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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 19 जनवरी, 2017 02:51 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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एक के बाद एक फतवों के आने का सिलसिला रूकने का जैसे नाम ही नहीं ले रहा है. फिलहाल, दूर-दूर तक कोई उम्मीद भी नहीं है कि ये कभी थमेंगे भी. थमें तो तब, जब कि आम मुसलमान फतवे जारी करने वाले घोर प्रतिक्रियावादी मुल्लाओं के खिलाफ खड़े हों. मुस्लिम समाज के भीतर इस तरह की कोई हलचल नहीं दिख रही है. लगता है कि मुस्लिम समाज इन फतवों को लेकर निर्विकार भाव पाले हुए है. या मुल्लाओं की दहशत इन्हें सता रही है.

ताजा फतवा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ आया है. मोदी के खिलाफ कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम सैयद मोहम्मद नुरुर रहमान बरकती ने फतवा जारी करते हुए मोदी की दाढ़ी काटने वाले को या उन पर काली स्याही फेंकने पर 25 लाख रुपए का इनाम रखा दिया है.

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 कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के शाही इमाम सैयद मोहम्मद नुरुर रहमान बरकती

जरा देख लीजिए कि कितना खतरनाक है यह फतवा. वे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के घोषित रूप से खासमखास हैं. हालांकि, अब उन्हें खुद ही फतवे का सामना करना पड़ रहा है. शाही इमाम बरकती के खिलाफ मुंबई के मदरसा-दारुल-उलूम अली हसन सुन्नत के मुफ्ती मंजर हसन खान अशरफी मिस्बही ने उनके मोदी के खिलाफ जारी फतवे को सिरे से खारिज कर दिया है.

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उन्होंने शाही इमाम के नमाज अदा करने के हक पर भी सवाल खड़े कर दिए. मिस्बही ने दावा किया कि बरकती मुफ्ती है ही नहीं और उन्हें अपनी राजनीतिक राय को फतवे के तौर पर पेश कर उसकी पवित्रता को खत्म करने की कोशिश हरगिज नहीं करनी चाहिए. यानी फतवे पर फतवे की राजनीति हो रही है.

अकारण और बात-बात पर फतवे जारी करने वालों से समूचे इस्लाम की छवि प्रभावित हो रही है. पर मजाल है कि मिडिल क्लास मुसलमान भी इन फतवे जारी करने वालों के खिलाफ सड़कों पर उतर जायें. वे चुप हैं. उनकी चुप्पी डराने वाली है. मरघट वाली चुप्पी. क्यों? मुझे प्रख्यात पाकिस्तानी पत्रकार-लेखक-विचारक तारिक फतह की उर्दू चैनल का इंटरव्यू याद आ रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘भारत में अल्ला का इस्लाम नहीं, मुल्ला का इस्लाम चलाया जा रहा है जिसका मजहब से कोई वास्ता ही नहीं है.’ वास्ता है सिर्फ वास्ते की राजनीति से.  

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अब देवबंद की बात कर लें. देवबंद भारत के मुसलमानों का महत्वपूर्ण केन्द्र है. इधर से कुछ समय पहले महिलाओं और पुरुषों के एक साथ काम करने को भी अवैध बताया गया था. जरा सोचिए कि किस अंधेरे युग में अब भी रहते हैं फतवे देने वाले. क्या आज के ज़माने में मुमकिन है? नहीं. पर किसी भारतीय मुसलमान ने इस फतवे की निंदा नहीं की. इसी तरह से देवबंद ने अपने एक और फतवे में कहा कि इस्लाम के मुताबिक सिर्फ पति को ही तलाक देने का अधिकार है और पत्नी अगर तलाक दे भी दे, तो वह वैध नहीं हैं.

दरअसल एक व्यक्ति ने देवबंद से पूछा था, पत्नी ने मुझे 3 बार तलाक कहा, लेकिन हम अब भी साथ रह रहे हैं, क्या हमारी शादी जायज है? इस पर देवबंद ने कहा कि सिर्फ पति की ओर से दिया तलाक ही जायज है और पत्नी को तलाक देने का अधिकार नहीं है. जब सारा संसार स्त्रियों को जीवन के हर क्षेत्र में समता-बराबरी के लिए कृत संकल्प है तो देवबंद औरत को दोयम दर्जे का इंसान बनाने पर तुला है.

