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Updated: 06 जून, 2022 03:42 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के प्रधानमंत्री बनने और बने रहने में बीजेपी (BJP) के जिस कैंपेन की सबसे बड़ी भूमिका रही, वो है - कांग्रेस मुक्त भारत (Congress Mukt Bharat). जनता के लिए तो बीजेपी ने 'सबका साथ सबका विकास' का नारा दिया, लेकिन सत्ता में आने के बाद बीजेपी का रवैया कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष को बिलकुल नेस्तनाबूद करने वाला ही रहा है.

देश में मजबूत सरकार की वकालत तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले से ही करते रहे हैं. अब मजबूत विपक्ष को लेकर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नजरिया सामने आ गया है, जिसमें वो मजबूत सरकार की तरह ही एक मजबूत विपक्ष की महती जरूरत पर जोर दे रहे हैं.

जाहिर है राजनीति में विपक्ष की भूमिका को लोकतंत्र की मजबूती से जोड़ कर देखा जाता है, जबकि मजबूत सरकार को लेकर समझा जाता है कि वो देश हित में आसानी से फैसले ले पाती है. गठबंधन की सरकारों की मजबूरी तो देश के दो-दो प्रधानमंत्री पहले ही बता चुके हैं. मजबूत सरकार के प्रबल समर्थक पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी रहे - और 2019 के आम चुनावों से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने भी लोगों से यही अपील की थी कि केंद्र में वो ऐसी सरकार बनवायें कि दुनिया भारत के प्रधानमंत्री की बातों को एक मजबूत आवाज के तौर पर तवज्जो दे.

फिलहाल देश में मजबूत विपक्ष की बात कौन कहे, अभी तो स्थिति ये है कि विपक्ष की कोई भूमिका ही नहीं समझ में आती. ये तो नहीं कह सकते कि विपक्ष सरकार की नीतियों की आलोचना की जगह खामोश बैठा हुआ है, लेकिन मुश्किल ये है कि विपक्ष जो भी समझाने की कोशिश करता है लोग सुनने को तैयार नहीं होते - और ये तो विश्वसनीयता की वजह से ही हो रहा होगा. सवाल ये है कि आखिर कैसे सत्ता पक्ष पर जनता को इतना भरोसा है कि विपक्ष की हर बाद उसे देश के खिलाफ लगती है - क्या सिर्फ इसलिए कि लोगों को देश और धर्म का घालमेल समझा दिया गया है और वो समझ भी बैठे हैं?

सभी विपक्षी दलों का ये गंभीर आरोप रहा है कि उनके नेताओं को टारगेट करने के लिए सत्ताधारी बीजेपी केंद्रीय जांच एजेंसियों का गलत इस्तेमाल करती है. अभी अभी सोनिया गांधी और राहुल गांधी को मिला प्रवर्तन निदेशालय का नोटिस हो या महाराष्ट्र के बीजेपी विरोधी नेताओं के यहां छापेमारी और गिरफ्तारी या फिर हाल ही में लालू यादव के परिवार से जुड़े कई ठिकानों पर सीबीआई की छापेमारी - ऐसे सभी मामलों की असल वजह अलग अलग हो सकती है, लेकिन एक बात तो कॉमन है कि केंद्रीय जांच एजेंसियां बीजेपी की राजनीति का विरोध करने वाले नेताओं को ही निशाना बना रही हैं.

अगर प्रधानमंत्री मोदी राजनीति में परिवारवाद को खत्म करने की कॉल देते हैं तो ऐसी कितनी पार्टियां है जहां ये प्रैक्टिस नहीं है - और अगर गिनती की एक-दो हैं भी तो उनकी हैसियत ही कितनी रह गयी है?

ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के पैमाने पर खरा उतर सके ऐसा विपक्ष तो नये सिरे से खड़ा करना होगा - और संघ के सपोर्ट से बीजेपी जिस तरीके से राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ हाथ धोकर पीछे पड़ी है, लगता तो नहीं कि बीजेपी के सत्ता में रहते परिवारवाद-मुक्त कोई विपक्षी दल खड़ा भी हो पाएगा!

मजबूत विपक्ष की राह का रोड़ा कौन?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब राजनीतिक दल खुद को परिवारवाद से मुक्त करेंगे - और मुश्किल तो यही है कि ये सब संभव कैसे होगा?

