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Updated: 16 मार्च, 2017 09:44 PM
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वाराणसी से हंडिया हाइवे प्रोजेक्ट को कुछ लोग यूपी जीत का शुकराना मान रहे हैं. सुना है एक किलोमीटर हाइवे बनने के दौरान चार हजार लोगों को काम मिलेगा - और इसी तरह पूरे हाइवे बनने तक तीन लाख लोगों को कम से कम एक दिन का रोजगार जरूर मिलेगा. ये सब तब जबकि सूबे के लोगों को नहीं मालूम कि मुख्यमंत्री कौन बनने जा रहा है? लगे हाथ कुछ लोग सोशल मीडिया पर अपनी अपनी पसंद के नेताओं के मंत्री बनने पर राय जानने से लेकर कैंपेन तक चला रहे हैं.

फालतू बात!

पंजाब में अमरिंदर सिंह के बाकायदा कैप्टन बनने से भी पहले मनोहर पर्रिकर और बीरेन सिंह ने जल्दी जल्दी शपथ ले ली - जल्दबाजी भी ऐसी कि नितिन गडकरी को टोकना पड़ा वरना पर्रिकर तो लगा मंत्री पद से ही काम चलाने को तैयार थे.

यूपी सीएम को लेकर तो लगातार अटकलें भी चल रही हैं, उत्तराखंड के मामले में तो ऐसा लग रहा है अब मिशन तो पूरा ही हो गया - 'कोऊ नृप हो हमे का हानि?'

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के सवाल पर राजनाथ सिंह तो भड़क ही उठते हैं, खासकर तब जब वो सुनते हैं कि मार्केट में तो उनका नाम सबसे ऊपर चल रहा है.

सुनते ही राजनाथ सिंह कहते हैं - 'फालतू बात!'

modi-shah_650_031617031934.jpgसेम टू यू...

चुनावों से बहुत पहले तो रेस में स्मृति ईरानी ही आगे चल रही थीं, लेकिन जैसे जैसे वक्त बीता वरुण गांधी जैसे कई नाम कब गुमनाम हो गये पता ही नहीं चला.

कहने को तो अब भी योगी आदित्यनाथ, मनोज सिन्हा, संतोष गंगवार, दिनेश शर्मा और केशव मौर्या जैसे घोड़े रेस में एक दूसरे को पछाड़ने को बेताब हैं, लेकिन दर्शक दीर्घा से काला घोड़ा अभी तक शायद ही किसी को नजर आया हो.

जहां तक यूपी में जीत की खुशी की बात है, वो तो सबके चेहरे पर है, मगर मौर्या की मुस्कुराहट कुछ ज्यादा ही खिलखिलाती दिख रही थी. क्या उन्हें कोई खास संकेत मिले थे या बस उम्मीदें जिन्हें कायम रखना ही सियासी जिंदगी का दूसरा नाम है.

इस बीच मौर्या की तबीयत बिगड़ने की भी खबर आई है. सीने में दर्द की शिकायत के बाद उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा. अचानक उनकी तबीयत बिगड़ने पर कई तरह की चर्चाएं शुरू हो गयी हैं.

वैसे जीत में मौर्या की भूमिका के मूल्यांकन की बात हो तो मेहनत उन्होंने चाहे जितनी भी की हो - जीत तो मोदी की बदौलत मिली और उसके बाद का क्रेडिट अमित शाह को मिलेगा, बाकी तो बस लोकल इवेंट कोआर्डिनेटर भर माने जाएंगे.

कौन नहीं बनेगा मुख्यमंत्री

सवाल ये नहीं है कि यूपी को कैसा सीएम चाहिये? बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी को यूपी के लिए कैसा सीएम चाहिये?

इस हिसाब से देखें तो यूपी को ऐसा सीएम चाहिये जो 2019 तक बीजेपी का मौजूदा तेवर बरकरार रख सके. चाहे इसके लिए उसे कसाब की कोई नई परिभाषा ही क्यों न गढ़नी पड़े. येन केन प्रकारेण वो लोगों में इस धारणा को एक दिन के लिए भी कम न होने दे कि मोदी जैसा कोई नहीं - वो भी अगले दो साल तक.

अगर मुख्यमंत्री पद के लिए जातीय समीकरणों की बात है, तो अब ये बात बहुत मायने नहीं रखती. बहुमत सबकी बोलती बंद कर देता है. वैसे भी, जो भी सीएम होगा वो भी पीएमओ से ही डायरेक्ट होगा, आसानी से समझा जा सकता है, जैसे केंद्र के सारे मंत्री काम करते हैं. विपक्षी दल तो ऐसा ही आरोप लगाते हैं - और जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के ट्वीट में भी तो दूसरी छोर का संकेत यही है.

