पुत्रमोह में पड़े उद्धव शिवसेना का वजूद खोने को तैयार!
भाजपा ने महाराष्ट्र में अधिक सीटों पर चुनाव लड़कर साबित कर दिया है कि शिवसेना (Shivsena) की धमक पहले जैसी नहीं रही. अब अगर शिवसेना पुत्रमोह में पड़ कर अपनी विचारधारा के खिलाफ कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन (NCP-Congress alliance) के साथ सरकार बनाती है तो अपना वजूद भी खो देगी.
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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव (Maharashtra Assembly Election 2019) में भाजपा-शिवसेना के गठबंधन (BJP-Shivsena alliance) ने कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन (NCP-Congress alliance) को हरा तो दिया, लेकिन अब तक सरकार नहीं बन सकी है. वहीं दूसरी ओर, हरियाणा (Haryana Assembly Election 2019) में कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिली थी, लेकिन वहां मनोहर लाल खट्टर भाजपा की सरकार बनाते हुए शपथ भी ले चुके हैं. दरअसल, महाराष्ट्र में सारा मामला फंसा हुआ है मुख्यमंत्री के पद को लेकर. भाजपा इस बात को लेकर अड़ी है कि पूरे 5 साल उनका ही उम्मीदवार यानी फडणवीस मुख्यमंत्री होंगे, जबकि शिवसेना 50-50 फॉर्मूले (50-50 Formula) को अमल में लाने की जिद कर रही है. यानी ढाई साल फडणवीस मुख्यमंत्री रहें और बाकी के ढाई साल आदित्य ठाकरे (Aditya Thackeray) सीएम की कुर्सी पर बैठें. हालांकि, इस 50-50 फॉर्मूले के चक्कर में भाजपा पहले दो बार धोखा खा चुकी है, इसलिए अब इस फॉर्मूले पर भरोसा नहीं कर पा रही है. वहीं दूसरी ओर शिवसेना अपनी जिद पर अड़ी है. बाल ठाकरे के बाद शिवसेना (Shivsena) की धमक तो पहले ही कम हो चुकी है अब ऐसा लग रहा है कि पुत्रमोह में पड़ कर उद्धव ठाकरे शिवसेना का वजूद तक खोने को तैयार हैं. आपको बता दें कि भाजपा के पास सब मिलाकर करीब 115 विधायक हैं, शिवसेना के पास ये संख्या 63 है, कांग्रेस के पास 44 विधायक हैं और एनसीपी के पास 54 विधायक हैं.
अगर शिवसेना पुत्रमोह में पड़ कर कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन के साथ सरकार बनाती है तो अपना वजूद भी खो देगी.
हिंदूवादी शिवसेना कैसे हाथ मिलाएगी सेकुलर कांग्रेस-एनसीपी से?
शिवसेना (Shivsena) और भाजपा में हमेशा ही खटपट होती रहती है. पिछले पूरे कार्यकाल में सत्ता में सहयोगी होने के बावजूद शिवसेना भाजपा पर हमलावर ही रही. बावजूद इसके इस बार शिवसेना और भाजपा ने गठबंधन में चुनाव लड़ा. इसकी मुख्य वजह है विचारधारा. भाजपा और शिवसेना दोनों ही हिंदूवादी छवि के साथ राजनीति करते हैं. अब अगर शिवसेना कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन के साथ चली जाती है तो ये फैसला शिवसेना की विचारधारा के खिलाफ होगी, जिसकी वजह से उसकी छवि को नुकसान पहुंचना तय है. अगर इस बार 5 साल के लिए शिवसेना ने ऐसा कर के सरकार बना ली और आदित्य ठाकरे को सीएम की कुर्सी पर बैठा भी दिया तो अगले विधानसभा चुनाव में इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. ऊपर से इन सबका फायदा सिर्फ भाजपा को मिलने की संभावना अधिक है.
सिर्फ डरा रही है शिवसेना या गंभीर है?
बात शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की हो या फिर प्रवक्ता संजय राउत की, दोनों ही ये साफ कर चुके हैं कि शिवसेना (Shivsena) का मुख्यमंत्री नहीं बना तो भाजपा के साथ सरकार नहीं बनाएंगे. इसी क्रम में संजय राउत ने शरद पवार के मुंबई स्थित आवास पर जाकर उनसे मुलाकात भी की है. इसके बाद उन्होंने भाजपा को चेतावनी देते हुए एक ट्वीट भी किया है, जिसमें लिखा है- 'साहिब, मत पालिए अहंकार को इतना, वक्त के सागर में कई सिकंदर डूब गए.' साथ ही वह कह चुके हैं कि शिवसेना अपने दम पर भी महाराष्ट्र में सरकार बना सकती है. अब इस बात की चर्चा और तेज हो गई है कि कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर भी शिवसेना सरकार बनाने के विकल्प के लिए तैयार है. ये देखना दिलचस्प होगा कि अपनी छवि को तार-तार कर के शिवसेना सरकार बनाने के लिए ऐसा कदम उठा सकती है या फिर ये सब सिर्फ भाजपा को डराते हुए उस पर दबाव बनाने और अपने 50-50 फॉर्मूले पर राजी करने के लिए किया जा रहा है.
संजय राउत ने शरद पवार से मुलाकात के बाद भाजपा को चेताने वाले अंदाज में ट्वीट किया है.
पुत्रमोह की राजनीति सब तबाह कर देती है !
इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि एक बाप अपने बेटे को तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए देखना चाहता है. जितना हो सकता है, उतनी मदद भी करता है, लेकिन राजनीति में पुत्रमोह ने सब तबाह ही किया है. शिवसेना (Shivsena) का भविष्य क्या होगा ये तो आने वाला कल बताएगा, लेकिन कई पार्टियों में पुत्रमोह की वजह से काफी कुछ बर्बाद हुआ है. एक नजर इतिहास पर डालते हुए बताते हैं कैसे पुत्रमोह की राजनीति पार्टियों को ले डूबी.
शुरुआत कांग्रेस से
पुत्रमोह का मतलब ये नहीं समझा जाना चाहिए कि अपने बेटे को राजनीति की बागडोर दे दी, बल्कि इसका मतलब ये है कि अपने बेटे के अलावा और किसी को राजनीति की बागडोर नहीं दी जा रही है. कांग्रेस में हमेशा से पार्टी का मालिकाना हक गांधी परिवार के पास ही रहा है, लेकिन अब राहुल गांधी इस जिम्मेदारी को अच्छे से निभा नहीं पा रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके उनकी जगह किसी और को सामने लाने पर विचार कर नहीं हो रहा है. यहां तक कि कांग्रेस पद से इस्तीफा दिए जाने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष भी अब तक कोई नहीं मिल सका, उल्टा सोनिया गांधी खुद ही अंतरिम अध्यक्ष बन बैठीं. महज 5-6 साल पहले तक कांग्रेस देश की सबसे बड़ी पार्टी थी और आज के समय में हालात ऐसे हो गए हैं कि वह धीरे-धीरे सिमटती जा रही है. यानी पार्टी को लगातार नुकसान तो हो रहा है, लेकिन फिर भी सब राहुल गांधी को ही पार्टी का आलाकमान बनाने पर तुले हैं, जबकि खुद राहुल गांधी की रुचि राजनीति में नहीं दिखती.
कर्नाटक तो सबने देखा ही है
अगर बात कर्नाटक की राजनीति की करें तो सभी जानते हैं कि जेडीएस प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा अपने बेटे कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने के चक्कर में पार्टी को तबाह कर रहे हैं. पहले कुमारस्वामी ने 2004 में कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी. करीब दो साल बाद गठबंधन तोड़ा और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई और आधे-आधे टाइम मुख्यमंत्री बनने को लेकर डील हुई. अपना टाइम को कुमारस्वामी ने पूरा किया, लेकिन भाजपा के येदियुरप्पा की बारी आई तो गठबंधन से बाहर निकल गए. 2014 में कुमारस्वामी ने कांग्रेस के साथ सरकार बनाई और पूरे टाइम कांग्रेस के साथ उनकी पटी नहीं. यानी एक बात तो तय है कि कुमारस्वामी राजनीति के धरातल पर एक कच्चा घड़ा हैं. बावजूद इसके देवेगौड़ा सिर्फ उन्हें ही आगे बढ़ाना चाहते हैं, भले ही उनकी पार्टी जेडीएस का अस्तित्व ही खतरे में क्यों ना पड़ जाए.
अखिलेश यादव के चक्कर में टूट गई समाजवादी पार्टी
अगर उत्तर प्रदेश की राजनीति पर नजर डालें तो पता चलेगा कि समाजवादी पार्टी के टूटने की वजह अखिलेश यादव हैं. मुलायम सिंह ने अपने बेटे अखिलेश यादव को आगे बढ़ाने के लिए पार्टी के हित का भी ध्यान नहीं रखा. यही वजह है कि उनके भाई शिवपाल यादव भी उनसे अलग हो गए. शुरुआत में तो ये भी दिखा कि मुलायम सिंह यादव और बेटे अखिलेश यादव में खटपट हो गई है, जिसकी वजह से ये सब हुआ, लेकिन अब यूं लगने लगा है मानो ये सब मुलायम यादव पहले से ही प्लान किया है. हालांकि, फिलहाल उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी को लेकर जो चल रहा है उसे देखकर लग रहा है कि ये पूरी स्क्रिप्ट लिखने वाली मुलायम सिंह यादव ही हैं.
लालू यादव भी पुत्रमोह में पड़े
कभी बिहार में लालू यादव की तूती बोलती थी. भ्रष्टाचार के आरोप तो उन पर कई सालों से थे, लेकिन कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सका. लेकिन 2015 के चुनाव के बाद बिहार की राजनीति में काफी कुछ बदल गया. नीतीश कुमार की जेडीयू और लालू की आरजेडी ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा और भाजपा को हरा दिया. इस चुनाव में लालू के दोनों बेटे भी जीते. जहां एक ओर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने, वहीं दूसरी ओर उन्होंने छोटे बेटे तेजस्वी की डिप्टी सीएम और बड़े बेटे तेज प्रताप को कैबिनेट में मंत्री बना दिया. दोनों बेटों को राजनीति में सेट करने के चक्कर में लालू यादव ने सत्ता भी खो दी. तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और नीतीश यादव से खटपट शुरू हो गए. नीतीश ने अचानक ही लालू का साथ छोड़ दिया और इस्तीफा दे दिया, तुरंत ही भाजपा ने नीतीश के सामने दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया. अब एक ओर लालू जेल में हैं, वहीं दूसरी ओर उनकी पार्टी आरजेडी भी बिखर गई है.
ऐसा नहीं है कि शिवसेना इतिहास से अनजान है, लेकिन बावजूद इसके वह भी इसी रास्ते पर चलती हुई सी दिख रही है. अब अगर उद्धव ठाकरे ने पुत्रमोह में पड़कर आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने के लिए सेकुलर छवि वाली कांग्रेस और एनसीपी से हाथ मिला लिया तो बाल ठाकरे की छवि को सबसे अधिक नुकसान होगा. वह कभी झुकते नहीं थे, जो कह देते थे उसे कर के दिखाते थे. भाजपा तक के लिए वह कहते थे कि जो शिवसेना कहेगी, कमलाबाई (भाजपा) वही करेगी. जिस तरह भाजपा ने महाराष्ट्र की राजनीति में बड़े भाई की तरह चुनाव लड़ा उससे शिवसेना की धमक कम होने का अंदाजा तो लग ही गया है. अब अगर शिवसेना पुत्रमोह में पड़ कर अपनी विचारधारा के खिलाफ जाकर सरकार बनाती है तो शिवसेना के बचे-खुचे वजूद का भी खतरे में पड़ना तय है.
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