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Updated: 12 फरवरी, 2023 05:46 PM
अशोक भाटिया
अशोक भाटिया
 
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त्रिपुरा विधान सभा चुनाव की लड़ाई जैसे-जैसे आगे बढ़ रही है सियासी टक्कर भी उतनी तेज होती जा रही है. पिछले कुछ समय में यहां सियासी समीकरण तेजी से बदले हैं. टिपरा मोथा जो सिर्फ दो साल पहले ही पार्टी बनी थी, आज बीजेपी, कांग्रेस और सीपीआई (एम) जैसे राष्ट्रीय दलों के लिए सीधी चुनौती बनी हुई है. त्रिपुरा के पूर्ववर्ती माणिक्य राजवंश के वंशज के रूप में प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा की अपनी व्यक्तिगत अपील पर आदिवासियों के बड़े नेता के रूप में उभरे हैं. अगर त्रिपुरा में किसी पार्टी के बहुमत नहीं मिलता है तो देबबर्मा किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं.

बुबगरा के राजा प्रद्योत किशोर माणिक्य देबबर्मा को त्रिपुरा के गोमती जिले में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित एक विधानसभा क्षेत्र अम्पीनगर के एक मैदान में जनसभा कर रहे थे. इसी दौरान वह माइक पर श्शश… की बोलते हैं और हजारों की भीड़ में सन्नाटा छा जाता है. देबबर्मा की करीब हर रैली में चुप रहने को सोची समझी रणनीति के तहत देखा जा रहा है. आदिवासी समुदाय त्रिपुरा की आबादी का करीब 30 फीसदी है. राज्य की कुल 60 सीटों में से 20 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. त्रिपुरा में 2 साल पहले तक आठ से अधिक आदिवासी दल थे. प्रद्योत के प्रवेश ने लड़ाई को इनमें से दो तक सीमित कर दिया है. मोथा और इंडीजेनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) कई दलबदल और दलबदल के बावजूद टिका हुआ है. बता दें कि 2018 के चुनाव के बाद से दल-बदल, इस्तीफे और विधायकों की मृत्यु की एक श्रृंखला के बाद, 60 सीटों वाले सदन में अब भाजपा के 33 सदस्य हैं. इनमें आईपीएफटी के चार, सीपीआई (एम) के 13 और कांग्रेस के एक सदस्य हैं, बाकी सीटें खाली हैं.

प्रद्योत दो साल पहले कांग्रेस से अलग हुए थे. तब वह कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष थे लेकिन 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पर मतभेदों को लेकर प्रद्योत ने मोथा की स्थापना की. पार्टी ने ग्रेटर तिप्रालैंड की मांग को लेकर 2021 के आदिवासी परिषद चुनावों में जीत हासिल की. मोथा अब 42 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रहा है. प्रद्योत के ‘ग्रेटर तिप्रालैंड’ को पिछले दो साल में त्रिपुरा, मिजोरम, असम और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में रहने वाले आदिवासियों के लिए एक प्रस्तावित राज्य के रूप में पेश किया गया.

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इधर भाजपा सत्ता में वापसी के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 11 फरवरी से त्रिपुरा दौरे पर हैं. त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री दो चुनावी सभाओं को संबोधित करने वाले है. यह चुनावी सभा त्रिपुरा के गोमती और ढलाई में होगी. त्रिपुरा की 60 सदस्यीय विधानसभा के लिए 16 फरवरी को मतदान होना है. इसके पूर्व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ त्रिपुरा में दो-दो चुनावी रैलियों को संबोधित कर चुके हैं. आदित्यनाथ नॉर्थ त्रिपुरा जिले के बागबासा और खोवाई के कल्याणपुर में दो रैलियां हो चुकी है. केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता अमित शाह ने हाल ही में त्रिपुरा में दो रैलियां और एक रोड शो किया था. शाह ने त्रिपुरा जिले के सांतिर बाजार में एक जनसभा को संबोधित किया था. इस दौरान अमित शाह ने विपक्ष पर जमकर हमला बोला था. केंद्रीय गृहमंत्री के निशाने पर कांग्रेस और लेफ्ट के अलावा त्रिपुरा के शाही वंशज प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा के नेतृत्व वाली टिपरा मोथा पार्टी भी रही थी.

