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Updated: 16 नवम्बर, 2022 09:27 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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गुजरात चुनाव में आदिवासी वोटर को लुभाने का सिलसिला तो काफी पहले से चल रहा है, अब तो रेस ज्यादा ही तेज हो चली है. 90 के दशक से पहले आदिवासी वोटर पर सिर्फ कांग्रेस का असर हुआ करता था, लेकिन फिर बीजेपी ने सेंध लगा दी - और अब ये काम करने की कोशिश दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) कर रहे हैं.

गुजरात विधानसभा की 27 सीटें ST कैटेगरी की यानी आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं और माना जाता है कि करीब करीब इतनी ही अन्य सीटों पर भी आदिवासी वोटर का ही प्रभाव है. 2017 में आरक्षित सीटों में सबसे ज्यादा 15 सीटें जीती थी. कांग्रेस के बाद बीजेपी ने 8 सीटें और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने वाली भारतीय ट्राइबल पार्टी की दोनों सीटें आदिवासी इलाके से ही मिली थीं.

गुजरात के 15 फीसदी आदिवासी वोट बैंक के लिए कांग्रेस तो अपने आदिवासी नेताओं की अपने समुदाय में पैठ के भरोसे चल रही है. आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल जहां 'आदिवासी संकल्प सम्मेलन' के जरिये इलाके में पांव जमाने की कोशिश कर रहे हैं, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ‘गुजरात आदिवासी गौरव यात्रा’ के जरिये आदिवासी लोगों को जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं.

बीजेपी को भी लगने लगा है कि बगैर आदिवासी समुदाय के सपोर्ट मिले, वैतरणी पार होना मुश्किल है. पिछले चुनाव में अगर आदिवासी क्षेत्रों में कांग्रेस की जगह बीजेपी को वोट मिल गये होते तो कड़े संघर्ष की जरूरत नहीं पड़ती, लिहाजा बीजेपी ने इस बार पहले से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को सामने लाकर खड़ा कर दिया है.

पंचायत आज तक कार्यक्रम में गुजरात बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल ने माना भी कि असल मायने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही बीजेपी के ब्रह्मास्त्र हैं - क्योंकि चुनावों में उनका चेहरा बीजेपी को हर तरह से फायदा पहुंचाता है.

सीआर पाटिल तो यहां तक कहते हैं, अगर हम गलती भी करते हैं तो मोदी की वजह से लोग हमें माफ कर देते हैं... नाराज होते हुए भी वो हमे माफ कर देते हैं... ये एक प्लस प्वाइंट है... मोदी की लोकप्रियता ऐसी है कि जनता उनके हाथ मजबूत करने के लिए भी बीजेपी को वोट दे देती है.

जो माहौल बना हुआ है, गुजरात का आदिवासी वोटर ये तो समझ चुका है कि हर राजनीतिक दल का ज्यादा जोर उसे रिझाने और फिर वोट हासिल करने पर है, लेकिन सवाल ये है कि आदिवासी समुदाय पर असर किसका ज्यादा होने जा रहा है - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का, अरविंद केजरीवाल का या फिर कांग्रेस (Congress) के स्थानीय नेताओं का?

आदिवासी फ्रंट पर मोदी ने मोर्चा संभाला

ये तो राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ही मालूम हो गया था कि आने वाले चुनावों में बीजेपी की नजर आदिवासी वोटों पर है. ये क्रेडिट तो बीजेपी ले ही चुकी है कि पहली बार किसी आदिवासी नेता तो राष्ट्रपति भवन तक पहुंचने में मददगार बनी है - वैसे भी एडवांस में किये गये ऐसे उपाय चुनावी मौसम में फसल काटने के लिए ही तो होते हैं.

ये भी संयोग ही है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का हाल फिलहाल आदिवासी इलाकों में दौरे का कार्यक्रम भी बना हुआ है - और जाहिर है बीजेपी ऐसे मौके का फायदा उठाने में तो कोई भी चूक करने से रही. गुजरात में बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ‘गुजरात आदिवासी गौरव यात्रा’ निकाल कर आदिवासी वोटर को ही तो साधने की कोशिश कर रहे हैं.

arvind kejriwal, rahul gandhi, narendra modiरिझाने की कोशिशें तो बहुत हो रही हैं, देखना है आदिवासियों का रुझान किस तरफ है?

दक्षिण गुजरात में जब तक आदिवासियों का अच्छा समर्थन नहीं मिला, बीजेपी के लिए सत्ता में वापसी के लिए पांच साल पहले जैसा ही संघर्ष करना पड़ सकता है. तभी तो बीजेपी की भारी भरकम टीम को आदिवासी इलाके के मोर्चे पर पहले से ही झोंक दिया गया है. टीम में केंद्रीय मंत्री, सांसद और गुजरात सरकार के मंत्री और विधायक घूम घूम कर लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि कैसे द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बना कर बीजेपी ने आदिवासी समुदाय को ऐतिहासिक गौरव दिलायी है. साथ ही, आदिवासी लोगों के जीवन स्तर में सुधार के लिए केंद्र और राज्य सरकार मिल कर काम कर रहे हैं - मतलब, बहाने से डबल इंजिन सरकार की अहमियत भी समझायी जा रही है.

