New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 19 जून, 2020 07:15 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

राहुल गांधी (Rahul Gandhi Birthday) 50 साल के हो गये, लेकिन, लद्दाख की गलवान घाटी (Galwan Valley Ladakh incident) में 20 सैनिकों की शहादत के शोक में जन्म दिन नहीं मनाने का फैसला पहले ही कर लिया था. 19 जून 1970 को दिल्ली के ही होली फेमिली अस्पताल में जन्म लेने वाले राहुल गांधी ने 2019 के चुनाव के बाद केरल में उस नर्स से मिले जिसने उनकी जन्म के समय देखभाल की थी. लेकिन ये काम भी राहुल गांधी ने तब किया जब वो वायनाड से चुनाव लड़े और जीत कर सांसद बन गये. नर्स से मुलाकात के इर्द गिर्द ही राहुल गांधी का बयान ये भी आया कि वो केरल में ऐसा महसूस कर रहे हैं जैसे बचपन से वहां रहे हों.

राहुल गांधी फिलहाल गलवान घाटी की घटना को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और उनकी सरकार के खिलाफ आक्रामक रूख अपनाये हुए हैं. राहुल गांधी लगातार सवाल भी पूछ रहे हैं. वो ये भी पूछते हैं कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अपने ट्वीट में चीन का नाम क्यों नहीं लेते और ये भी कि गलवान घाटी में चीनी फौज से मुकाबले के लिए भारतीय सैनिकों को निहत्थे किसने भेजा था. राहुल गांधी को जवाब देते हुए विदेश मंत्री एस. जयशंकर बताते हैं कि सैनिक निहत्थे नहीं थे, लेकिन समझौते के कारण हथियारों का इस्तेमाल नहीं किया जाता. फिर बीजेपी समर्थक अपने अपने तरीके से राहुल गांधी को जवाब देते हैं कि चीन के साथ हुए समझौतों में कैसे कांग्रेस की भूमिका रही है. एक समझौता तब हुआ जब कांग्रेस के सपोर्ट से एचडी देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री थे - और दूसरा तब जब डॉक्टर मनमोहन सिंह पीएम रहे. लगे हाथ राहुल गांधी को 'अनपढ़' के तौर पर पेश करने की कोशिशें भी जारी हैं, एक सलाह के साथ कि मोदी सरकार से सवाल पूछने से पहले राहुल गांधी को थोड़ा होम वर्क तो कर ही लेना चाहिये.

फिर भी राहुल गांधी के सवालों का सिलसिला थम नहीं रहा है. द प्रिंट वेबसाइट ने सुशांत सिंह राजपूत की खुदकुशी को लेकर एक ओपिनियन पीस में राहुल गांधी को मॉडल के तौर पर पेश किया था कि कैसे वो करीब एक दशक से राजनीतिक विरोधियों के गुमनाम ट्रोल को हंसते हंसते झेल रहे हैं. जिस तरह सुशांत सिंह राजपूत के मामले में नेपोटिज्म का जिक्र हो रहा है, वो तो राजनीति में भी है ही. खुद राहुल गांधी ने भी एक विदेशी कार्यक्रम में भारतीय राजनीति में परिवारवाद की पैरवी की थी - और ये राहुल गांधी ही हैं जिन्होंने 2019 में शिक्षक दिवस के मौके पर अपने विरोधियों को गांधीगिरि वाले अंदाज में शुक्रिया भी कहा.

वायनाड में राहुल गांधी के लिए वोट मांगते वक्त राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी वाड्रा ने कांग्रेस नेता की ऐसी ही खासियत बतायी थी - अंदर से मजबूत और अच्छा इंसान. भारतीय राजनीति में बुनियादी तौर पर दो तत्वों का दबदबा है - एक विरासत और दूसरा जनाधार. कभी कांग्रेस के पास ये दोनों थे, लेकिन गुजरते वक्त ने कांग्रेस से जनाधार छीन लिया है. 2014 के बाद से कांग्रेस महज विरासत के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में फिर से खड़े होने की कोशिश कर रही है. सिर्फ कांग्रेस ही नहीं मौजूदा दौर में विरासत वाली सभी पार्टियों का तकरीबन यही हाल है.

rahul gandhi, sonia and priyanka gandhiराहुल गांधी अब से भी संभल जायें तो बहुत देर नहीं हुई है

समाजवादी पार्टी, आरजेडी, डीएमके. वाईएसआर कांग्रेस भी विरासत की राजनीति पर ही खड़ी हुई है, लेकिन जगनमोहन रेड्डी ने अपने संघर्ष के बूते आंध्र प्रदेश में सत्ता हासिल की है. देखना होगा कहीं उनका हाल भी अखिलेश यादव जैसा तो नहीं होने वाला है, आखिर अखिलेश यादव भी तो उसी तरीके से 2012 में समाजवादी पार्टी को सत्ता दिलाये थे.

