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Updated: 23 फरवरी, 2023 01:29 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) और तेजस्वी यादव अपने अपने बुद्धि चातुर्य, राजनीतिक कौशल और अनुभव के हिसाब से एक दूसरे को शिकस्त देने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. तेजस्वी यादव के पास नीतीश कुमार जैसा अनुभव तो है नहीं, लिहाजा अपने पिता लालू यादव के अनुभव का हर संभव फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं.

वैसे अभी तक तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) ने अपनी तरफ से या अपनी बदौलत कुछ खास प्राप्त तो किया नहीं है, जो भी हासिल है वो लालू यादव के बेटे होने के चलते ही है. लेकिन ये तो कहा ही जा सकता है कि आरजेडी की विरासत को वो अपने आगे पीछे के समकालीन नेताओं राहुल गांधी और अखिलेश यादव से बेहतर ढंग से संभाले हुए हैं - और उसके आगे अपने और अपनी पार्टी के उज्ज्वल भविष्य की तरफ मजबूत इशारे भी कर रहे हैं.

राहुल गांधी और अखिलेश यादव की ही तरह तेजस्वी यादव को भी एक ऐसे मजबूत नेता से मुकाबला करना पड़ा रहा है. तेजस्वी यादव के सामने नीतीश कुमार भी करीब करीब वैसे ही खड़े हो गये हैं जैसे राहुल गांधी के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अखिलेश यादव के सामने योगी आदित्यनाथ - नीतीश कुमार की स्थिति मोदी और योगी के मुकाबले बिलकुल भी अच्छी नहीं हैं, बल्कि गाड़ी पूरी तरह जुगाड़ पर ही चल रही है.

ऐसा लगता है जैसे पहली बार नीतीश कुमार का किसी मजबूत नेता से पाला पड़ा है. एक वजह ये भी है कि तेजस्वी यादव अपने राजनीतिक करियर के शुरुआती पड़ाव पर हैं, जबकि नीतीश कुमार आखिरी छोर पर पहुंच चुके हैं.

और ये भी विडंबना ही है कि अपने ट्रैक रिकॉर्ड की वजह से नीतीश कुमार करीब करीब सारे ही ऑप्शन खत्म भी कर चुके हैं. अब तक वो आरजेडी और बीजेपी में से किसी एक को पकड़ कर काम चलाते रहे हैं, लेकिन दोनों के साथ उनका दो-दो बार साथ रहने का कोटा पूरा हो गया भी लगता है.

ये भी वक्त का ही तकाजा है कि नीतीश कुमार की राजनीति भी अब उसी मोड़ के करीब पहुंच चुकी है, जहां कभी समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव (George and Sharad Yadav) उनके कृपापात्र बन कर रह गये थे - और नीतीश कुमार ने मौके का भरपूर फायदा उठा लिया था.

और ये भी वक्त की ही डिमांड है कि नीतीश कुमार एक तरीके से तेजस्वी यादव के कृपा पात्र बन चुके लगते हैं. इसकी पहली झलक तो तेजस्वी यादव के जन्मदिन पर ही देखी गयी थी जब वो सामने बैठे लोगों से उठ कर ताली बजाते हुए बधाई देने को कहने लगे थे - और उस दिन तो पक्का ही कर दिया था, जिस दिन ये घोषणा कर दी कि 2025 में महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ही होंगे.

नीतीश कुमार ने मन ही मन जो भी रणनीति तैयार कर रखी हो, लेकिन ऊपर से तो साफ तौर पर यही लगता है कि अब लालू परिवार के सामने हथियार डाल देने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा है - क्योंकि बीजेपी तो अब नीतीश कुमार को भाव देने से रही. जब नाइटवॉचमैन के रूप में बीजेपी के पास चिराग पासवान जैसा चमकता सितारा है, तो मार्गदर्शक मंडल कैटेगरी के भरोसे रहने की जरूरत भी क्या है?

