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Updated: 14 जुलाई, 2016 05:21 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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बीते हफ्ते हिजबुल कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद एक बार फिर कश्मीर सुलग उठा है. कर्फ्यू जैसे हालात के बीच सुरक्षा बलों की शांति बहाल करने की कोशिश में अबतक 35 लोगों की मौत हो गई है और सैकड़ों लोग जिंदगी और मौत के बीच अस्पताल में जूझ रहे हैं. इन मृतकों और घायलों के लिए जिम्मेदार इस बार सुरक्षा बलों द्वारा हिंसा को काबू करने के लिए इस्तेमाल की जा रही है वह नकली गोली है जिसका मकसद महज लोगों को डराना है और न कि उनकी जान लेना है. कश्मीर में आतंकवाद के पक्ष में होने वाले विरोध-प्रदर्शन को काबू करने के लिए सुरक्षा बलों ने 2010 में लोहे के छर्रो की बनी गोली (पेलेट) जिसपर प्लास्टिक की परत रहती है, का इस्तेमाल शुरू किया था.

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इसका मकसद प्रदर्शनकारियों को महज घायल कर डराने का था जिससे हालात सुरक्षा बलों के पक्ष में आ जाए. लेकिन हकीकत यह है कि मौजूदा हालात में हुई 35 मौतें इन सुरक्षित माने जाने वाली पेलेट से हुई हैं. इसके अलावा सैकड़ों लोग इन प्लास्टिक की गोलियों से घायल होकर अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच जंग कर रहे हैं. लिहाजा, क्या सुरक्षा बलों द्वारा दंगे की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल की जा रही ये प्लास्टिक की गोलियां अपने मकसद में पूरी तरह से विफल हो चुकी हैं?

क्या प्लास्टिक की गोलियों से मौत हो सकती है?

हां, यह मुमकिन है. यदि इन नकली गोलियों को नजदीक से फायर किया जाए. शरीर के किसी अहम हिस्से जैसे सिर या सीने पर निशाना साध कर मारा जाए. ऐसी स्थिति में गोली से घायल होने वाले शख्स की मौत संभव है. गौरतलब है कि कश्मीर में हालात को काबू करने में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल ऐसी गोलियों का इस्तेमाल कर रही हैं जिसमें बिना प्लास्टिक की परत वाले छर्रे भरे हुए हैं.

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12 बोर की राइफल से दागी जाने वाली इस एक गोली में लगभग 600 लोहे के छर्रे भरे होते हैं और दागे जाने के बाद यह अपने सामने बड़े क्षेत्र में छर्रों की बौछार करती है. इस फायरिंग के दायरे में आने वाले लोगों के सिर और सीनें में एक से ज्यादा छर्रें घुस जाते हैं जिससे उनकी मौत हो जाती है. वहीं सीधे प्रभाव में न आने वाले लोगों की आंक के लिए यह छर्रे बेहद गंभीर साबित होते हैं और लगने के बाद ज्यादातर मामलों में लोगों की आंख में गंभीर चोट लगती है और उनकी आंख की रोशनी हमेशा के लिए चली जाती है. वहीं भारी भीड़ के सामने इस गोली की फायरिंग की चपेट में बड़ी संख्या में लोग आते हैं और ज्यादातर समय भीड़ में इसकी चपेट में आने से बचना लगभग नामुमकिन रहता है.

क्या भीड़ पर काबू पाने के लिए यह कारगर है?

बिलकुल नहीं. बीते एक हफ्ते से कश्मीर में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जहां सुरक्षाबलों द्वारा चलाई गई गोली घरों के अंदर महफूज लोगों को भी निशाना बना लेती है. हालांकि इनसे घायल लोगों का मानना है कि सुरक्षाबल जानबूझकर उनके घरों को निशाना बनाते हैं. वहीं जानकारों का मानना है कि रिहायशी इलाकों में बेकाबू भीड़ पर इस गोली के इस्तेमाल से यह खतरा रहता है कि इससे निकलने वाले छर्रे आसपास के घरों की खिड़की और दरवाजों को भेदकर लोगों को गंभीर चोट पहुंचा सकती है.

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ह्यूमन राइट्स संस्था से जुड़े डॉक्टर्स ऐसी गोली से भीड़े और दंगों को काबू करने पर सवालिया निशान लगाते हैं. उनका मत है कि नजदीक से इस गोली को चलाने पर इसका असर किसी नॉर्मल पुलिस बंदूक से चलाई गई गोली जैसा रहता है और दूर से चलाने की स्थिति में यह उन लोगों को भी घायल कर सकती है जिन्हें सुरक्षाबल निशाना नहीं भी बनाना चाहते हैं.

दुनियाभर में इस्तेमाल होती है ये गोली

अमेरिका में अफ्रीकी मूल के लोगों के द्वारा दंगों और प्रदर्शन के दौरान ऐसी गोलिया का इस्तेमाल किया जा चुका है जिसमें कुछ लोगों की मौत का मामला सामने आया है. इजराइल में पैलेस्टीनियन प्रदर्शनकारियों पर भी ऐसी गोलियों का इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा अर्जेंटीना, बोलिविया, इजिप्ट और कनाडा जैसे देशों में इन गोलियों का इस्तेमाल बेकाबू भीड़ को काबू करने के लिए किया जाता है. वहीं रूस और यूक्रेन जैसे कुछ देशों में आत्मरक्षा के लिए इस गोली का इस्तेमाल करने की छूट आम नागरिकों को भी रहती है.

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अब सवाल यह है कि यदि ऐसी गोली का इस्तेमाल करने के पीछे उद्देश्य साफ-साफ यही है कि किसी की जानमाल को नुकसान न पहुंचे तो फिर इसके नतीजे देखने के बाद भी क्यों इसके इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाई जाती? क्या सुरक्षाबलों के पास इसका कोई और विकल्प नहीं है,क्योंकि सुरक्षित माने जाने वाली यह गोली पूरी में जान लेने के लिए कुख्यात हो चुकी है?

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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