पर्रिकर देश के रक्षा मंत्री हैं, विदेश मंत्री या राजनयिक नहीं
आर्मी की अपनी भाषा होती है, अपनी जबान होती है - और उसे कभी काल या परिस्थिति की परवाह नहीं होती. परवाह होती है तो सिर्फ देश की.
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सड़क की अपनी भाषा होती है. सिनेमा की अपनी भाषा होती है. प्यार की अपनी भाषा होती है. ये सभी अलग और अपनेआप में परिपूर्ण होती हैं.
ठीक वैसे ही राजनीति, कूटनीति और सैन्यनीति की अपनी-अपनी भाषाएं होती हैं. जैसे राजनीति और कूटनीति में देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से मैसेज देने के खास अंदाज होते हैं - आर्मी का भी अपना अलहदा तरीका होता है. वो आर्मी की अपनी भाषा होती है, अपनी जबान होती है - और उसे कभी काल या परिस्थिति की परवाह नहीं होती. परवाह होती है तो सिर्फ देश की.
मुंहतोड़ जवाब के मायने
सैन्यनीति से कूटनीति में शिफ्ट होना इतना आसान भी नहीं होता. केंद्रीय मंत्री वीके सिंह इसकी सदाबहार मिसाल हैं. सुबह से शाम तक सैकड़ों कूटनीतिक हालात से गुजरने के बावजूद ड्यूटी, डिस्गस्ट और प्रेस्टिट्यूट उनके ट्वीट्स में छाए रहते हैं - लेकिन बात जब देश की आती है तो वो यमन के वॉर ज़ोन में भी जांबाज फौजी की तरह फौरन कूद पड़ते हैं. आखिर कितने मंत्री ऐसा करने का साहस जुटा पाएंगे? लेकिन बात वही है - बदलते वक्त के साथ जिम्मेदारियां बदल जाती हैं - अगर कुछ नहीं बदलता है तो अंदर से आनेवाली आवाज का टोन और कामकाज का अंदाज.
फिलहाल मनोहर पर्रिकर अपने कुछ बयानों को लेकर चर्चा में हैं. वो देश के रक्षा मंत्री हैं. फिर उनसे राजनयिकों जैसी बातों की अपेक्षा क्यों हो रही है?
जब सीमापार से स्कड स्टेटमेंट आ रहे हों तो पेट्रियट रिस्पॉन्स तो देने ही पड़ेंगे. आखिर मुंहतोड़ जवाब का मतलब होता क्या है?
पाकिस्तान आर्मी चीफ राहील शरीफ खुलेआम कश्मीर को पार्टिशन का अधूरा एजेंडा बता रहे हैं. ऐसे में जो देश की फौज का नेतृत्व कर रहा है उससे आखिर किस कूटनीति की अपेक्षा होनी चाहिए.
डंके की चोट पर
किसी भी काम में अच्छे नतीजों के लिए बेहतरीन तरीका यही होता है कि काम करने वाला उसी में जीने लगे. पर्रिकर भी तो अपने काम के लिए ही जाने जाते हैं. जब फैसले लेने होते हैं तो पर्रिकर पद के हिसाब से लेते हैं - और निजी समारोहों में शामिल होते हैं तो खाने की टेबल तक लाइन में लग कर पहुंचते हैं. आखिर इन्हीं सब खूबियों, उनकी इमेज और ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए ही तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें गोवा से दिल्ली बुलाया - और रक्षा मंत्रालय का कार्यभार सौंप दिया. क्या अब भी वो मुख्यमंत्रियों जैसे बयान देते रहें?
इंडिया टुडे ग्रुप के खास इवेंट मंथन में पर्रिकर ने डंके की चोट पर कहा था : "पाकिस्तान ही क्यों, कोई देश अगर मेरे देश के खिलाफ कुछ साजिश कर रहा है तो मैं आगे रहकर कदम उठाऊंगा. बिल्कुल, वे सार्वजनिक नहीं होंगे. लेकिन मुझे जो करना है, मैं करूंगा. चाहे वह कूटनीतिक हो या फिर दबाव की रणनीति. या वो उसको बोलते हैं न मराठी में कांटे से कांटा निकालते हैं... हिंदी में भी रहेगा... आप आतंकवादी को आतंकवादी के जरिए ही बेअसर कर सकते हैं."
जबानी जंग भी तो कूटनीति का ही हिस्सा है. आर्मी तो बस फायर और सीज फायर की भाषा समझती है. अब किसी को मिर्ची (आंध्र प्रदेश या कहीं और की) लगे तो लगे तो ये उसकी प्रॉब्लम है.

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