लेकिन ऐसा क्यों लगता है, जैसे नीतीश कुमार ने समता पार्टी पर दांव खेल कर जेडीयू पर कब्जा कर लिया, आरजेडी पर भी अब उनकी वैसी ही नजर है, लेकिन ऐन उसी वक्त वो ये भूल जा रहे हैं कि उनका पाला लालू यादव से पड़ा है, जो नीतीश कुमार के हर खेल को बेहद करीब से देखते आये हैं और अच्छी तरह समझते हैं - लालू यादव ने जो खाका खींचा है, तेजस्वी यादव को तो बस उसी लाइन पर धीरे धीरे एक एक कदम रखते जाने की जरूरत हैं.

जॉर्ज और शरद यादव के साथ क्या हुआ था

अपने दौर के बड़े समाजवादी इंफ्लुएंसर जॉर्ज फर्नांडिस की उंगली पकड़ कर ही नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में पहुंचे थे, लेकिन बिहार का मुख्यमंत्री बन जाने के बाद मुजफ्फरपुर से उनका टिकट भी काट दिया था, जिसे न तो वो ताउम्र भूले होंगे और न ही दोनों के करीब से जानने वाले ही.

Nitish Kumar, tejashwi yadavनीतीश कुमार चौतरफा घिर चुके हैं, अगर निकल कर आगे बढ़ने का कोई रास्ता है तो वो सिर्फ उनके दिमाग में ही हो सकता है.

कालांतर में शरद यादव के साथ भी नीतीश कुमार बिलकुल वैसे ही पेश आये. बल्कि जॉर्ज फर्नांडिस को किनारे लगाने के लिए भी शरद यादव का इस्तेमाल कर लिया था. जॉर्ज और शरद के अलावा दो और भी नाम दिग्विजय सिंह और आरसीपी सिंह के लिये जा सकते हैं.

लेकिन थोड़ा फर्क भी है. नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को नहीं बल्कि आरसीपी सिंह ने अपने नेता के ट्रैक रिकॉर्ड से सबक लेते हुए नीतीश कुमार को ही धोखा दे दिया - और अब तो बीजेपी को अपना कंधा भी दे दिया है ताकि वो नीतीश कुमार को जितना डैमेज कर सके कर ले.

1994 में जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिल कर नीतीश कुमार ने पहले समता पार्टी बनायी थी, लेकिन 2003 आते आते समता पार्टी टूट गयी. अपने हिस्से के साथ नीतीश कुमार ने समता पार्टी का जेडीयू में विलय करा दिया. तब तो जॉर्ज फर्नांडिस ही जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने लेकिन कुछ दिन बाद ही नीतीश कुमार ने खेल कर ही दिया - और शरद यादव को कमान मिल गयी. शरद यादव को नीतीश कुमार ने जेडीयू का अध्यक्ष बनवाया ही इसलिए ताकि जॉर्ज के पर कतरे जा सकें.

जॉर्ज फर्नांडिस के लिए ये पहला बड़ा झटका था. अगर कोई महसूस करना चाहे तो जॉर्ज की पीड़ा को आगे चल कर लालकृष्ण आडवाणी को हुई पीड़ा से जोड़ कर भी महसूस कर सकता है. उसी साल जब जॉर्ज फर्नांडिस ने अपनी करीबी जया जेटली को राज्य सभा भेजने की सलाह दी, तो नीतीश कुमार ने इनकार ही कर दिया.

2009 आते आते तो नीतीश कुमार ने मुजफ्फरपुर से जॉर्ज फर्नांडिस का टिकट ही काट दिया. लेकिन वो निर्दलीय चुनाव लड़े और हार भी गये - हालांकि, बाद में नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस को राज्य सभा भेज दिया था.

फिर शरद यादव को हटा कर नीतीश कुमार खुद जेडीयू के अध्यक्ष बन गये. शरद यादव ने अपनी तरफ से काफी कोशिशें की, लेकिन तब तक उनकी भी ताकत काफी कम हो चुकी थी. बाद में शरद यादव ने पार्टी भी बनायी - और फिर कोई रास्ता नहीं सूझा तो लालू यादव की आरजेडी में विलय कर दिया.

