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Updated: 24 अक्टूबर, 2016 06:10 PM
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बारी बारी सब हल्के हो लिये - बोलते बोलते किसी के आंसू छलक पड़े तो किसी ने मजबूती से रोक भी लिया. लेकिन क्या ये आंसू उनकी दिल की जबान थे?

दोनों ही स्थितियों में जब परिवार में सियासत चल रही हो या फिर सियासत को परिवार चला रहा हो, यकीन करना मुश्किल भी होता है और कनफ्यूजन भी - ये अपनी अपनी खुशियों के हैं या दर्द के?

रोने-धोने के बीच ही कहासुनी से लेकर हाथापाई तक की खबरें भी आई हैं. यूपी के सबसे बड़े शाही परिवार पर ग्रहों की बुरी नजर है - और ऐसे में परिवार को बचाने के लिए ग्रह शांति जरूरी है.

बाप-बेटा या चाचा-भतीजा?

समाजवादी परिवार में ग्रह शांति तभी हो पाएगी जब कुछ संकटमोचक एक्टिव हों. ये संकटमोचक ही पार्टी में उठापटक करने वालों को काउंटर कर पाएंगे. इन संकटमोचकों को सबसे पहले ये समझना होगा कि ये लड़ाई वास्तव में बाप-बेटे के बीच है या फिर चाचा-भतीजे के बीच? लेकिन इसे समझना भी इतना आसान नहीं है.

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अगर लगता है कि लड़ाई बाप बेटे की है तो मुलायम ने सबसे बड़ी बात तो यही कह दी कि मुख्यमंत्री अखिलेश ही रहेंगे. यानी शिवपाल यादव की वो अर्जी भी खारिज हो गई कि अब वो वक्त आ गया है जब नेताजी खुद कुर्सी संभालें? फिर तो नहीं लगता कि ये बाप-बेटे की लड़ाई है. लेकिन जिस तरह से अखिलेश ने दो अलग-अलग बातें एक साथ की, उससे तो झगड़ा खत्म होना मुश्किल ही है.

खूंटा तो वहीं...

अगर कहीं से अखिलेश की मजबूरी नहीं रही तो मुलायम सिंह की मीटिंग में उनके पहुंचने का निर्णय काफी मैच्योर फैसला रहा. अपनी बात रखने के लिए उन्होंने उस प्लेटफॉर्म का सही इस्तेमाल किया. निश्चित तौर पर इससे उन लोगों को झटका लगा होगा जो दोनों के बीच गलतफहमी फैलाकर फायदा उठा रहे हैं.

लेकिन अखिलेश का भी दावा झगड़ा कर रहे उन्हीं भाइयों की तरह है जो कहते हैं कि पंचों की बात तो उनके लिए सर्वोपरि है - लेकिन खूंटा वहीं गड़ेगा जहां वो चाहते हैं.

अखिलेश ने भी बिलकुल उसी अंदाज में गुगली फेंकी कि नेताजी आदेश करें तो वे इस्तीफा दे देंगे - लेकिन टिकट तो वो खुद ही बांटेंगे. अपनी अपनी मनमर्जी के लिए अखिलेश भी वहीं चालें चल रहे हैं जैसी शिवपाल चल रहे हैं. जिस तरह शिवपाल कह रहे हैं नेताजी के खून पसीने की मेहनत को मिट्टी में नहीं मिलने दूंगा, उसी तरह अखिलेश भी बोल रहे हैं - पिता ने ही अन्याय के खिलाफ लड़ना सिखाया है - पार्टी को बर्बाद नहीं होने देंगे.

बात ले देकर वहीं पहुंच जाती है जहां से शुरू हुई थी. मीटिंग में बुलाकर मुलायम चाचा-भतीजे को गले मिलवाते हैं और कुछ ही देर में दोनों माइक की छीनाझपटी से लेकर हाथापाई तक पर उतर आते हैं.

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सियासत की राहों में चलना संभल संभल के...

शिवपाल अखिलेश को झूठा बताते हैं तो खुद अपनी बात को सच कहने के लिए गंगाजल लेकर और बेटे की कसम खाने तक की बात करते हैं. खबरें बता रही हैं कि मुलायम भी अखिलेश पर मुस्लिम विरोधी होने का इल्जाम लगा देते हैं और इस पर अखिलेश का सबूत मांगना तो बनता ही है. मुलायम एक चिट्ठी का जिक्र करते हैं और आशु मलिक को मंच पर बुलाया जाता है. फिर धक्का मुक्की होती, कहते हैं अखिलेश ने आशु मलिक को वैसे ही धकियाया जैसे एक सार्वजनिक मंच पर अतीक अंसारी को किये थे.

