New

होम -> सियासत

 |  3-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 11 जून, 2015 12:35 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

उस वक्त नीतीश कुमार की उम्मीदवारी पर असमंजस की स्थिति बनी हुई थी. तभी पटना में जगह जगह कुछ पोस्टर लगाए गए. ये पोस्टर नीतीश की ब्रांडिंग में शुरुआती कदम थे. माना ये भी गया कि नीतीश कुमार ने इन पोस्टरों के जरिए प्रेशर टैक्टिस अपनाई. वैसे नतीजा आते देर न लगी.

पटना में लगा ये पोस्टर गौर करने लायक है. लिखा है - 'आगे बढ़ रहा बिहार, फिर एक बार नीतीश कुमार.'

nitish-poster-patna__061115123538.jpg
ये पोस्टर पटना में लगा है

क्या ये 2014 के लोक सभा चुनावों में छाए रहे स्लोगन 'अबकी बार मोदी सरकार' की याद दिला रहा है?

पूरी तरह तो नहीं, लेकिन काफी हद तक. वैसे ये बात तो सबको मालूम हो ही गई है कि प्रशांत किशोर ही नीतीश कुमार के चुनाव अभियान की कमान संभाले हुए हैं. मूल रूप से बिहार के ही बक्सर के रहने वाले प्रशांत किशोर वही शख्स हैं जिन्होंने मोदी के इलेक्शन कैंपन को अमेरिकी चुनावों की तर्ज पर आगे बढ़ाया. नतीजा सामने है.

दोनों कैंपेन में कितना फर्क

मोदी के चुनाव अभियान में 'चाय पे चर्चा' प्रशांत किशोर की टीम का सफल कंसेप्ट रहा. नीतीश के लिए उसकी जगह 'ब्रेकफास्ट विद सीएम' कार्यक्रम शुरू होने जा रहा है. इसी तरह 'बिहार लेक्चर सीरीज', 'जिज्ञासा' और 'गौरव गोष्ठी' जैसे प्रोग्राम भी चलाए जाने हैं.

मोदी कैंपेन की कामयाबी तो दुनिया देख चुकी है. एक ही तरीका हर बार कारगर होगा, इसकी गारंटी नहीं होती. नीतीश का अभियान अभी शुरू होना है. अभी से उसके बारे में बड़ी उम्मीदें करना भी बहुत सही नहीं होगा.

मोदी और नीतीश में भी फर्क

लोक सभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार भी खुद को एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार मानते थे. ये नीतीश ही थे जिन्होंने एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा का मसला उठाया. वक्त के साथ मोदी के बढ़ते कद के चलते नीतीश रेस में न सिर्फ पिछड़ गए बल्कि चुनाव में हार की तोहमत तक झेलनी पड़ी. हालत ये हो गई कि नीतीश को मुख्यमंत्री पद से छुट्टी तक लेनी पड़ी - और ड्यूटी ज्वाइन करने में उन्हें कितने पापड़ बेलने पड़े सबने देखा ही है.

जैसे जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती गई, मोदी आक्रामक रुख अख्तियार करते गए. एक वक्त ऐसा आ गया कि मोदी समझाने लगे कि लोग बीजेपी को भूल जाएं और मोदी को वोट दें. सिर्फ मोदी के नाम पर वोट दें. वहीं से ब्रांड मोदी बोलने लगा - और फिर तो सिर चढ़कर बोलने लगा.

जहां तक रास्ते की मुश्किलों को देखें तो न तो मोदी की मुश्किलें कम थीं, न नीतीश की ज्यादा हैं. मोदी को पार्टी में ही अपने विरोधियों से संघर्ष कर उन्हें पछाड़ना पड़ा. नीतीश के लिए पार्टी में तो नहीं लेकिन गठबंधन में वैसी ही चुनौतियां हैं. कभी पार्टी में चुनौती बने जीतन राम मांझी अब बाहर से चुनौती बनने जा रहे हैं.

नीतीश के सामने चुनौतियां

नीतीश को बिहार के लोगों को अभी समझाना होगा कि वो उन्हें वोट दें. वोट दें तो क्यों दें? लालू को अब भी डर है कि उनका यादव वोट बैंक नीतीश को वोट नहीं देगा. इसी तरह नीतीश अभी इतने सक्षम नहीं दिख रहे कि अपनी बिरादरी का पूरा वोट बटोर सकें. उपेंद्र कुशवाहा की बदौलत बीजेपी नीतीश के अपने वोट भी काटेगी ही. नीतीश की ब्रांडिंग में एक बड़ी बाधा ये भी है कि उन्हें लोगों को ये भी समझाना होगा कि लालू के जिस शासन को वो 'जंगलराज' कहा करते थे अब कैसे उसको सही ठहरा रहे हैं.

ब्रांड नीतीश की मंजिल दूर तो नहीं पर राह बेहद मुश्किल है. नीतीश के ताजा तौर तरीकों को मोदी और केजरीवाल से जोड़ कर देखा जा रहा है - लेकिन 'कॉपीकैट' हर जगह काम नहीं आता. न तो विधान सभा चुनाव लोक सभा जैसे होते हैं - और न ही पटना किसी भी तरीके से दिल्ली जैसा है.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय