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Updated: 20 अगस्त, 2015 04:22 PM
पंकज शर्मा
पंकज शर्मा
  @pankajdwijendra
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क्रांति सिर्फ भ्रांति होती है, कुछ लोगों की महत्वाकांक्षांओं को सत्ता तक पहुंचाने की संकरी गली जिसके दोनों तरफ आम लोगों के हाथ पसारे ख्वाब खड़े होते हैं. हताशा, निराशा और अनिश्चितता का कुहासा जब व्यवस्था पर हावी होने लगता है और तिलमिलाती ज़िंदगियों में धीरे धीरे बुझ रही उम्मीदों की चिंगारियां जब आखिरी बार छिटक रही होती हैं तब ही कुछ लोग बड़ी चतुराई से उन चिंगारियों को जुगनू बताकर नई रोशनी का दावा ठोंकने लगते हैं और बन जाते हैं – नायक.

जिसको शंका हो वो लोहिया के तथाकथित झंडाबरदारों को देख ले, जेपी आंदोलन से उपजे नायकों को देख ले, वीपी सिंह के स्टारडम को देख ले या हाल ही में देश की सियासत में भूचाल ला देने वाले अन्ना आंदोलन के नायकों को देख ले. कांग्रेस के एकछत्र शासन के खिलाफ राजनीति में विकल्प देने की हुंकार के साथ जेपी मूवमेंट से जो नायक निकले वो आने वाले दिनों में कांग्रेस की गोद में ही बैठ गए, न सिर्फ बैठे बल्कि उनकी निष्ठाएं भी कांग्रेस के साथ जुड़ती चली गईं. लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, शरद यादव जिसकी सबसे मज़़बूत मिसाल हैं. राम मनोहर लोहिया की विरासत के तथाकथित उत्तराधिकारी मुलायम सिंह यादव की तो पूरी केंद्रीय राजनीति ही कांग्रेस की उंगली पकड़ कर चली. लोहिया कांग्रेस के खिलाफ वंशवाद की लड़ाई लड़ते रहे और आज मुलायम सिंह का पूरा कुनबा ही उत्तर प्रदेश पर काबिज है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से जितने भी सांसद हैं, सब परिवारी जन हैं. आजमगढ़ से मुलायम सिंह यादव, कन्नौज से उनकी बहू डिम्पल यादव, बदायूं से भतीजा धर्मेंद्र यादव, मैनपुरी से भतीजा तेज प्रताप यादव.

अभी लोग शायद भूले नहीं होंगे जब 90 के दशक में वीपी सिंह लगभग 25 साल कांग्रेस के साथ रहने के बाद भ्रष्टाचार के नाम पर एक झटके में कांग्रेस के खिलाफ खड़े हो गए और आम लोगों के बीच भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के संकल्प की गर्जना करने लगे. वीपी सिंह आम जनसभाओं में अक्सर अपनी जेब से एक पर्चा निकाला करते थे और कहा करते थे इस पर्चे पर बोफोर्स के दलालों के स्विस एकाउंट्स के नंबर दर्ज़ हैं, जिस दिन सत्ता में आया, इन लोगों को जेल जाना होगा. नारे लगने लगे. राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है. लेकिन इस फकीर ने सत्ता के लिए सारे समझौते किए. भारतीय जनता पार्टी और कम्युनिस्टों की मदद से सरकार चलाना बेहतर समझा और जब सत्ता पर आंच आती दिखी तो बीपी मंडल की 14 सिफारिशों में से सबसे आखिरी सिफारिश पर आरक्षण का मुलम्मा चढ़ाकर देश के बीच पहले से चली आ रही अगड़े और पिछड़ों की खाई को और गहरा कर दिया.

कमोबेश उसी लकीर पर अन्ना के सिपाही चले. राजनीति में नया विकल्प देने के वादे के साथ राजनीति में कदम रखा लेकिन धीरे धीरे विपक्ष बनते चले गए. मौकापरस्ती की राजनीति के सबसे बड़े उदाहरण अरविंद केजरीवाल हैं. पहली बार जब केजरीवाल ने सरकार बनाई तो कांग्रेस की मदद से. लेकिन 49 दिन की सरकार गिरने के बाद बड़ी ही चतुराई से से खुद पाक साफ बताकर कांग्रेस से पल्ला झाड़ लिया और अब जब पूर्ण बहुमत से उनकी दिल्ली में सरकार है तो राजनीतिक विस्तार की महत्वाकांक्षा हिलोरें मार रही है. जनलोकपाल रामलीला मैदान में पड़ा-पड़ा उनकी बाट जोह रहा है. महंगाई अब भी दिल्ली की जेबें फाड़ रही है. बिजली-पानी रुला रहा है. वे नीतीश कुमार के साथ गलबहियां कर रहे हैं, जिनका एक हाथ बिहार में कांग्रेस के साथ है. जिनके साथी भारतीय राजनीति के सबसे भ्रष्ट नेताओं में से एक सजायाफ्ता लालू प्रसाद यादव हैं. लेकिन राजनीतिक विस्तार की महत्वाकांक्षा के आगे केजरीवाल साहब ने काला चश्मा चढ़ा लिया है और वे अपना कदम बढ़ा चुके हैं विकल्प की राजनीति से विपक्ष का एक और घटक होने की तरफ.

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लेखक

पंकज शर्मा पंकज शर्मा @pankajdwijendra

लेखक आजतक न्यूज चैनल में सीनियर प्रोड्यूसर हैं

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