बाकी सारी बातें तो ठीक हैं, लेकिन राहुल गांधी की राजनीति में एक बहुत बड़ी खामी रही है - वो हमेशा ही वक्त की धार के विपरीत चलने की कोशिश करते हैं. हमेशा दीवार की एक तरफ तो नहीं रहा जा सकता, लेकिन एक तरफ रहने पर अगर वक्त बदलता है तो चीजें तो बदल ही सकती हैं. राहुल गांधी हमेशा ही दीवार के दूसरी तरफ वाली जगह ही चुन लेते हैं - जब कांग्रेस सत्ता में होती है तो वो विपक्ष के नेता जैसा व्यवहार करने लगते हैं और जब सत्ता हाथ से चली जाती है तो फिर से लगता है पाला बदल लेते हैं. बार बार उनके हाव भाव ऐसे मैजेस देने लगते हैं जैसे वो सत्ता का मोह उन पर हावी होने लगा हो.

सुनने में आया है कि कांग्रेस में एक बार फिर से राहुल गांधी को लॉन्च करने की तैयारी चल रही है - कांग्रेस को समझ लेना चाहिये कि ये सब करने से लोगों के मन में राहुल गांधी की जो छवि बन चुकी है, अभी नहीं बदलने वाली है. राहुल गांधी के लिए भी बेहतर यही है कि जितना जल्दी हो सके - वक्त के साथ कदम मिला कर चलना सीख लें. अगर वास्तव में ऐसा संभव हो पाया तो राहुल गांधी ही नहीं कांग्रेस पार्टी का भी उद्धार हो सकता है.

वक्त के साथ चलने का मतलब भी तो समझना होगा!

1. सवालों की अहमियत समझने की कोशिश करें: भले ही कांग्रेस जनाधार खो चुकी हो और राहुल गांधी भले ही विरासत की राजनीति कर रहे हों - लेकिन एक बात तो साफ है कि सत्ता पक्ष उनके सवालों को नजरअंदाज नहीं कर पाता. राहुल गांधी को नहीं भूलना चाहिये कि उनके एक ट्वीट पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लगातार 13 ट्वीट से जवाब दिये थे - और अब भी लद्दाख की गलवान घाटी को लेकर भी विदेश मंत्री ट्विटर पर विस्तार से जवाब देते हैं.

राहुल गांधी ने एक नये ट्वीट में न्यूज एजेंसी ANI के ट्वीट पर टिप्पणी की है - तस्वीर साफ हो चुकी है. एक, गलवान में चीन का हमला पूर्व नियोजित रहा. दो, सरकार गहरी नींद में सो रही थी और समस्या को नजरअंदाज किया. तीन, खामियाजा हमारे शहीद जवानों को भुगतना पड़ा. राहुल गांधी ने ये टिप्पणी रक्षा राज्य मंत्री श्रीपद नाइक के बयान पर की है जिसमें वो चीन के हमले को पूर्व नियोजित बता रहे हैं.

राहुल गांधी के लिए सबसे जरूरी है कि मुद्दों को समझने की कोशिश करें और उसी हिसाब से रिएक्ट करें. सिर्फ सलाहकारों के भरोसे कुछ नहीं होता. सलाहकार ऊलजुलूल सलाह भी देते रहते हैं, ऐसे में सबसे जरूरी होता है सही सलाहियत का सेलेक्शन. राहुल गांधी अगर वाकई राजनीतिक को लेकर सीरियस हैं तो ये हुनर जल्द से जल्द हासिल करना होगा.

2. राहुल गांधी का वीडियो चैट बनाम अमित शाह की डिजिटल रैली: कोरोना वायरस महामारी ने विपक्ष की राजनीति पूरी तरह होल्ड कर रखी है. परंपरागत राजनीति का कोई स्कोप बचा ही नहं है. ऐसे में थोड़े ही अंतराल के बीच राहुल गांधी और अमित शाह दोनों ने वर्चुअल माध्यम के राजनीतिक इस्तेमाल का फैसला किया. राहुल गांधी ने विशेषज्ञों के साथ कोरोना वायरस से मुकाबले के तरीके सीखते रहे - और अमित शाह ने जनसंवाद के नाम पर चुनावी रैली ही कर डाली.

राहुल गांधी ने जो कदम उठाया वो मोदी सरकार पर हमले के लिए रहा और अमित शाह ने कदम बढ़ाया वो जनता से सीधे जुड़ने का रहा. राहुल गांधी के वीडियो इंटरव्यू का मैसेज ये गया कि खुद उके पास कोई अपना विजन नहीं है, जबकि नेता के पास विचारों का टोटा नहीं होना चाहिये. अमित शाह और उनके साथियों ने रैलियां कर लोगों को भरोसा दिलाया कि देश को आगे ले जाने का विजन तो सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास ही है.

राहुल गांधी को कई बार प्रधानमंत्री मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की नकल करते देखा गया है. बेशक नकल करें, लेकिन अपनी सोच का दायरा भी अमित शाह की तरह विकसित करें. आखिर एक ही वक्त एक ही माध्यम का इस्तेमाल करने के बाद भी राहुल गांधी चूक क्यों जाते हैं - ये बात उनको समझनी ही होगी.