देखा जाये तो कांग्रेस को छोड़ कर देश में ऐसी कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं नजर आती जिसका अस्तित्व ही परिवारवाद से जुड़ा है और उसी पर टिका है, लेकिन परिवारवाद के मुद्दे पर शायद ही कभी सोचा गया हो. यहां तक कि कार्यकर्ता भी ऐसी बातों को सोच से परे समझते हैं.

narendra modiप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मनमाफिक मजबूत विपक्ष को तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही खड़ा कर सकता है.

कार्यकर्ताओं के हिसाब से देखें तो कांग्रेस में भी, युवा से लेकर सीनियर नेता तक, कोई भी गांधी परिवार से इतर किसी को भी नेता मानने को तैयार नहीं होता. उदाहरण के तौर पर अगर लोक जनशक्ति को लें तो उसका भी क्या हाल हुआ. आकाश से गिर कर खजूर पर अटक जाने जैसा ही तो हाल हुआ. लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक रामविलास पासवान ऑपरेशन के लिए अस्पताल जाने से पहले सार्वजनिक ऐलान करके गये कि वो अपनी विरासत चिराग पासवान को सौंप रहे हैं. बाद में हालात ऐसे बने कि रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के हाथ से पार्टी की कमान फिसल कर भाई पशुपति कुमार पारस के हाथों में आ गयी.

ये तो मानना पड़ेगा कि परिवारवाद की राजनीति से ही आये राहुल गांधी ने इस्तीफा देने के बाद पहली बार गांधी परिवार से अलग अध्यक्ष बनाये जाने की पहल की. तब कांग्रेस अध्यक्ष की जो चुनावी प्रक्रिया चल रही थी, राहुल गांधी ने उससे भी खुद, अपनी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को दूर रखने की कोशिश की थी, लेकिन जब अध्यक्ष रहते वो कभी अपने मन की नहीं कर पाये तो बाद में कहां संभव था. बल्कि, अब तो किसी भी पद पर न होते हुए ज्यादा ही मन की कर पाते हैं.

बाकी क्षेत्रीय दलों को बारी बारी देखें तो भी एक ही कहानी से रूबरू होना पड़ता है. चाहे वो उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी हो या फिर बिहार का राष्ट्रीय जनता दल. चाहे वो महाराष्ट्र की शिवसेना हो या फिर तमिलनाडु की डीएमके - हर तरफ तो एक ही नजारा देखने को मिल रहा है.

अब मोदी को चाहिये देश में मजबूत विपक्ष: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं, 'मैं तो चाहता हूं कि मजबूत विपक्ष हो' - और ये बात वो तब कह रहे हैं जब देश का पूरा विपक्ष एक ही मिशन में जुटा है कि कैसे केंद्र से बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2024 के आम चुनाव में सत्ता से बेदखल किया जाये. तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी तो 2019 में ही ही मोदी को एक्सपायरी डेट पीएम कह कर बुलाने लगी थीं.

प्रधानमंत्री मोदी ये सलाह देते तो हैं, परिवारवाद के शिकंजे में फंसी पार्टियां खुद को इससे मुक्त करें और इसका इलाज करें, तभी भारत का लोकतंत्र मजबूत होगा,' लेकिन लगे हाथ निराशा भी जताते हैं, 'खैर, परिवारवाद पार्टियों से मैं कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहा हूं.'

और फिर सफाई भी पेश करते हैं, 'मेरी किसी राजनीतक दल से व्यक्तिगत नाराजगी नहीं है.' अपनी बात समझाते हुए कहते हैं, 'मैं जब परिवारवाद के खिलाफ बात करता हूं तो कुछ लोगों को लगता है कि राजनीतिक बयान है. मैं किसी राजनीतिक दल के खिलाफ बात कर रहा हूं, ऐसा प्रचार होता है... मैं देख रहा हूं कि जो लोग परिवारवाद की मेरी व्याख्या में सही बैठते हैं वो मुझसे भड़के हुए हैं... गुस्से में हैं. देश के कोने-कोने में ये परिवारदवादी मेरे खिलाफ अब एकजुट हो रहे हैं... वे इस बात से भी नाराज हैं कि क्यों देश का युवा परिवारवाद के खिलाफ मोदी की बातों को इतनी गंभीरता से ले रहा है... मैं इन लोगों को कहना चाहता हूं कि मेरी बात का गलत अर्थ न निकालें - मेरी किसी राजनीतिक दल से या व्यक्ति से कोई व्यक्तिगत नाराजगी नहीं है.'

