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Updated: 10 सितम्बर, 2016 12:16 PM
स्नेहांशु शेखर
स्नेहांशु शेखर
  @snehanshu.shekhar
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उत्तर प्रदेश की राजनीति में राम या अयोध्या का बहुत महत्व है. जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे जिक्र आ ही जाता है, याद आ ही जाती है. मसला आस्था से जुड़ा है लेकिन उत्तर प्रदेश के 'राम' आस्था से ज्यादा राजनीति के प्रतीक बने हुए हैं. यूं भी, 1992 के पहले और उसके बाद अयोध्या में राम मंदिर आस्था से ज्यादा राजनीतिक कारणों से ही चर्चा में रहा. अब राज्य में फिर से चुनावी माहौल है, यात्राएं चल रही हैं, रैलियां भी हो रहीं है, ऐसे में राम याद न आए, क्या ऐसा संभव है.

मत्था टेके जाएंगे, विध्वंस याद दिलाए जाएंगे, आस्थाओं को झकझोरा जाएगा, कौम को आवाज दी जाएगी. अब राहुल प्रदेश में किसान यात्रा कर रहे हैं और इसी क्रम में अयोध्या पहुंचे. बहस शुरू हो गई कि 1992 की घटना के बाद पहली बार कोई गांधी फैमिली से अयोध्या गया. अयोध्या गए तो रामलला के दर्शन के लिए क्यों नहीं गए, हनुमान गढ़ी ही दर्शन कर आगे क्यों बढ़ गए. रामलला याद क्यों नहीं आए.

अब समीक्षकों और आलोचकों को कौन समझाए, हर कदम रणनीति के तहत ही उठाया जाता है. पहले तो अयोध्या का भी कार्यक्रम नहीं था. सूत्रों की मानें तो प्रशांत किशोर की टीम ने खास मकसद से कार्यक्रम में थोड़ा बदलाव किया. अब चुनावी मौसम से थोड़ा बहुत यह करना पड़ता है. राहुल अयोध्या जाएंगे, केजरीवाल स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकेंगे, अमित शाह को पाटीदार याद आएंगे, सबकी अबकी मजबूरी होती है, समझना पड़ेगा.

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 रामलला (फाइल फोटो)

कुछ इसी तरह का प्रयोग 1989 में हुआ था, जब राजीव गांधी ने अयोध्या से ही लोकसभा चुनावों का बिगुल फूंका था और राम-राज्य लाने की वादा किया था. इससे पहले विवादित स्थल पर ताला खुलवा कर पूजा शुरू कराने की भी कवायद की गई, पर दांव काम न आया. इसके बाद से फिर कोई गांधी फैमिली का कोई सदस्य वहां नहीं गया. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की शुरू से मुश्किल यह रही है कि वह सॉफ्ट हिंदूत्व की रणनीति पर काम करती आई है. उसे अपनी सेक्युलर इमेज को भी बचाए रखना है औऱ वह भी उसी हद तक कि हिंदू, खासकर सवर्ण हिंदू, जिनमें ब्राह्मण तबका प्रमुख है, नाराज न हो.

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इस बार भी कांग्रेस इसी रणनीति पर काम कर रही है. शीला दीक्षित के रूप में एक ब्राह्मण चेहरा सामने लाया गया है, ब्राह्मण सम्मेलन कराए जा रहे हैं, देवरिया से यात्रा की शुरूआत से ही चुन-चुन कर मंदिरों में मत्था भी टेका जा रहा है और मौका देखकर पलट कर आरएसएस को भी जमकर कोसा जा रहा है. उत्तर प्रदेश की राजनीति को देखें तो राम मंदिर को याद करने के सबके अपने-अपने कारण हैं.

