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Updated: 09 मई, 2016 05:57 PM
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नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद को उस वक्त गले लगाया जब कोई हाथ भी मिलाने को तैयार नहीं था. राहुल गांधी ने तो दागी नेताओं वाले ऑर्डिनेंस की कॉपी फाड़ कर इतनी दूर फेंक दी कि मनमोहन सरकार ने इरादा ही बदल दिया. वैसे ही बिहार में कांग्रेस के खड़े होने में नीतीश बैसाखी बन कर आगे आए. कांग्रेस की मदद की कोशिश तो उन्होंने असम में भी की, लेकिन अलाएंस में तरुण गोगोई ही आड़े आ गये.

अभी नीतीश कांग्रेस के मिशन-2017 में मददगार बने हुए हैं, लेकिन हकीकत भी क्या यही है - क्योंकि तस्वीर के दूसरे पहलू पर तो कुछ और ही नजर आता है.

जैसे मोदी, वैसे राहुल

हाल फिलहाल नीतीश ने, बहाने से ही सही, प्रधानमंत्री पद के लिए फिर से अपनी उम्मीदवारी उछाल दी - संघ मुक्त भारत के नाम पर. स्वाभाविक परिस्थितियों के चलते राहुल गांधी का नाम स्पीड ब्रेकर बन कर आगे आ गया.

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जिस तरह 2014 से पहले नीतीश की राह में सबसे बड़े रोड़ा नरेंद्र मोदी थे उसी तरह उनके और 2019 के बीच राहुल गांधी दीवार बन कर खड़े हैं. नीतीश को लग रहा था कि गुजरात दंगों के कारण मोदी को न तो आम लोगों में और न ही एनडीए के सहयोगी दलों में स्वीकार्यता बन पाएगी - हुआ उल्टा मोदी ने ऐसा खेल खेला कि संजीवनी जैसा नो-मार्क्स ऑइंटमेंट मिला - और दाग-धब्बों के नामोनिशान मिटते गये - ऊपर से तो यही दिखता है - अंदर की बात तो केजरीवाल को ही पता होगी - बशर्ते उन्हें नये आरटीआई एप्लीकेशन का जवाब मिल गया हो.

राहुल के बारे में भी फिलहाल नीतीश की मोदी जैसी ही राय होगी. सबसे बड़ी बात तो राहुल के पास अब तक कोई अनुभव नहीं है - अगले तीन साल में जुटा लें, ये बात अलग है. राहुल के नाम पर क्षेत्रीय दलों के नेता राजी हों पाएंगे, मौजूदा हालात में इसकी संभावना कम ही नजर आती है.

इमानदार, अनुभवी, बेदाग

इमानदार, अनुभवी, बेदाग - ये तीनों शब्द नीतीश के मामले में वैसे ही गूंजते हैं जैसे फिल्म मांझी में नवाजुद्दीन कह रहे हों - शानदार, जबरदस्त, जिन्दाबाद. निश्चित रूप से नीतीश भारतीय राजनीति में अपने तमाम समकक्षों के बीच ज्यादा भरोसेवाला चेहरा बन चुके हैं.

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यूं ही नहीं चाणक्य बन जाता हूं मैं...

अगर नीतीश को टक्कर देने वालों के बारे में विचार हो तो अरविंद केजरीवाल का नाम आता है, लेकिन अभी तक वो लीडर कम एक्टिविस्ट ज्यादा नजर आते हैं. ऐसी ही जबरदस्त छवि वाली ममता बनर्जी भी मैदान में डटी हुई हैं लेकिन उनकी तुनकमिजाजी ही उनके साथ लंबा रिश्ता बनाए रखने के मामले में भारी पड़ती है. वैसे केजरीवाल का स्टेटस पंजाब चुनाव के बाद और ममता का विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अपडेट होना है. कहने को तो क्षेत्रीय दलों के नवीन पटनायक, जे जयललिता और एन चंद्रबाबू नायडू भी मैदान में हैं - लेकिन उनकी अखिल भारतीय स्वीकार्यता मुश्किल लगती है.

कांग्रेस ने बतौर पीएम कैंडिडेट नीतीश को भले ही खारिज कर दिया हो, उसके सहयोगी कद्दावर नेता शरद पवार ने तो नीतीश को बड़ी ही मजबूती के साथ एनडोर्स किया है.

और प्रशांत तो हैं ना...

प्रशांत किशोर को नीतीश ने अब तक नहीं छोड़ा है. शायद इसलिए कि जब तक वो मोदी की तरह नीतीश की नाव भी पार नहीं लगा देते उनका मिशन पूरा नहीं माना जाएगा.

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प्रशांत किशोर छिटक न जाएं इसलिए नीतीश ने उन्हें कैबिनेट रैंक वाले जेडीयू मार्का फेविकोल से जोड़ रखा है. नीतीश को मालूम था कि पीके ने बीजेपी से दूरी क्यों बनाई. प्रशांत को बीजेपी वो नहीं दे पाई जो वो मांग रहे थे. नीतीश ने पहले से ही तय कर रखा था और वक्त आते ही - तोहफा भेंट कर दिया. वो भी उस टर्म्स कंडीशन के साथ कि वो चाहें तो दूसरों का भी कैंपेन पूरे मन से संभाल सकते हैं.

ऊपरी तौर पर देखने से तो ऐसा ही लग रहा है कि नीतीश कुमार कांग्रेस की मदद कर रहे हैं. यूपी में जेडीयू के खाते में कुछ खास हासिल तो होना नहीं, उसके सदस्यों में विस्तार के सिवा. ऐसे में अगर यूपी में महागठबंधन बनता है तो उसका सीधा फायदा कांग्रेस को ही मिलने वाला है. माना जाता रहा कि कांग्रेस के दबाव में ही लालू प्रसाद ने नीतीश को महागठबंधन का नेता घोषित किया और उसी की बदौलत वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए और अपने जानी दुश्मन मोदी को शिकस्त दे पाए.

लेकिन क्या नीतीश के एक्शन प्लान में बस इतना ही है? ऐसा नहीं लगता कि नीतीश अपने फायदे के लिए कांग्रेस को यूज कर रहे हैं - शायद वो दिन भी देखने को मिले जब खुद पीएम न बन पाने की स्थिति में वो कांग्रेस को भी वैसे ही छोड़ दें जैसे बीजेपी को छोड़ दिया था. बाद में अगर जरूरत हो तो किसी ऐसे दल से हाथ मिला लें जो उनकी राह आसान बनाने में कारगर हो - भले ही वो बीजेपी ही क्यों न हो. पहले की बात और है, लेकिन दो दशक बाद लालू से दोस्ती करने के बाद तो ये बात सोची ही जा सकती है. "है कि नहीं?"

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