इसके आलावा भाजपा ने त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के लिए अपना संकल्प पत्र जारी करते हुए राज्य के कई आदिवासी क्षेत्रों को 'स्वायत्तता' देने का वादा किया है. इससे इन क्षेत्रों को अपना प्रशासन पूरी तरह अपने हाथ में मिल जाएगा और उसमें किसी बाहरी हस्तक्षेप की संभावना नहीं रहेगी. सूत्रों के अनुसार स्थानीय संस्कृति और जैव विविधता को बचाने के लिए किया गया यह वादा पूरे पूर्वोत्तर में अलगाववाद को बढ़ावा दे सकता है. नागालैंड और मिजोरम के कई विद्रोही गुट पहले ही अपने क्षेत्रों के लिए पूर्ण राज्य की मांग छोड़ते हुए स्वायत्तता की मांग पर आकर टिक गए थे. अब तक सरकार उन्हें इस तरह की अलग पहचान देने से बच रही थी, लेकिन भाजपा के इस वादे से इस पूरे क्षेत्र में इस तरह के स्वायत्त क्षेत्रों की मांग बढ़ सकती है. दरअसल, वर्ष 2018 के त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में भाजपा ने वामदलों के इस मजबूत गढ़ को अकेले दम पर ढहा दिया था. उसकी इस बड़ी सफलता में सबसे बड़ी भूमिका उन आदिवासी मतदाताओं की थी, जिन्होंने दिल खोलकर पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को समर्थन दिया था. राज्य की 60 विधानसभाओं में से आदिवासियों के लिए आरक्षित 20 सीटों में से 10 पर भाजपा को और आठ सीटों पर उसके सहयोगी दल आईपीएफटी को सफलता मिली थी.

लेकिन विधानसभा चुनाव में भाजपा का जबरदस्त समर्थन (54%) करने वाले आदिवासी मतदाताओं ने लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपेक्षाकृत कम वोट (37%) किया था. त्रिपुरा के नए राजनीतिक समीकरणों में आदिवासी मतदाताओं में और ज्यादा बिखराव हो सकता है. चूंकि इस बार त्रिपुरा के चुनावी मैदान में स्थानीय राजवंश अपने दम पर अपने भाग्य की आजमाइश कर रहा है, इन मतदाताओं में ज्यादा बिखराव होना तय माना जा रहा है. इसका सीधा नुकसान भाजपा को हो सकता है और पूर्वोत्तर पर अपनी पकड़ बनाए रखने का उसका सपना अधूरा रह सकता है.

चूंकि आदिवासी बहुल राज्य में उनके बड़ी संख्या में समर्थन के बिना सरकार बनाना संभव नहीं है, उन्हें साधने के लिए कई स्तर पर कोशिशें की जा रही हैं. आदिवासी मतदाताओं को 'द्रौपदी मुर्मू फैक्टर' से साधने की कोशिश भी की जा रही है और उन्हें बताया जा रहा है कि भाजपा ने मुर्मू को राष्ट्रपति पद पर बैठाकर आदिवासी संस्कृति-सभ्यता का सम्मान करने का काम किया है. लेकिन अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए भाजपा ने आदिवासियों के कोर एजेंडे को हवा दे दी है. उसने उन सभी क्षेत्रों में जनजातीय क्षेत्रों को स्वायत्तता देने की घोषणा कर दी है, जिनकी मांग वे लंबे समय से करते रहे हैं.लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि भाजपा का यह दांव दूसरे क्षेत्रों में राजनीतिक आग लगा सकता है. नागालैंड-मिजोरम के कई अलगाववादी गुट पहले अपने लिए अलग राज्य की मांग करते रहे थे. इस समय भी पूर्वोत्तर के कई अलगाववादी गुट केंद्र सरकार के साथ वार्ता कर अपने क्षेत्रों के लिए अलग राज्य या पूर्ण स्वायत्त क्षेत्र बनाने की मांग कर रहे हैं. भाजपा के त्रिपुरा में किए गए वादे से इस पूरे क्षेत्र में नया राजनीतिक तूफान खड़ा हो सकता है.

भाजपा मानती है  कि त्रिपुरा के लोगों को किया गया यह वादा पूरी तरह संवैधानिक और कानून के अनुरूप है. इस समय भी त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर के लगभग सभी राज्यों में इस तरह के स्वायत्त क्षेत्र काम कर रहे हैं. कुछ गुट अपने लिए अलग स्वायत्त क्षेत्र की मांग करते रहे हैं, जिनके विषय में तत्कालीन सरकारों ने अपने-अपने स्तर पर विचार किया है. उन्होंने कहा कि भाजपा देश के जनजातीय समूहों को उनकी मूल पहचान को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है और उनको किया गया यह वादा पूरी तरह से उसके अनुरूप है.त्रिपुरा में लगभग 19 जनजातीय समुदाय रहते हैं. इनमें भील, भूटिया, चायल, चकमा, गारो, मुंडा, ओरंग और रींग प्रमुख हैं. त्रिपुरी जनजाति अकेले पूरे त्रिपुरा की लगभग आधी आबादी का हिस्सा रखती है. राज्य की 60 सीटों में से 20 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं, जिन पर भारी आबादी के कारण केवल आदिवासी मतदाता ही हार-जीत का निर्णय करते हैं. इन सीटों पर भाजपा मुर्मू फैक्टर को जमकर उछाल रही है, जो इनमें उनकी जीत की राह खोल सकते हैं. स्वायत्तता का मुद्दा इस वोट बैंक को ज्यादा मजबूती देने के लिए किया गया है.