काफी दिनों से जेडीयू के भी आरजेडी में विलय की जोरदार चर्चा रही है, लेकिन हाल ही में नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से साफ करने की कोशिश की थी कि ऐसी कोई बात नहीं चल रही है. दोनों दलों का अपना अलग अलग अस्तित्व है और ये बना रहेगा - लेकिन अंदर ही अंदर जो खेल चल रहा है, उसमें नीतीश कुमार की बात पर पक्का यकीन करना मुश्किल होता है.

तेजस्वी क्या खेल कर रहे हैं

ये तो हर कोई समझ रहा है कि नीतीश कुमार ने भारी मजबूरी में ही तेजस्वी यादव को भविष्य के लिए महागठबंधन का नेता घोषित किया है. बावजूद ये सब करने के नीतीश कुमार की बातों पर लालू यादव के परिवार को भरोसा नहीं हो रहा है - क्योंकि अब तो वो छाछ से भी दूध की तरह ही डरते हैं. बार बार धोखा खाने के बाद हर किसी की हालत ऐसी ही हो जाती है. और जो हाल लालू परिवार का है बीजेपी नेतृत्व की स्थिति भी अलग नहीं होगी, ऐसा मान कर चलना चाहिये.

पटना के सियासी गलियारों में कुछ दिनों से एक चर्चा ये भी चल रही है कि तेजस्वी यादव ने नीतीश कुमार को अंधेरे में रख, आरजेडी को बहुमत के काफी करीब पहुंचा दिया है. हो सकता है, कुढ़नी उपचुनाव में हार के बाद गुस्सा और भी बढ़ा हो. वैसे कुढ़नी तो चुनाव प्रचार के लिए नीतीश गये भी थे, लेकिन गोपालगंज और मोकामा से तो मेडिकल ग्राउंड छुट्टी ही ले ली थी.

विधानसभा में नंबर की बात करें तो कुढ़नी विधानसभा सीट जीत लेने के बाद आरजेडी और बीजेपी दोनों ही के पास अब 78-78 विधानसभा सीटें हो गयी हैं. नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के पास कुल 45 विधायक हैं - और फिलहाल नीतीश कुमार सात दलों के महागठबंधन के नेता के रूप में मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

बिहार विधानसभा में कांग्रेस के 19 विधायक हैं, जबकि तीन वाम दलों की सीटें जोड़ दें तो 16 विधायक हो जाते हैं. जीतनराम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा के चार विधायक हैं. जीतनराम मांझी चुनाव भी नीतीश कुमार के कोटे से ही लड़े थे और अभी तक उनके साथ बने हुए हैं, लेकिन सत्ता उनको ज्यादा प्रभावित करती है - ऐसे में अगर उनको तेजस्वी यादव में कोई संभावना दिखी तो वो उनके साथ बड़े आराम से जा सकते हैं. जाते जाते नीतीश कुमार को खरी खोटी सुनाने में भी उनको कोई खास परहेज नहीं होगा.

एक विधायक असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM का भी अभी है, और एक निर्दलीय - विशेष परिस्थितियों में देखना होगा कि ये किधर का रुख करते हैं, लेकिन दोनों में से एक तो मौका विशेष देख कर तेजस्वी यादव का साथ दे ही सकता है.

ऐसे हिसाब करके देखें तो तेजस्वी यादव के पक्ष में 119 विधायक माने जा सकते हैं. कहने का मतलब ये है कि अब भी 122 के बहुमत का आंकड़ा हासिल करने के लिए तीन विधायकों के सपोर्ट की जरूरत पड़ सकती है.