मुझे ध्यान हैं पिछले दिनों आजम खां गाजियाबाद में थे. हज मंजिल के नए भवन का उद्घाटन करना था।.वहां उन्हें राम मंदिर याद आ गया. अब क्या कहा, इस पर जरा ध्यान दीजिए, कहा कि बीजेपी से हमारी पुरानी लड़ाई है और रहेगी, लेकिन कम से कम इस बात के लिए हम तारीफ करेंगे कि बाबरी की घटना के बाद उन्होंने वहां मंदिर निर्माण की बात की. एक इबादत के स्थान पर दूसरी इबादत घर बनाने की बात की. जबकि बीएसपी के काशीराम जी थे, उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि बाबरी समस्या का हल अगर उनके जिम्मे हो, तब वहां लैट्रिन बनाना पसंद करेंगे.

मुस्लिम सभा थी और मुस्लिम वोट को लेकर प्रदेश में सपा को इकलौता खतरा बीएसपी से ही है, ऐसे में उनकी अपनी मजबूरी थी कि वो बाबरी की बात करें. इसी मजबूरी के तहत ही मुख्यमंत्री के विरोध के बावजूद नेताजी और उनके भाई लगे हैं कि किसी तरह मुख्तार अंसारी से भी समझौता हो जाए. थोड़ी किरकिरी होगी, सवाल उठेंगे, पर पार्टी को भरोसा है कि पूर्वांचल में मुस्लिम वोट पर इसका असर पड़ेगा.

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दूसरी तरफ, प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई समाजवादी पार्टी के नेताओं को पता है कि केवल यादव-मुस्लिम की बदौलत सत्ता में वापसी संभव नहीं हैय अगड़ों का भी थोड़ा बहुत वोट चाहिए. इसलिए लोगों को ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ जब पिछले दिनों मुलायम को अचानक 1990 का कारसेवकों पर गोली चलाने की घटना याद आई और उन्होंने कहा कि वह घटना काफी दर्द देने वाला था, पर स्थिति ऐसी थी कि उस वक्त कोई विकल्प भी नहीं था. 26 साल बाद दर्द पैदा हो, तो कारण समझना पड़ेगा.

यह कोई मलहम लगाने की सोच नहीं थी, पार्टी को सवर्णों का भी वोट चाहिए और पिछले दिनों कुछ अंदरूनी विरोध के वावजूद हाशिए पर बैठे अमर सिंह को वापस जोड़ा गया. बीजेपी के लिए राम मंदिर का मामला बहुत कुछ कॉपीराइट जैसा ही लगता है. पार्टी के सामने धर्मसंकट यह है कि मंदिर की चर्चा शुरू करे तो आरोप लगेगा कि धर्म की राजनीति में जुटी है, न बोले तो आरोप लगेगा कि नारा देकर रामलला को ही भूल गए. इसलिए पार्टी में दो कैटगरी के नेता है, एक धड़ा लगातार राम मंदिर की फूंक मारता रहता है, तो दूसरा तबका है जो सबका साथ-सबका विकास के नारे की अलख जगाए रखना चाहता है ताकि गैर यादव, ओबीसी तबका और पढ़े-लिखे तबके को मजबूती से पार्टी से जोड़े रखा जाए.

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लिहाजा देखेंगे कि योगी आदित्यनाथ, रामशंकर कठेरिया, विनय कटियार, साक्षी महाराज जैसे नेताओं को गाहे-बेगाहे रामलला की याद आती रहती है, तो दूसरी तरफ विकास के नाम पर अयोध्या से चित्रकूट और अयोध्या से जनकपुर तक के रामायण सर्किट को शुरू करने की महात्वाकांक्षी सड़क योजना शुरू करने पर भी काम चल रहा है. अब राम के नाम पर इतने बड़े आंदोलन का नेतृत्व करने के बाद और मंदिर के नाम पर उत्तर प्रदेश में पहली सत्ता गंवाने के बाद बीजेपी के लिए रामलला को भूलना इतना आसान भी नहीं है. अगर भूलने की कोशिश भी करे, तो विपक्ष है उसे बार-बार याद दिलाने को.

लेखक

स्नेहांशु शेखर स्नेहांशु शेखर @snehanshu.shekhar

लेखक आजतक चैनल के एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं.

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