एक और उदाहरण लीजिए. देवबंद ने अंगदान और रक्तदान को भी इस्लाम के मुताबिक हराम करार दे दिया. देवबंद से पूछा गया था कि रक्तदान करना इस्लाम के हिसाब से सही है या गलत? इसके जवाब में देवबंद ने कहा, शरीर के अंगों के हम मालिक नहीं हैं, जो अंगों का मनमाना उपयोग कर सकें, इसलिए रक्तदान या अंगदान करना अवैध है. इन फतवों को सुनकर तो यही लगता है देवबंद मुसलमानों को किसी और दुनिया में लेकर जाना चाहता है.

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क्या है फतवा

फतवा यानी वो राय जो किसी को तब दी जाती है जब वह अपना कोई निजी मसला लेकर मुफ्ती के पास जाता है. फ़तवा का शाब्दिक अर्थ असल में सुझाव ही है और इसका मतलब यह है कि कोई इसे मानने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं है. यह सुझाव भी सिर्फ उसी व्यक्ति के लिए होता है और वह भी उसे मानने या न मानने के लिए आजाद होता है. इसे आलिम-ए-दीन की शरीयत के मुताबिक जारी किया जाता है. पर जिन मुद्दों पर जिस तरह के फतवे आते हैं, उनसे साफ है कि इन्हें जारी करने वाले अपने समाज को घोर अंधकार के युग में ही रखना चाहते हैं. शायद यह मुल्लाओं द्वारा चलाये जा रहे ‘वोट बैंक की राजनीति’ के मुआफिक भी है. वे गरीब मुसलमानों को अशिक्षित और कठमुल्ला बनाकर भेड़-बकरियों की तरह बाड़े में बंद रखना चाहते हैं. जिधर हांक दिया, चले गए.   दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमदबुखारी भी लंबे समय से मनचाहे फतवे दे रहे हैं. चुनावी मौसम में तो वे निश्चित रूप से फतवा किसी दल विशेष के पक्ष या विपक्ष में देने से भी पीछे नहीं हटते. हालांकि उनके भी सियासत के संसार में अपने खुद के लिए और अपने करीबियों के लिए कुछ खास पाने की उन पुरानी ख्वाब और ख्वाहिश वे लम्बे अरसे से पाले हुए हैं.

ये सच है कि फतवे मुसलमानों पर बाध्य तो नहीं होते. पर इनसे एक नकारात्मक माहौल जरूर बन जाता है. इस्लाम के अधिकांश धर्मग्रंथ अरबी में उपलब्ध हैं. इन धार्मिक पुस्तकों तक की सामान्य मुसलमानों की पहुंच नहीं है. इस पृष्ठभूमि में मुसलमानों को जो इमाम और मौलवी बताते हैं, वह उसी पर यकीन कर लेता है. इसलिए बहुत से मुसलमान फतवों पर अमल करना शुरू कर देते हैं. यह ही समस्या की जड़ है. यह ही है ‘मुल्लाओं द्वारा प्रतिदिन गलत और राजनीतिक इस्लाम’ जो कि ‘अल्लाह के इस्लाम’ यानि कुरान शरीफ के आयतों के विरुद्ध है. यही विकृति आई है भारत के मुसलमानों की समझ में, जो विशुद्ध रूप से मुल्लाओं के फतवों का इस्लाम है.   

कुछ बेतुके फतवों पर हंसी भी आ जाती है जिसने सानिया मिर्जा तक को नहीं छोड़ा

आपको याद होगा कि स्टार टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्जा की स्कर्ट से कोलकाता के एक इस्लामी संगठन को एतराज हो गया. इसलिए उसने फतवा जारी कर दिया कि अगर सानिया ढंग के कपड़े पहनकर नहीं खेलें तो उसे टेनिस खेलने नहीं दिया जाएगा. संगठन का कहना था कि सानिया छोटी स्कर्ट और टाइट टॉप पहनकर युवाओं को भ्रष्ट कर रही हैं. बेशक, कोई भी सभ्य इंसान इस तरह के फतवा देने वालों की बीमार मानसिकता पर तरस ही तो खाएगा.