मुश्किल ये है कि अब भी बीजेपी और जेडीयू मिल कर बहुमत में हैं यानी दोनों को मिलाकर 123 विधायक होते हैं. अगर फिर से कोई खेल होता है तो बीजेपी तो नीतीश कुमार को लेने से रही, फिर तो तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री तभी बन पाएंगे जब वो जेडीयू को तोड़ पायें.

अंदर से अलग खेल चल रहा है और बाहर से बिहार आरजेडी अध्यक्ष जगदानंद सिंह लगातार दबाव बनाये हुए हैं. बहाने से मौका निकाल कर नीतीश कुमार से कह रहे हैं - अब तो बड़े बन जाइये.

मतलब, अगर प्रधानमंत्री बनने का सपना अगर है तो मुख्यमंत्री की कुर्सी तेजस्वी के हवाले कीजिये और पटना से दिल्ली की फ्लाइट पकड़ लीजिए, वे लोग बिहार को संभाल लेंगे. जगदानंद सिंह बार बार नीतीश कुमार को यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं कांग्रेस ही नहीं, महागठबंधन में भी 'एक व्यक्ति, एक पद' वाला ही सिद्धांत लागू रहेगा. कहने का मतलब ये कि नीतीश कुमार अगर चाहते हैं कि मुख्यमंत्री भी बने रहें और प्रधानमंत्री बनने की कोशिश करते रहें तो ये बाजा नहीं बजेगा.

जैसे किसी जमाने में रघुवंश प्रसाद सिंह को लालू यादव का जबान समझा जाता रहा, आज की तारीख में जगदानंद सिंह भी उसी रोल में देखे जा सकते हैं. हाल फिलहाल वो जो भी कह रहे हैं, बिलकुल वही जो लालू यादव चाहते हैं.

जेडीयू के साथ क्या करने वाले हैं

नीतीश कुमार भले ही सामने से इनकार करें, लेकिन लक्षण तो यही बता रहे हैं कि वो जेडीयू के लिए भी समता पार्टी जैसा ही एक्शन प्लान बना चुके हैं, लेकिन ये न भूलें कि आरजेडी के साथ भी वही कहानी दोहरा पाएंगे.

कहानी ये है कि नीतीश कुमार ने जैसे पहले समता पार्टी का जेडीयू में विलय कर दिया और फिर धीरे धीरे पूरी तरह काबिज हो गये, आरजेडी को लेकर भी वैसा ही कुछ उनके दिमाग में चल रहा होगा, लेकिन नीतीश कुमार के हर घात प्रतिघात से वाकिफ लालू यादव ने पहले से ही ऐसा इंतजाम कर रखा है जैसे कोविड के खिलाफ कोविशील्ड काम करती है.

राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में आरजेडी के संविधान में एक संशोधन किया गया और ध्यान देने वाली बात ये है कि उसे बाकायदा प्रचारित भी किया गया. अमूमन ऐसे मामलों को तभी सार्वजनिक किया जाता है जब जाहिर करना निहायत ही जरूरी हो. पहले ही ढिंढोरा तो नहीं पीटा जाता कि हर कोई जान ही ले.

लेकिन लालू यादव ने जानबूझ कर ऐसा ही किया. आरजेडी के राष्ट्रीय महासचिव भोला यादव ने बाकायदा मंच पर इस बाबत एक प्रस्ताव भी पढ़ा था. प्रस्ताव के मुताबिक, भविष्य में राष्ट्रीय जनता दल के नाम और चुनाव निशान में किसी भी बदलव का अधिकार सिर्फ लालू यादव और तेजस्वी यादव के पास ही होगा.

यहां समझने वाली बात ये है कि सिर्फ दो नेताओं के अधिकृत किया गया है, न कि आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष या किसी और पदाधिकारी को. मतलब, अगर नीतीश कुमार जेडीयू का विलय कर जैसे तैसे आरजेडी पर काबिज भी हो जायें तो आगे बढ़ने के लिए उनको फिर से संविधान संशोधन करना ही पड़ेगा - और न नौ मन तेल होगा, न...

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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