आशु मलिक पर अखिलेश के गुस्से की भी अपनी वजह है. जब से आजम खां ने अमर सिंह के चलते पाला बदल लिया है और अखिलेश के पक्ष में बोलने लगे हैं - शिवपाल ने आशु मलिक को खड़ा कर दिया है. आशु मलिक भी मौके का पूरा फायदा उठा रहे हैं. जब उदयवीर चिट्ठी लिख कर मुलायम की दूसरी पत्नी के साजिश की बात करते हैं तो आशु मलिक आगे बढ़ कर मोर्चा संभालते हैं.

मुलायम को भी ये समझना होगा कि आखिर ये नौबत कैसे आ जाती है कि एक एमएलसी चिट्ठी लिख कर उन पर पर्सनल अटैक कर बैठता है. ऐसा अटैक जैसा न तो कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने किया, न लालकृष्ण आडवाणी ने और न ही पक्के विरोधी कल्याण सिंह ने. अगर ऐसा हो भी गया तो क्या उसका जवाब किसी और विधायक द्वारा दिलवाना चाहिए? जब तक मुलायम ऐसी बातों की गंभीरता को नहीं समझेंगे अपनी रोटी सेंकने वाले फलते फूलते रहेंगे.

वरना खुद मोर्चा संभाल भी लें तो...

वैसे तो सौ सुनार की, एक लुहार की. मुलायम सिंह ने एक तरीके से आखिरी मुहर लगा दी है कि अब भी और आगे भी सीएम और समाजवादी पार्टी का चेहरा अखिलेश यादव ही होंगे. फिर तो झगड़ा खत्म समझ लेना चाहिये, अगर 'जो नेताजी कहेंगे वही होगा' कहने वाले भी इस बात को मान लें और वो उनके व्यवहार में भी दिखे.

अब अगर इतने पर भी मुलायम की बात का असर नहीं होता तब तो वाकई एक ही रास्ता बचता है - मुलायम कमान ऐसे संभालें कि लोगों को उसका अहसास भी हो.

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ये तो साफ है कि अगर मुलायम खुद मोर्चा संभालें तो चुनाव में कार्यकर्ता भी पूरे मन से काम करेंगे. अगर ऐसा हुआ तो पार्टी तो बची ही रहेगी यादव वोट के बंटने और मुस्लिम वोट के छिटक जाने का खतरा भी टल जाएगा. वैसे ये सब उतना आसान भी नहीं है जितना लगता है. विरोधी फिर से हल्ला बोल सरकार का खतरा बताकर मुलायम को बचाव की मुद्रा में ले जाएंगे - कहेंगे 'अच्छा लड़का' अखिलेश को काम नहीं करने दिया गया - फिर आगे क्या हाल होगा?

बेहतर तो यही है कि मुलायम खुद शिवपाल को संभालें और अखिलेश को समझाएं कि वो बेफिक्र होकर काम करें. जो बातें मुलायम पहले कहा करते थे उन पर अखिलेश को अमल करने से न रोकें. ये मुलायम ही तो थे जो अखिलेश को चापलूसों से घिरे न रहने - और कड़े फैसले लेने की नसीहत देते रहते थे - अब अगर अखिलेश ने कड़े फैसले लिये तो मुलायम कह रहे हैं कि सत्ता मिल जाने के बाद अखिलेश का दिमाग खराब हो गया है. भला ऐसे कैसे चलेगा.

अखिलेश भी हालात को समझें - अगर अखिलेश चाहें तो भी रातों रात हल्ला बोल की छवि से निजात नहीं दिला सकते. हकीकत को सभी पक्ष जितना जल्दी समझ लें बेहतर होगा.

कहने को तो सभी ने अपनी अपनी बातें कह दी - चाहे रोकर, चाहे धमका कर, चाहे जिद कर. जिन कसमें, वादे प्यार वफा को फिल्मी दुनिया में 'बातें हैं बातों का क्या' समझा जाता है समाजवादी पार्टी में भी वैसा ही समझा जाने लगा है.

समाजवादी पार्टी का झगड़ा कुछ देर के लिए भले शांत नजर आए, हकीकत ये है कि वो जहां का तहां ही है - और ये तब तक खत्म नहीं होगा जब तक झगड़े की जड़ पर वार न हो.

मुलायम की मजबूरी ये है कि अगर सर्जरी करें तो दिल पर असर होगा और सर्जिकल स्ट्राइक करें तो पार्टी पर. बेहतर यही होगा कि मुलायम चुनाव तक जैसे भी मुमकिन हो बैलेंस बनाये रखें - वरना, जनता का सर्जिकल स्ट्राइक बहुत भारी पड़ेगा.

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