मैं इधर भारत के शत्रु हाफिज सईद के खिलाफ बरेली में जारी फतवे का भी उल्लेख अवश्य ही करना चाहूंगा. बरेली की दरगाह आला हजरत से जुड़ी संस्था मंजर-ए-इस्लाम सौदागरान के मुफ्ती मुहम्मद सलीम बरेलवी ने मुम्बई हमलों के मास्टरमाइंड हाफिज सईद के खिलाफ जारी एक फतवे में उसे इस्लाम से ‘खारिज’ कर दिया था. इसमें उसे मुसलमान मानने और उसकी बातों को सुनने को नाजायज बताया गया था. वास्तव में इस प्रकार के फतवे कम ही सुनने को मिलते हैं.

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क्यों नहीं मुल्ला उन माता-पिता के खिलाफ फतवा देते है, जो अपने बच्चों को स्कूल भेजने से बचते हैं? क्यों फतवे परिवार नियोजन के पक्ष में नहीं आते? क्यों फतवे उन मुसलमानों के विरुद्ध जारी नहीं होते जो कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन आईएसआई के प्रति नरम रवैया अपनाते हैं? ये भी सोचने का विषय है कि क्यों फतवे औरतों के खिलाफ ही ज्यादा से ज्यादा जारी होते हैं? मुझे आश्चर्य होतो है कि कान्वेंट स्कूलों और सरस्वती शिशु मंदिरों में पढने वाले बच्चों और को-एडुकेशन शिक्षा संस्थानों में पड़ने वाली मुस्लिम बालिकाओं के माता-पिता के समाज से वहिष्कार और कब्रिस्तान में जगह न देने तक के फतवे देनेवाले मुल्ला उन बड़े मुस्लमान अधिकारियों, जजों, वकीलों, डॉक्टरों, और सांसदों के खिलाफ फतवा क्यों नहीं जारी करते जो आपने बच्चों का कभी मदरसों में नहीं भेजते, लड़के-लड़कियों को नामी-गिरामी कान्वेंट और को-एडुकेशनल स्कूल कालेजों और आवासीय विद्यालय में पढ़ाते हैं. यदि वे अंग्रेजी और को-एडुकेशन में अपने बच्चों को पढ़ाकर भी ‘सच्चे मुस्लमान’ बने रह सकते हैं, तो क्या मुल्लाओं का फतवा गरीब और कमजोर मुसलमानों के लिए ही है?    

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 इमाम सैयद मोहम्मद नुरुर रहमान ममता बनर्जी के साथ

और अब मैं फिर से टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम सैयद मोहम्मद नुरुर रहमान बरकती पर लौटूंगा. वे नोटबंदी के बहाने भी प्रधानमंत्री मोदी पर हमला बोलते रहे हैं. क्या उन्हें मालूम है कि कालेधन की अर्थव्यवस्था क्या होती है? क्या उन्हें पता है कि काला धन देश को किस तरह से खोखला करता है? शायद नहीं, इसके बावजूद वे मोदी सरकार पर गुस्सा निकालते रहे. दरअसल वे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के इशारों पर मोदी के खिलाफ जहर उगल रहे हैं. क्या ये सब इस्लाम सम्मत है? इमाम साहब को याद रखना चाहिए कि उनकी हरकतों को देखा जा रहा है. मुसलमान समाज भी उन पर नजर रखे है. वे चुनावी मौसम में अपने धार्मिक कर्तव्यों का निर्वाह करने की बजाय सियासत कर रहे हैं. उन्हें शर्म आनी चाहिए.

देश के मुसलमानों को अब तो यह खुलकर कहना ही चाहिए कि वे ‘अल्लाह का इस्लाम’ यानि कुरान शरीफ को मानेंगे और ‘मुल्लाओं के इस्लाम’ जो कुरान सम्मत नहीं है और मात्र वोट बैंक की राजनीति के लिए मुसलमानों को बरगलाने के लिए है, उसे सिरे से खारिज करेंगें.  

लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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