नहीं है. आज दिल्ली में डेंगू, चिकनगुनिया का प्रकोप जारी है, अस्पतालों में मरीजों की लाइन लगी पड़ी है, बेड नहीं मिल रहे और मुख्यमंत्री पंजाब में खूंटा गाड़ने गए, उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया गोवा में है, गोपाल राय 12 दिनों के लिए छतीसगढ़ जा रहे हैं. एक मंत्री हटाए जा चुके है और स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन कह रहे है कि सरकार वॉट्सएप से बखूबी चलाई जा रही है. सोशल मीडिया का जमाना है, लिहाजा उनके लिए कुछ भी संभव है.

दूसरी घटना घटी कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार के 21 संसदीय सचिवों की नियुक्ति के फैसले को रद्द कर दिया है. अब जरा सोचिए जब इन नियुक्तियों की पीछे सोच क्या थी. एक काबिल मंत्री के सहयोग के लिए छह संसदीय सचिव. मतलब एक मंत्री का सहयोग छह विधायक करेंगे, जब सहयोग करेंगे तो सुविधाएं भी चाहिए, सो दी गईं.

एक तो गलत तरीके से फैसला लिया गया और ऐसा नहीं कि केजरीवाल को इस बात का अहसास नहीं था. न सिर्फ फैसला गलत था, बल्कि तरीका भी गलत था. दिल्ली के मौजूदा कानून के तहत एक पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी का प्रावधान है और वह भी मुख्यमंत्री कार्यालय के साथ. बिल लाया गया, वह भी बिना एलजी की सहमति के और लागू किया गया रिट्रोस्पेटिव टर्म पर.

जाहिर है यह कवायद इन संसदीय सचिवों को कानूनी प्रक्रिया से बचाने की कोशिश के तहत की गई थी. मजे की बात यह है कि गुरुवार को हाई कोर्ट में दिल्ली सरकार के वकील ने भी माना कि फैसला बिना एलजी की अनुमति के लाया गया, जो गलत था पर इस गलती का अहसास इतनी फजीहत कराने के बाद पार्टी को कैसा हुआ, यह बड़ा सवाल है.

ये भी पढ़ें: ये तो 'आप' के अंदर की बात है, कैसे संभालेंगे केजरीवाल

अब सारी नजरें चुनाव आयोग पर टिकी रहेंगी, जो निर्धारित करेगा कि इन संसदीय सचिवों की विधानसभा की सदस्यता बरकरार रहती है या नहीं. इतने दिनों से इन नियुक्तियों को लेकर विश्लेषक और जानकार लगातार चेतावनी दे रहे थे, पर केजरीवाल के करीबी भी स्वीकार करते हैं, कि उन्हें अपने फैसले का विरोध स्वीकार नहीं होता. इसे कुछ लोग अहंकार भी मान सकते हैं.

तीसरा मसला पार्टी के एक अन्य नेता आशुतोष से जुड़ा है. मसला मंत्री संदीप कुमार की सेक्स सीडी का था, उनका कुकृत्य सामने आने पर मजबूरी में ही सही, पार्टी को जो कदम उठाना था, उठा लिया गया. बचाव के लिए कोई तर्क भी नहीं था, लेकिन ब्लॉग लिखकर क्या-क्या नहीं कहा गया. नेहरू के भी ऐसे संबंध थे, गांधी के सरला चौधरी के साथ तालुल्कात थे. संजय सिंह ने तो वाजपेयी, मोदी-अमित शाह तक को घसीटा. हालांकि पार्टी नेताओं की भाषा को लेकर पहले भी काफी बहस हो चुकी है, और यह कोई पहला मौका नहीं था.

लेकिन विचारों की स्वतंत्रता के नाम पर जिस तरह का ब्लॉग लिखा गया, उससे सहमत होना थोड़ा मुश्किल है. लेकिन गुरुवार को सिद्दू ने एक बात कही कि केजरीवाल पर सवाल खड़े करो, तो वो काटने को दौड़ते हैं, क्योंकि वो मान बैठे हैं कि इस धरती पर ईमानदारी का कॉपी राइट सिर्फ उनके पास ही है. यह सिद्दू के कहने की बात नहीं है, जितनी बार पार्टी या सरकार पर कोई गंभीर आरोप लगे, हर बार जो वीडियो संदेश मुख्यमंत्री कार्यालय से रिलीज किया जाता है, उसे ध्यान से सुनिए, वही मानसिकता दिखती है.

sidhhu_090916053046.jpg
सिद्धू ने कहा कि केजरीवाल की आलोचना करने पर वो काटने दौड़ते हैं!

एक पंच लाइन होती है, चाहे जो मामला आए, जितना गंभीर मामला आए, पर पार्टी में सब जानते हैं कि वो ईमानदारी से कभी समझौता नहीं कर पाते हैं. ईमानदारी उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का सबसे बड़ा ढाल भी है और हथियार भी, बाकी और कुछ तो अलग नहीं दिखा अब तक.

ऊपर राजनीतिक दांव की चर्चा की गई थी और अब जबकि पंजाब में चुनाव की भूमिका तैयार हो रही है. ऐसे में सिद्दू को लेकर जो दांव खेला गया, वह कितना महंगा पड़ेगा, यह तो वक्त तय करेगा, पर यह खेल निश्चित तौर पर पार्टी के लिए उल्टा पड़ा है. पार्टी को पंजाब के लिए एक चेहरे की तलाश है. पार्टी को पता है कि जिस नशाखोरी को मुद्दा बनाकर मजीठिया पर हमले हो रहे है, ऐसे में भगवंत मान को चेहरा बनाया, तो गड़बड़ हो सकती है.

उनके बहुत सारे वीडियो पर पहले भी बवाल हो चुका है और मामला लोकसभा स्पीकर तक पहुंच चुका है. सुच्चा सिंह पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं, कई जिलों में पार्टी के दफ्तर में ताला लगवा चुके हैं, लिहाजा चुनौती बड़ी है. सुच्चा सिंह के बदले पार्टी एक और कॉमेडियन गुग्गी को लेकर आई है. पार्टी को सिद्धू से उम्मीद थी, पर गुरुवार को जब सिद्घू ने मुंह खोला, उसे लेकर पार्टी में बेचैनी स्वाभाविक है. जिस दिन सिद्धू ने बीजेपी ने नाता तोड़ा था, तब भी इस बात का कयास लग रहा था कि क्या केजरीवाल शेरी साहब को संभाल पाएंगे, खासकर उस मुद्दे पर, जिन मुद्दों पर उन्होंने बीजेपी को छोड़ा.

पार्टी पंजाब को लेकर काफी उत्साहित है, हालांकि यह उत्साह गोवा, गुजरात औऱ बाकी राज्यों को लेकर भी है. यही उत्साह 2014 लोकसभा चुनावों के दौरान भी था, जब पार्टी ने एक झटके में 400 से ज्यादी सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया था.

बिना जमीन तैयार किए पार्टी बनारस और अमेठी तक में भिड़ गई थी. खैर जो नतीजा निकला उसे सबने देखा और पार्टी ने भी महसूस किया था. शायद यही अहसास था जिसका जिक्र केजरीवाल ने 2015 में शपथ ग्रहण लेते वक्त किया था. उत्साह और महत्वाकांक्षा की दौड़ में वो पुराने वायदे भले ही भूल गए हों. पर इतिहास कई बार तथ्यों को भूलने नहीं देता और जागरूक लोग भी इसे नहीं भूलते.

दिल्ली वाले भी सब देख रहे हैं. लोगों ने इशारे के तौर पर एमसीडी के 13 सीटों पर हुए उपचुनावों के जरिए संदेश दे रखा है. हालत ये है कि युवाओं के बीच अपनी लोकप्रियता का दंभ भरने वाली पार्टी दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संगठन में चुनाव लड़ने का मनोबल भी नहीं जुटा पाई. ऐसे में पार्टी की महत्वाकांक्षा का खूंटा कितना गहरा है, यह देखना होगा!

लेखक

स्नेहांशु शेखर स्नेहांशु शेखर @snehanshu.shekhar

लेखक आजतक चैनल के एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय