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Updated: 07 अक्टूबर, 2016 10:13 PM
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सर्जिकल स्ट्राइक पर हो रही मौजूदा राजनीति बिहार चुनाव में मची छिछालेदर को भी मात दे रही है, जबकि विधानसभा चुनावों की अभी घोषणा तक नहीं हुई है.

#PakStandsWithKejriwal के साथ अरविंद केजरीवाल पाकिस्तान में टॉप ट्रेंड बन रहे हैं, तो राहुल गांधी के 'खून की दलाली' वाले बयान पर अमित शाह उनके मूल में ही खोट खोजने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन इन सबके बीच देश कहां है? सियासत की इस सतही सिरफुटौव्वल में देश कहीं पीछे तो नहीं छूट रहा?

ऐसा तो नहीं कि इस राजनीतिक तू-तू, मैं-मैं के चक्कर में देश की आंतरिक सुरक्षा नजरअंदाज हो रही है?

अभी तो सबसे बड़ा सवाल होना चाहिये कि आखिर सेना के कैंप पर एक के बाद एक आतंकवादी हमले क्यों होते जा रहे हैं?

सवाल क्यों नहीं?

सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल भी खड़े किये जा रहे हैं और सबूत भी मांगे जा रहे हैं - लेकिन असली मसला कोई नहीं छू रहा है. सबको बस इसी बात की पड़ी है कि कोई मैदान अकेले न लूट ले जाये.

सेना के कैंपों पर बार बार हमले क्यों हो रहे हैं? क्या सबक लेने के लिए पठानकोट काफी नहीं था? अगर सबक लिये होते तो क्या उड़ी हमले को रोका नहीं जा सकता था? आखिर ये सवाल कोई क्यों नहीं पूछ रहा है?

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उड़ी हमले के दोषियों को सजा देने का भरोसा दिलाया था. सर्जिकल स्ट्राइक के फैसले के पीछे जो भी राजनीतिक दबाव या मजबूरी हो, लेकिन देश के लिए जरूरी था. सेना का मनोबल बनाये रखने के लिए बेहद जरूरी था. ये ठीक है कि पहले भी सर्जिकल सट्राइक हुए लेकिन ढोल नहीं पीटे गये. लेकिन ये स्ट्राइक उड़ी अटैक के खिलाफ था.

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जवानों की सुरक्षा पर सवाल क्यों नहीं?

ताजा सर्जिकल स्ट्राइक की सबसे अच्छी बात ये रही कि ऑपरेशन में उन्हीं रेजीमेंट के सैनिकों को भेजा गया जिनके साथी उड़ी में शहीद हो गये. इस एक्शन से सेना का मनोबल तो बढ़ा ही, उड़ी हमले के शहीदों के परिवार वालों के मन को भी बेहद सुकून मिला.

उड़ी के बाद बारामूला के आर्मी कैंप पर हमला क्यों हुआ? कुपवाड़ा और हंदवाड़ा में सेना के कैंपों तक आखिर दहशतगर्द कैसे पहुंच गये? कहीं ऐसा तो नहीं आंतरिक सुरक्षा के मामले में हम पठानकोट स्टेटस से आगे अब तक नहीं बढ़ पाये हैं? याद कीजिए पठानकोट में आतंकवादी लुकाछिपी का खेल खेल रहे थे और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा कर दी कि ऑपरेशन खत्म हो गया - कुछ ही देर में उनके दावे की हवा निकल गई और फिर अगले कई घंटों तक मुठभेड़ चलती रही. उस ऑपरेशन को हैंडल करने में भी कई तरह की खामियां सामने आईं - और फिर जैसे तैसे बात आई गई हो गई.

सबक क्यों नहीं लिये?

गृह मामलों पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी ने भी इन हमलों के पीछे खुफिया नाकामी पर सवाल उठाये हैं. हालांकि, इस कमेटी की अगुवाई भी पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम कर रहे हैं. सवाल उठाने के पीछे सियासत भले ही खोज ली जाये लेकिन जवाब जरूरी लगते हैं.

इकनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह इस स्टैंडिंग कमेटी ने सेना के कैंपों पर हाल के आतंकवादी हमलों के पीछे खुफिया नाकामी को लेकर गृह मंत्रालय के बड़े अफसरों से सवाल किये हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, कमेटी के एक सीनियर सदस्य ने गृह सचिव राजीव महर्षि से कहा, "हमारे क्षेत्र में आतंकवादियों के घुसपैठ करने और संवेदनशील ठिकानों पर हमला खुफिया नाकामी है." रिपोर्ट में बताया गया है कि कमेटी ने खुफिया जानकारी जुटाने वाली एजेंसियों NCTC, MAC और NATGRID और उनकी स्थिति के बारे में सवाल किये लेकिन उन्हें जवाब संतोषजनक नहीं मिले. आखिर राहुल गांधी का ध्यान इन बातों पर क्यों नहीं जाता? आखिर अरविंद केजरीवाल आंतरिक सुरक्षा के सवाल पर मोदी सरकार को क्यों नहीं घेरते? बल्कि ये दोनों तो वही सवाल उठा रहे हैं जो बीजेपी चाहती है.

कहीं ऐसा तो नहीं कि उड़ी हमले के बाद भी हम पठानकोट जैसी ही लकीर पीट रहे हैं - और दहशतगर्दों को आसान रास्ता मुहैया करा रहे हैं. अगर ये इंटेलिजेंस की नाकामी है तो उस पर क्यों नहीं ध्यान दिया जा रहा. अगर सरकार इस फ्रंट पर नाकाम है तो राहुल गांधी उसे क्यों नहीं कठघरे में खड़ा कर रहे हैं. अगर ये सब किसी भ्रष्टाचार या किसी और वजह से हो रहा है तो केजरीवाल का ध्यान उस ओर क्यों नहीं जा रहा.

लोकतंत्र में विपक्ष चाहे कितना भी कमजोर क्यों न हो - उसका बैलेंसिंग एक्ट उसे हरदम मजबूत बनाए रखता है. कोई ये क्यों नहीं पूछ रहा है? खून की दलाली और मौत के सौदागर जैसे हिसाब किताब चलते रहेंगे - लेकिन असली मुद्दों से कब तक मुहं मोड़े रहेंगे?

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राहुल गांधी और केजरीवाल को अगर ये बात जल्द से जल्द समझ में आ जाय तो देश के लिए बढ़िया होगा. अगर बदनाम होकर ही नाम कमाना हो तो AIB और AAP के अप्रोच में फर्क कहां रह जाता है. राहुल गांधी का 'खून की दलाली' वाला बयान सोनिया के मौत के सौदागर की कॉपी नहीं तो और क्या है?

"जिंदा रहने के पीछे अगर सही तर्क नहीं है, तो रामनामी बेचकर या रं** की दलाली करके रोजी कमाने में कोई फर्क नहीं है." बरसों पहले अपने इस क्लासिक बयान 'मोचीराम' में धूमिल ने जो कुछ देखा था, अब भी उसमें फर्क क्यों नहीं आ सका है? समझना मुश्किल हो रहा है.

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