इस राज्य में भले ही सीपीएम और कांग्रेस गठबंधन कर चुनाव लड़ने के लिए तैयार है लेकिन ये दोनों ही अब तक एक दूसरे की धुर विरोधी रहे हैं. त्रिपुरा में साल 1967 से विधानसभा चुनाव हो रहा है. बीते 6 दशक के राजनीतिक इतिहास में सीपीएम और कांग्रेस उत्तर और दक्षिण ध्रुव की तरह रहे हैं.2018 तक इस राज्य में सत्ता पाने के लिए दोनों दलों में ही भिड़ंत होती रही थी. लेफ्ट और कांग्रेस एक-दूसरे की धुर विरोधी के तौर पर 53 साल राज कर चुके हैं. अब भाजपा ने हालात ऐसे बना दिए हैं कि दोनों को एक साथ चुनाव लड़ना पड़ रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव यानी साल 2018 से पहले सीपीएम 25 साल तक इस राज्य की सत्ता पर काबिज थी. साल 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में सीपीएम को 60 में से केवल 16 सीटें ही मिली पाई थी. 6 दशक की चुनावी राजनीति में इस राज्य में पूरे 35 साल सत्ता पर वाम दलों का कब्जा रहा है. ऐसे में सीपीएम पूरी कोशिश करेगी कि वो एक बार फिर राज्य की जनता का भरोसा जीत सके.  यहां पहली बार साल 1978 में सीपीएम की सरकार बनी थी. साल 1998 से माणिक सरकार का दौर शुरू हुआ. उनकी अगुवाई में मार्च 1998 से लेकर मार्च  2018 तक त्रिपुरा में वाम दलों का शासन रहा. ये आंकड़े साफ बताते है कि त्रिपुरा सीपीएम के लिए कितना महत्वपूर्ण है.

कांग्रेस के लिए तो त्रिपुरा में अस्तित्व की लड़ाई हैं. इस राज्य में कांग्रेस का सफाया हो गया था. पार्टी को अच्छे से एहसास है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में वो अकेले त्रिपुरा की सत्ता तक नहीं पहुंच सकती है. वहीं कांग्रेस पिछले चुनाव के नतीजों से भी खौफजदा है. इस बार वह सीपीएम के साथ गठबंधन कर अपने अस्तित्व के लिए हर जरूरी कोशिश कर रही हैं. इस बार टीएमसी भी मैदान में है. टीएमसी चीफ ममता बनर्जी भी हाल के दिनों में राज्य के दौरे पर पहुंची थी. उन्होंने राजधानी अगरतला की सड़कों पर रोड शो भी किया था. इस दौरान बड़ी संख्या में टीएमसी नेता और कार्यकर्ता भी उनके साथ राजधानी की सड़कों पर चले. अगरतला में ममता बनर्जी ने जनसभा को संबोधित भी किया.

जनसभा को संबोधित करते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि यहां सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन है, बंगाल में भाजपा, सीपीएम और कांग्रेस तीनों मिलकर हमारे खिलाफ बोलती हैं, उन्हें शर्म नहीं आती. सीपीएम की सरकार बंगाल में सालों थी लेकिन इन्होंने क्या किया? कांग्रेस चार साल साथ रहेगी लेकिन चुनाव से पहले पलटी मारेगी. साथ ही बता दें कि टीएमसी ने त्रिपुरा विधानसभा चुनाव के लिए अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया हैं. इस घोषणा पत्र में दो लाख नई नौकरियां सृजित करने, बेरोजगार युवाओं को हर महीने एक हजार रुपए का भत्ता देने का एलान किया है. टीएमसी ने कहा कि 'विकास के बंगाल मॉडल' के आधार पर यह घोषणा पत्र तैयार किया गया. अब यह तो 2 मार्च को ही मालूम पड़ेगा कि उंट किस करवट बैठता है.

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लेखक

अशोक भाटिया अशोक भाटिया

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक एवं टिप्पणीकार पत्रकारिता में वसई गौरव अवार्ड – 2023 से सम्मानित, वसई पूर्व - 401208 ( मुंबई ) फोन/ wats app 9221232130 E mail – vasairoad.yatrisangh@gmail।com

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