मोदी की बातों को समझें तो वो मजबूत विपक्ष की राह में परिवारवाद की राजनीति को रोड़ा मानते हैं. परिवारवाद की राजनीति को विकास की राह का भी रोड़ा मानते हैं - और राजनीति में भी नये टैलेंज की तरक्की की राह में भी परिवारवाद को ही राह का रोड़ा मानते हैं. काफी हद तक ये सही भी है. जिन राजनीतिक पार्टियों का संविधान ही ऐसा बनाया जाता हो जिसमें संस्थापक के बाद उसके बेटे के ही विरासत संभालने का पहले से ही इंतजाम हो, वहां बाकियों को कौन पूछता है. बिहार में आरजेडी में एक दौर ऐसा भी आया था जब लालू यादव के जेल चले जाने के बाद पप्पू यादव खुद को दावेदार मानने लगे थे, लेकिन बाहर आते ही एक ही झटके में लालू यादव ने साफ कर दिया, वारिस तो बेटा ही न होगा... बेटा वारिस नहीं होगा तो क्या भैंस चराएगा? आप चाहें तो 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी के झगड़े को देख लें पूरी क्रोनोलॉजी बिलकुल वैसी ही लगेगी.

परिवारवाद की राजनीति का प्रसंग कहां से आया: बिलकुल यही बातें ही प्रधानमंत्री मोदी भी समझा रहे हैं, 'भारत में गांव में पैदा हुआ गरीब से गरीब व्यक्ति भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच सकता है... लेकिन ये परिवारवाद ही है जो राजनीति ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में प्रतिभाओं का गला घोटता है और आगे बढ़ने से रोकता है.'

असल में प्रधानमंत्री मोदी, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पैतृक गांव कानपुर देहात के परौंख पहुंचे थे - और उसी दौरान चर्चा कर रहे थे कि कैसे गांव और कस्बों की मिट्टी से जुड़े लोग बड़ी बड़ी जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं. इस सिलसिले में मोदी ने अपने और राष्ट्रपति कोविंद के अलावा राज्यपाल आनंदीबेन पटेल और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भी मिसाल दी. बोले, 'यही हमारे लोकतंत्र की ताकत है. गांव में पैदा गरीब से गरीब व्यक्ति राज्यपाल, मुख्यमंत्री, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच सकता है.'

हाल ही में तेलगांना में भी प्रधानमंत्री ने परिवारवाद की राजनीति पर हमला बोला था, हालांकि, तब उनके निशाने पर मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव रहे. तब भी प्रधानमंत्री मोदी का कहना रहा, 'परिवारवाद की वजह से ही देश के युवाओं को, देश की प्रतिभाओं को राजनीति में आने का अवसर भी नहीं मिलता... परिवारवाद उनके हर सपनों को कुचलता है, उनके लिए हर दरवाजा बंद करता है.'

तेलंगाना में केसीआर की राजनीति को टारगेट करते हुए मोदी ने लोगों को ये समझाने की कोशिश की कि जहां जहां भी परिवारवादी पार्टियां हटी हैं, वहां वहां विकास के रास्ते खुले हैं. और ये भी बताया कि 21वीं सदी के भारत के लिए परिवारवाद से मुक्ति, परिवारवादी पार्टियों से मुक्ति उनका एक संकल्प भी है. केसीआर की पार्टी टीआरएस को लेकर बोले, 'तेलंगाना के लोग देख रहे हैं कि जब एक परिवार को समर्पित पार्टियां जब सत्ता में आती हैं, तो कैसे उस परिवार के सदस्य भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा चेहरा बन जाते हैं... परिवारवादी पार्टियां सिर्फ अपना विकास करती हैं, अपने परिवार के लोगों की तिजोरियां भरती है.'

परिवारवाद से मुक्त कैसे होगा विपक्ष?

परिवारवाद की राजनीति को लेकर प्रधानमंत्री मोदी का जोर फिलहाल गांधी परिवार से ज्यादा केसीआर पर लगता है. कांग्रेस नेतृत्व तो अभी ईडी से ही जूझ रहा है. कोरोना वायरस के बाद कांग्रेस नेतृत्व को ईडी को फेस करना है.

केसीआर के खिलाफ फिलहाल मोदी और राहुल गांधी ठीक वैसे ही पीछे पड़े हुए हैं, जैसे पंजाब चुनाव के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर एक साथ धावा बोले हुए थे - और आप तो जानते ही हैं नतीजा क्या हुआ?

टीआरएस नेता केसीआर के परिवारवाद वाले फ्रेम के हिसाब से देखें तो तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव, जयंत चौधरी, चिराग पासवान, एमके स्टालिन और उद्धव ठाकरे सभी एक ही कतार में नजर आते हैं. बिलकुल वैसी ही परिवारवाद की पॉलिटिक्स शरद पवार की पार्टी एनसीपी में भी नजर आती है - हरियाणा की राजनीति में तो ये और भी गहरी है.

पहले ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और मायावती की बीएसपी को लेकर थोड़ा भ्रम जरूर बना हुआ था, लेकिन वहां भी भाई-भतीजावाद हावी हो ही गया है. टीएमसी में जैसा दबदबा अभिषेक बनर्जी का है, बीएसपी में वैसा ही रुतबा मायावती के भतीजे आकाश आनंद का हो गया है. पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद कई नेता भले ही टीएमसी में लौट चुके हों, लेकिन ममता बनर्जी से उनको कभी कोई शिकायत नहीं रही है, लेकिन अभिषेक बनर्जी को बर्दाश्त करना सबके लिए मुश्किल हो जाता है. कांग्रेस नेता भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी में करीब करीब ऐसा ही फर्क महसूस करते हैं.

अब जो हाल है, उसमें तो ले देकर कुछ ही दल बचते हैं. ऐसी ही एक पार्टी है नीतीश कुमार की, जनता दल (युनाइटेड) - और तमिलनाडु में जे. जयललिता की पार्टी - AIADMK. हां, लेफ्ट पार्टियों में भी परिवारवाद का वैसा प्रकोप देखने को नहीं मिलता. अगर प्रकाश करात और वृंदा करता की दलील दी भी जाये तो उनकी निजी काबिलियत पर भी ध्यान देना होगा.

और अभी तक तो अरविंद केजरीवाल ने भी आम आदमी पार्टी को परिवारवाद के साये से बचाये ही रखा है - आगे क्या होता है, देखना होगा. कोई और चारा भी तो नहीं है.

मजबूत विपक्ष के लिए विकल्प क्या है?

मौजूदा हालात में तो मोदी के पैमाने पर मजबूत कौन कहे, विपक्ष का तो और भी बुरा हाल नजर आता है. फिर तो सत्ता पक्ष बने रहने के साथ बीजेपी को ही ऐसा कोई मजबूत विपक्ष भी खड़ा करना होगा. जैसे कभी कभी लगता है कि पूरे विपक्ष में संघ को अरविंद केजरीवाल की राजनीति ही पसंद आती है.

वैसे एनडीए में रह कर भी नीतीश कुमार का हालिया व्यवहार तो विपक्षी नेता जैसा ही है. ये धारणा जरूर है कि प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह की जोड़ी इतनी ताकतवर हो चुकी है कि बोलने की कौन कहे, बीजेपी में तो नजर उठा कर देखना भी किसी के लिए संभव नहीं है. बीजेपी सांसद रहते नाना पटोले ने भी ऐसे सवाल उठाये थे, लेकिन आखिरकार उनको भी पार्टी छोड़नी ही पड़ी. भला हो राहुल गांधी का जो नाना पटोले के तीव्र मोदी विरोध को देखते हुए उनको महाराष्ट्र कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया है.

मोदी-शाह विरोधी आवाजों में नितिन गडकरी का भी नाम शुमार होता रहा है. शायद इसलिए भी क्योंकि वो नागपुर से आते हैं जहां संघ का मुख्यालय है - और संघ में उनको पसंद भी किया जाता है और ऐसे नेताओं में संघ प्रमुख मोहन भागवत भी हैं.

फिर तो देश में मजबूत विकल्प के सूनेपन को भरने के लिए बीजेपी में ही मोदी-शाह विरोधी लोगों का एक और मार्गदर्शक मंडल बना देना होगा - ऐसा हुआ तो कम से कम यशवंत सिन्हा जैसे नेता ममता के लिए बैटिंग नहीं ही कर पाएंगे - और न ही शत्रुघ्न सिन्हा जैसे नेता विरोध की राजनीति के जरिये संसद तक पहुंच पाएंगे.

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#नरेंद्र मोदी, #विपक्ष, #लोकतंत्र, Narendra Modi, Political Opposition, Dynastic Politics

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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