वैसे जो नाम रेस में बताये जाते हैं उनमें एक मिसिंग है - सुनील बंसल. ये बंसल ही हैं जिन्होंने जीत का सारा ताना-बाना बुना. कम ही ऐसे विधायक होंगे जिनके नाम पर बंसल की मुहर न लगी हो. आखिर घर बार छोड़ कर इसी दिन के लिए तो वो तीन साल से दिन रात एक किये हुए थे. अगर कोई ब्रेक लेते भी थे तो बस सब टीवी का एक शो देखने के लिए - तारक मेहता का उल्टा चश्मा. ये शो उन्हें इतना पसंद है कि साढ़े आठ बजे वक्त नहीं मिल पाता तो 11 बजे जरूर देखते चाहे कितने भी थकें हों या सुबह सुबह कहीं निकलना ही क्यों न हो.

अब इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि वो राजस्थान से आते हैं. जब गंगा मैया ने मोदी को बुला लिया और यूपी ने गोद लेकर सगे से भी ज्यादा दुलार लुटाया तो बंसल क्यों गैर माने जाएंगे. बस एक बार आम राय से नाम फाइनल हो जाये.

वैसे कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे मीडिया और सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहे नामों में से कोई भी मुख्यमंत्री नहीं बनने वाला. मोदी और शाह की जोड़ी ऐसे मामलों में हमेशा सरप्राइज ही देती रही है.

फेसबुक पर वरिष्ठ पत्रकार संजय श्रीवास्तव की एक पोस्ट इस मामले में बहुत माकूल लगती है. श्रीवास्तव लिखते हैं, "मुख्यमंत्री का चेहरा सामने आने से पहले यह तकरीबन तयशुदा लगता है कि कौन मुख्यमंत्री नहीं होगा. फिलहाल कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री नही बनाने वाला. देवबंद तक में भाजपा की जीत बताती है कि मुसलमानों ने भी भाजपा को वोट दिया. सूबे में मुस्लिम आबादी 19 प्रतिशत से ज्यादा है, पर इस बार की विधान सभा में उनकी हिस्सेदारी महज छह फीसदी होगी. मुख्यमंत्री बनने की योग्यता सिर्फ राजनीतिक होगी, जो इस सफलता को 2019 तह खींच सके - सामाजिक, आर्थिक नहीं."

जैसे मणिपुर, वैसे उत्तराखंड

बीरेन सिंह को बीजेपी ज्वाइन किये हुए महज पांच महीने हुए थे और वो मणिपुर के मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं. ठीक उसी तरह उत्तराखंड में विजय बहुगुणा भी है, लेकिन अटकलों में सतपाल महाराज कई बार उन्हें पीछे छोड़ दे रहे हैं, जबकि दोनों का एक ही बैकग्राउंड है - कांग्रेस. वैसे बहुगुणा की भूमिका काफी कुछ हिमंत बिस्वा सरमा जैसी रही. असम में रहते हुए उन्होंने मणिपुर में भी वैसे ही सारे सियासी इंतजाम कर लिये जैसे अरुणाचल में किये. वैसे भी वो नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलाएंस के संयोजक जो हैं.

पूरे पांच साल तक (आखिरी महीनों को छोड़ कर) यूपी में विपक्ष साढ़े चार मुख्यमंत्री की सरकार बताता रहा. ये बात अलग है कि विपक्ष इस बार सिमटा ही नहीं सिकुड़ भी चुका है लेकिन वो भी किसी जुमले की फिराक में तो होगा ही. ये तो तय है कि मुख्यमंत्री जो भी बने मोदी और शाह का ही हर बात में दबदबा होगा और जिस किसी को भी औपचारिक जिम्मेदारी सौंपी जाएगी - उसकी भूमिका आधे से ज्यादा शायद ही हो.

...और अमित शाह

पूर्ण मुख्यमंत्री की बात तो तभी समझी जाएगी जब ये जिम्मेदारी खुद अमित शाह उठाने के लिए आगे किये जाएं या खुद आएं. अगर मोदी के पैमानों पर तौलें तो सबसे परफेक्ट तो अमित शाह ही नजर आते हैं - लेकिन मालूम नहीं क्यों उनके बारे में कोई चर्चा ही नहीं हो रही. आखिर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा का नाम नहीं सुझाया था क्या? शीला दीक्षित तो तीसरी पसंद थीं. हौले से आईं और चुपके से निकल गईं.

वैसे भी जब प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात छोड़ा तो क्या शाह के मन में ये बात एक बार भी नहीं आई होगी कि आनंदी बेन की जगह कुर्सी पर वो भी तो बैठ सकते थे? लेकिन मोदी ने ऐसा नहीं किया. गुजरात में शाह की मनमानी तभी चल पायी जब पाटीदार आंदोलन और ऊना में दलितों की पिटाई के बाद मचे आक्रोश के चलते आनंदी बेन हटने को मजबूर हुईं. फिर शाह ने अपने पसंदीदा विजय रुपाणी को कुर्सी पर बिठाया. कुछ लोग तो उन्हें शाह के पनीरसेल्वम के तौर पर भी देखते हैं. क्या यूपी में भी ऐसी ही तैयारी है या शाह भी यूपी सीएम पद को राजनाथ की तरह फालतू बात ही मानते हैं?

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