3. कांग्रेस के लिए एक स्थायी अध्यक्ष की जरूरत समझें: राहुल गांधी अगर कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर नहीं बैठना चाहते तो न बैठें, लेकिन इससे कांग्रेस की जरूरत तो नहीं खत्म हो सकती. कांग्रेस के ही नेताओं के बयान हैं कि पार्टी में ऐसे कई नेता हैं जो मजबूत नेतृत्व दे सकते हैं. राहुल गांधी को ऐसे नेताओं से बात कर किसी नतीजे पर जल्दी से पहुंचना होगा. सबसे बड़ा सच तो ये है कि सारा कंट्रोल पहले की ही तरह सोनिया गांधी के हाथ में होते हुए भी कांग्रेसी के ही नेता नहीं मानते कि पार्टी के पास नेतृत्व नाम की कोई औपचारिक अध्यक्ष जैसी चीज भी है.

4. विपक्ष के बीच स्वीकार्यता बढ़ायें: हैरानी की बात तो ये है कि राहुल गांधी को विपक्षी खेमे में अब तक स्वीकार्यता नहीं मिल पायी है. ममता बनर्जी और शरद पवार जैसे नेता राहुल गांधी को अब भी बात करने के लायक नहीं समझते - और अखिलेश यादव या तेजस्वी यादव जैसे नेताओं के साथ उनका रिश्ता सामान्य भी नहीं रह पाता. अखिर राहुल गांधी के साथ ही कोई समस्या है कि कॉलेज के दोस्त और राजनीति में भी लंबा बक्त साथ गुजारने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया भी उनको छोड़कर राजनीतिक दुश्मिन के पाले में जा मिलते है और राहुल गांधी हाथ मलते रह जाते हैं.

ये सब मामूली बातें नहीं हैं - राहुल गांधी को सोचना होगा जब राजनीति में ही चार लोग उनको नेता मानना तो दूर बात करने लायक नहीं समझते तो पब्लिक उनकी बात कैसे सुनेगी? कांग्रेस की जुटायी हुई भीड़ भले उनकी बात सुन ले और उनके बोलने पर 'चौकीदार चोर है' जैसे नारे भी लगा ले - लेकिन वो किराये की भीड़ होती है. राहुल गांधी जितना जल्दी ये सब समझ लें उतना ही अच्छा होगा.

विपक्ष के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ायें - राहुल गांधी को आज तक विपक्ष में स्वीकार्यता नहीं मिली - बड़े नेताओं की छोड़ भी दें तो तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव तक से रिश्ता लंबा क्यों नहीं चल पाता?

सिंधिया का केस अलग है, लेकिन राहुल गांधी के साथ विपक्षी खेमे के दूसरे नेताओं दूरी बना लेने के पीछे कांग्रेस का उनके लिए प्रधानमंत्री पद पर रिजर्वेशन रहा है. 2019 के आम चुनाव के नतीजे आने के बाद से राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आक्रामक भले रहे हों, लेकिन कई मामलों में उनका रोल कम ही रहा है. चाहे वो महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर हुई डील हो या फिर झारखंड में सीटों के बंटवारे का मामला.

5. कांग्रेस में नेताओं की अहमियत महसूस करें: कांग्रेस में नेताओं की प्रतिभा से ज्यादा कमेटियों को तरजीह दी जाती रही है. पहली बार 11 सदस्यों वाली एक ऐसी कमेटी बनी जिसमें उन नेताओं को बाहर रखा गया जो हर कमेटी में हुआ करते रहे, लेकिन नतीजा तो अब तक वही रहा है - ढाक के तीन पात.

राहुल गांधी को जिन बातों पर सबसे पहले और सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत हो वो है, साथी नेताओं और पालतुओं में फर्क समझना. हिमंता बिस्वा सरमा ने सबसे पहले इस ओर ध्यान दिलाया था, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने तक राहुल गांधी के व्यवहार में कोई फर्क नहीं दिखा. सिंधिया के जाने पर राहुल गांधी ने कहा था कि वो उनके साथ कॉलेज के दोस्त थे और कभी भी उनके कमरे में आ सकते थे - लेकिन राहुल गांधी ने एक बार भी क्यों नहीं सोचा कि सिंधिया को कांग्रेस छोड़ने को मजबूर क्यों होना पड़ा. अगर सिंधिया दोस्त थे तो क्या राहुल गांधी को कभी हालचाल पूछना नहीं बनता था. राहुल गांधी को ही ऐसी अपेक्षा क्यों रही कि सिंधिया खुद उसे मिलने आयें और समस्या पर चर्चा करें?

इन्हें भी पढ़ें :

Rahul Gandhi का चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी के साथ समझौता सवालों के घेरे में तो आना ही था!

Rajya Sabha elections में कांग्रेस ने जो बोया था अब वही काट रही है!

Rahul Gandhi चीन और कोरोना पॉलिटिक्स का बुनियादी फर्क ही ना समझ पाए

#राहुल गांधी, #कांग्रेस, #सोनिया गांधी, Rahul Gandhi Birthday, India China Face Off, Narendra Modi

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय