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Updated: 03 अगस्त, 2016 04:39 PM
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16 साल मामूली नहीं होते - वो भी भूखे. "भूख क्या होती है... अभी पता चला है..." दिल्ली में अपना अनशन खत्म करने के बाद अरविंद केजरीवाल ने तब यही कहा था. केजरीवाल का अनशन तो कुछ दिनों का ही था. यहां तक कि अन्ना के अनशन से भी छोटे पीरियड का. इरोम शर्मिला चानू की भूख हड़ताल ने तो हर संघर्ष को पीछे छोड़ दिया है.

दाद देनी होगी इरोम के धैर्य की. शर्मिला ने देश के संविधान में अकूत श्रद्धा व्यक्त की. अगर तुलना की जाए तो शर्मिला का संघर्ष बड़े राजनीतिक आंदोलनों पर भी भारी पड़ेगा.

सवाल स्वाभाविक हैं...

शर्मिला ने 9 अगस्त को अपनी भूख हड़ताल खत्म करने की घोषणा की है. शर्मिला के इस फैसले से कइयों को अचंभा हुआ है - जिनमें खुद शर्मिला के परिवार के लोग भी हैं. अंचभे की वजह शर्मिला के राजनीति में उतरने का फैसला है.

शर्मिला के इस फैसले में उनके दोस्त भारतीय मूल के ब्रिटिश नागरिक डेसमंड कॉउतिन्हो की बड़ी भूमिका मानी जा रही है. मगर, शर्मिला के संघर्ष में हर कदम साथ रहे उनके भाई इरोम सिंहजित को ये दोस्ती बिलकुल नहीं भाती. सिंहजित को लगता है कि डेसमंड शर्मिला के संघर्ष को मजाक बना रहे हैं. बहरहाल, शर्मिला ने डेसमंड के साथ शादी कर घर बसाने का फैसला किया है.

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शर्मिला के भाई सिंहजित ही नहीं उनकी मां सखी देवी ने भी उनके फैसले पर कोई टिप्पणी नहीं की है. 5 नवंबर 2000 को शर्मिला ने मां का आशीर्वाद लेकर घर छोड़ा - और जीत कर ही घर लौटने का वादा किया. शर्मिला की मां को मिशन पूरा कर बेटी के लौटने का इंतजार है.

जिन्हें शर्मिला के फैसले से अचंभा हुआ उनका सवाल है कि शर्मिला ने ये फैसला कहीं किसी दबाव में तो नहीं लिया. लेकिन जिसका इरादा इतना पक्का हो कि अपनी मांग के लिए बरसों अपनी जिद कायम रखे, उस क्या किसी दबाव का असर हो सकता है?

शर्मिला की ओर से ये फैसला तब आया है, जब हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने AFSPA पर अपने अहम फैसले में कहा है कि जिन राज्यों में ये कानून लागू है वहां सुरक्षाकर्मी ज्यादा या प्रतिशोध की भावना से ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकते.

सार्वजनिक काम के लिए शर्मिला का ये संघर्ष अब तक निजी रहा है, जो अब राजनीतिक रूप लेने जा रहा है. फिर तो शर्मिला को कदम कदम पर सवालों से दो-चार होना पड़ेगा. शर्मिला को सवालों के जवाब भी देने होंगे.

सोच वही, तरीका नया

केंद्र सरकार के साथ साथ शर्मिला मणिपुर के स्थानीय नेताओं से भी बेहद नाराज हैं.

नेताओं से नाखुश शर्मिला कहती हैं, "...मेरे कैंपेन को लेकर नेताओं ने जिस तरह की उदासीनता दिखाई, उससे मैं नाखुश हूं. मेरे इतने लंबे संघर्ष का कोई असर नहीं हुआ."

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सोच वही, तरीका नया...

कुछ साल पहले एक बार उन्होंने कहा था कि मणिपुर को भी जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला जैसा नेता चाहिए. उमर अब्दुल्ला AFSPA का विरोध करते रहे हैं - और ये बात शर्मिला को अपील करती है.

AFSPA को लेकर शर्मिला कहती हैं, "मैं ये दमनकारी कानून हटाने की मांग को मुख्य मुद्दा बनाते हुए चुनाव लडूंगी. मैं अपने इतने लंबे वक्त से जारी मांग को अपने जीते जी पूरा होते हुए देखना चाहती हूं. मेरी नई रणनीति मजबूत लोकतांत्रिक ताकत को सही ढंग से इस्तेमाल करने की है."

मन है कि मानता नहीं...

शर्मिला का फैसला निश्चित तौर पर सराहनीय है, लेकिन आने वाली चुनौतियों से वो कैसे निबटेंगी ये सबसे बड़ा सवाल है.

फिलहाल शर्मिला ने इंडिपेंडेंट चुनाव लड़ने की घोषणा की है, लेकिन कब तक? क्या एक निर्दल विधायक बन कर शर्मिला अपनी आवाज बुलंद कर पाएंगी. और अगर ऐसा नहीं हो पाया तो फिर क्या होगा? क्या शर्मिला इतने विधायकों का सपोर्ट हासिल कर पाएंगी कि झारखंड के मधु कोड़ा की तरह अपनी सरकार बना लें? फिर भी बात नहीं बनी तो क्या शर्मिला भी केजरीवाल की तरह कोई राजनीतिक दल बनाएंगी?

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ऐसा क्यों लगने लगा है कि बगैर ठोस रणनीति और दूरगामी सोच के साथ शर्मिला भी राजनीति में उतरती हैं तो उनका भी हाल केजरीवाल जैसा ही हो सकता है.

शर्मिला का संघर्ष बेमिसाल है. ये उसी कोटि का है जैसे अफ्रीका में नेल्सन मंडेला या बर्मा में आंग सान सू की का रहा है. शर्मिला और बाकी दोनों में एक बड़ा फर्क ये है कि शर्मिला का आंदोलन अब तक गैर राजनीतिक और काफी हद तक निजी रहा है - जिसे समय समय पर लोगों का सपोर्ट मिलता रहा है. हर लंबे आंदोलन की तरह उन्हें भी लोगों का साथ मिलता और छूटता रहा है. दूसरी तरफ, नेल्सन मंडेला और सू की का संघर्ष पूरी तरह राजनीतिक रहा है.

शर्मिला से पहले लोक हित से जुड़े मसलों पर सुंदरलाल बहुगुणा और मेधा पाटकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता भी देश में लंबी और मुश्किल मुहिम चला चुके हैं. अन्ना आंदोलन के वक्त भी मेधा पाटकर समर्थन में आगे आई थीं, लेकिन जैसे ही उन्हें उसके राजनीतिक शक्ल अख्तियार करने की भनक लगी वो दूरी बना लीं.

केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई शुरू की थी. कभी केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे थे. वैसे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई तो राहुल गांधी उनसे पहले से लड़ रहे थे, लेकिन केजरीवाल को देखकर लोगों में नयी उम्मीद जगी थी.

अब क्यों लगने लगा है कि केजरीवाल का मकसद पीछे छूट गया है. केजरीवाल अब अपने कॅरिअर की लड़ाई लड़ रहे हैं. कॅरिअर की लड़ाई कोई गलत बात नहीं है, लेकिन अब लोग क्यों उनसे उम्मीद रखें? लोगों न तो इसके पीछे कोई तर्क समझ आ रहा है, और न ही सवाल का माकूल जवाब मिल रहा है.

इरोम शर्मिला चानू से बड़ी उम्मीदें हैं. शायद, उतनी ही जितनी कभी केजरीवाल से थी, लेकिन ऐसी उम्मीदों से अब डर लगने लगा है!

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