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Updated: 27 मई, 2017 05:29 PM
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राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की राय में जिसमें अच्छी तरह संवाद स्थापित करने की क्षमता न हो उससे लाखों लोगों के का नेतृत्व करने की उम्मीद नहीं की जा सकती. राष्ट्रपति मुखर्जी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में भी अब ये खूबी नजर आने लगी है. उनका मानना है कि मोदी भी पूर्व प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की तरह लोगों से संवाद कायम करने में दक्ष हैं.

अहम बात ये है कि प्रधानमंत्री मोदी में इंदिरा गांधी के अक्स नजर आने के क्या मायने हो सकते हैं?

मोदी की इंदिरा से तुलना

हाल ही में राष्ट्रपति मुखर्जी ने इंदिरा गांधी को '20वीं सदी की महत्वपूर्ण हस्ती' - और अब तक का 'सर्वाधिक स्वीकार्य शासक' या प्रधानमंत्री बताया था. यानी उनकी नजर में दूसरा कोई भी प्रधानमंत्री स्वीकार्यता के मामले में उस ऊंचाई को नहीं छू सका है.

अपनी ताजातरीन टिप्पणी में राष्ट्रपति मुखर्जी ने जनता से संवाद कायम करने के मामले में मोदी को नेहरू और इंदिरा के बराबर बताया है. मुखर्जी की नजर में यही वो खासियत है जिससे मालूम होता है कि कोई नेता लाखों लोगों को बेहतरीन नेतृत्व दे सकता है.

narendra modi, pranab mukherjeeसवाल पूछना तो बनता है...

मोदी की तारीफ करते हुए राष्ट्रपति मुखर्जी ने कहा, "निस्संदेह मौजूदा दौर में प्रधानमंत्री अपनी बात बेहतरीन ढंग से कहने वालों में से एक हैं और संभवत: उनकी तुलना उल्लेखनीय प्रधानमंत्रियों जैसे पंडित जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से की जा सकती है - जो सरकार के संसदीय स्वरूप तथा खास तौर पर धर्म निरपेक्ष संवाद को स्वीकार करते हुए अपने सिद्धांतों और विचारों को बेहतरीन ढंग से रख पाते थे."

राष्ट्रपति मुखर्जी ने मोदी के कुछ फैसलों को युग प्रवर्तक भी बताया है, लेकिन उसके ऐन पहले राष्ट्रपति सत्ता पक्ष के हावी होने के खतरे की ओर भी इशारा कर चुके हैं.

खूब पूछो सवाल

जिस दिन राष्ट्रपति मुखर्जी ने इंदिरा गांधी को सर्वाधिक स्वीकार्य शासक बताया था उसी दिन उन्होंने उनकी नेतृत्व क्षमता का भी जम कर बखान किया. तब इसे कांग्रेस नेताओं खासकर राहुल गांधी के लिए नसीहत के तौर पर देखा गया.

इंदिरा गांधी के दौर को याद करते हुए राष्ट्रपति मुखर्जी ने कहा, "1977 में कांग्रेस हार गयी थी. मैं उस समय जूनियर मंत्री था. उन्होंने मुझसे कहा था कि प्रणब, हार से हतोत्साहित मत हो. ये काम करने का वक्त है और उन्होंने काम किया."

लगता है राष्ट्रपति मुखर्जी को प्रधानमंत्री मोदी में भी ये विशेषता नजर आयी है. 2014 का लोक सभा चुनाव जीतने के बाद मोदी ने महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की. जम्मू कश्मीर में भी बीजेपी ऐसी स्थिति में आई कि पीडीपी के साथ सरकार बनी.

लेकिन दिल्ली और बिहार की हार मोदी के लिए बहुत भारी पड़ रही थी. यहां तक कि जिन लोगों को मोदी ने मार्गदर्शक मंडल में बिठा दिया वे भी बीजेपी की हार की जिम्मेदारी तय करने को लेकर नसीहत देने लगे. उसके बाद मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने असम पर फोकस किया और जीत हासिल की. उसके बाद यूपी और उत्तराखंड जीत कर और गोवा और मणिपुर में राजनीति कर बीजेपी अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई.

इंदिरा गांधी की 1977 की हार और मोदी की दिल्ली और बिहार की हार के बाद लगातार जीत की तुलना तो बनती है. लेकिन लगातार ताकतवर होते जाना भी कितना भारी पड़ता है, इंदिरा गांधी इस बात की भी मिसाल हैं. देश में इमरजेंसी लागू होने के पीछे भी यही सबसे बड़ी वजह थी. शायद यही वजह है कि एक बार बीजेपी के सीनियर नेता लालकृष्ण आडवाणी भी देश में दोबारा इमरजेंसी लागू होने की आशंका जता चुके हैं.

रामनाथ गोयनका लेक्चर में राष्ट्रपति मुखर्जी ने कहा, "सत्ता में बैठे लोगों से सवाल पूछने की जरूरत राष्ट्र के संरक्षण और सही मायने में एक लोकतांत्रिक समाज का सारतत्व है. ये वो भूमिका है जिसे परंपरागत रूप से मीडिया निभाता रहा है और उसे आगे भी इसका निर्वाह करना चाहिए. कारोबारी नेताओं, नागरिकों, और संस्थानों सहित लोकतांत्रिक व्यवस्था के सभी हितधारकों को यह महसूस करना चाहिए कि सवाल पूछना अच्छा है, सवाल पूछना स्वास्थ्यप्रद है और दरअसल यह हमारे लोकतंत्र की सेहत का मूलतत्त्व है."

राष्ट्रपति ने इस बात पर चिंता भी जतायी कि कमजोर आवाजों को दबाने की भी कोशिश चल रही है जो ठीक नहीं है. राष्ट्रपति मुखर्जी ने कहा, "संवेदनशील होने की जरूरत है क्योंकि उनकी ऊंची आवाज के शोर में असहमति के स्वर दब रहे हैं."

राष्ट्रपति मुखर्जी देश के सबसे काबिल राष्ट्रपतियों में से एक हैं - और संसदीय कामकाज का उनके पास बेहतरीन अनुभव है. उनका सत्ता पक्ष से सवाल पूछते रहने पर जोर दिया जाना भी कहीं वैसी ही आशंकाओं की ओर संकेत तो नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी और इंदिरा गांधी अलग अलग पृष्ठभूमि से आये हैं और अलग विचारधारा की नुमाइंदगी भी करते हैं. नेतृत्व क्षमता और संवाद कायम करने की काबिलियत भी तारीफ के लायक है, लेकिन जिस सोच ने देश पर इमरजेंसी थोपी उसका दोहराया जाना बहुत ही खतरनाक होगा.

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