बीजेपी को एक दिक्कत जरूर हो रही है क्योंकि आदिवासी समुदाय अपने समुदाय के नेता की राजनीतिक भाषा ही ठीक से समझ पाता है. कांग्रेस के पास अनंत पटेल एक ऐसे ही नेता हैं, बीजेपी की कोशिश कांग्रेस को चारों तरफ से घेरने की है - और प्रधानमंत्री मोदी का शुरू से ही इसी बात पर सबसे ज्यादा जोर नजर आता है.

जैसे ही आदिवासी समुदाय के लोगों के बीच प्रधानमंत्री मोदी पहुंचते हैं, कांग्रेस ही उनके निशाने पर होती है. घुसपैठ तो अरविंद केजरीवाल की भी महसूस की जा रही है, लेकिन कांग्रेस का नाम लेकर हो सकता है मोदी अपनी तरफ से केजरीवाल को नजरअंदाज करने की कोशिश कर रहे हों. चुनावों में बीजेपी की ये स्ट्रैटेजी तो अक्सर ही देखने को मिलती रही है.

प्रधानमंत्री मोदी आदिवासी लोगों से कनेक्ट होने के प्रयास में कहते हैं, 'एक तरह कांग्रेस की तो दूसरी तरफ बीजेपी की सरकार देख लीजिये... कांग्रेस के नेताओं ने आदिवासी समाज का सिर्फ मजाक उड़ाया... पहले की सरकार को आपकी नहीं, आपके वोट की चिंता हुआ करती थी.'

वैसे मोदी की ये बात आदिवासी समुदाय को थोड़ा कन्फ्यूज भी कर सकती है. आखिर प्रधानमंत्री मोदी पहले वाली किसकी सरकार की बात कर रहे हैं? अगर वो गुजरात की कांग्रेस सरकार की तरफ इशारा कर रहे हैं तो वो तो 27 साल से भी ज्यादा पहले की बात है. और अगर वो केंद्र की कांग्रेस सरकार की नीतियों की याद दिलाना चाहते हैं, तो भी दोबारा सत्ता में आने के बाद पिछली सरकारों को दोष देने का क्या मतलब रह जाता है? ये तो बिहार में साल दर साल होने वाली हर चुनावी रैली में लालू-राबड़ी शासन को 'जंगलराज' और माफी मांग चुके नयी पीढ़ी के नेता तेजस्वी यादव को 'जंगलराज का युवराज' बताने जैसा ही है.

प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, '... लेकिन भाजपा की सरकार में आदिवासी समाज का कल्याण हुआ... एक समय यहां के लोग रात में खाना खाने के लिए बिजली को खोजा करते थे, लेकिन भाजपा की सरकार ने पूरे डांग जिले में ज्योतिग्राम योजना के अंतर्गत चौबीस घंटे बिजली की व्यवस्था की... आदिवासी क्षेत्रों में खेती के विकास के लिए ढेरों योजनाएं लायी गयीं.'

बीजेपी सरकार के काम गिनाते हुए प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, वलसाड में खूब बारिश होती है, लेकिन सारा पानी बह जाता था... कांग्रेस नेताओं ने उसके लिए भी कभी कोई काम नहीं किया... भाजपा ने वे सारे काम किये जिससे ऊकाई डैम योजना का लाभ आदिवासी लोगों को मिल सके.

मोदी की लोकप्रियता भुनाने की बीजेपी चाहे जैसे और जितनी भी कोशिश करे, लेकिन ये काम तो 2017 में भी हुआ ही था. गुजरात में तो कांग्रेस से संघर्ष में कड़ा मुकाबला तो करना ही पड़ा, आदिवासी इलाकों में तो कांग्रेस के आगे बीजेपी की दाल नहीं ही गल पायी - क्या इस बार आदिवासी लोगों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातों को कोई खास असर होने जा रहा है?

बीजेपी और कांग्रेस में कड़ा मुकाबला

बीजेपी नेतृत्व के लिए आदिवासी इलाकों में पैठ बनाने में सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस के युवा विधायक अनंत पटेल हैं, जो दीवार बन कर खड़े हो जा रहे हैं. अनंत पटेल दक्षिण गुजरात के नवसारी जिले की वंसदा सीट से विधायक हैं - और विधानसभा में कांग्रेस की तरफ से विपक्ष की सबसे ज्यादा मजबूत विरोध की आवाजों में से एक माने जाते हैं.

अनंत पटेल की ताकत का अंदाजा समझने के लिए एक ही वाकया काफी है. केंद्र की बीजेपी सरकार ने पार, तापी और नर्मदा नदियों को जोड़ने की एक परियोजना का इसी साल बजट में प्रावधान किया गया था, लेकिन अनंत पटेल ने ऐसा आंदोलन चलाया कि बीजेपी करीब करीब वैसी ही हिली हुई नजर आयी जैसा कि किसानों के दबाव में कृषि कानूनों को लेकर देखा गया था.

कांग्रेस विधायक अनंत पटेल ने ये कह कर विरोध शुरू कर दिया कि प्रोजेक्ट के जरिये हमारी जमीनें छीन ली जाएंगे... हम अपने घरों और खेतों से बाहर हो जाएंगे... हम कंक्रीट के जंगलों में नहीं बल्कि कुदरती जंगलों में ही रहना चाहते हैं. अनंत पटेल ने विरोध के लिए जागरुकता अभियान चला दिया और देखते ही देखते पूरे इलाके में बैठकें होने लगीं जिनमें महिलाओं और बच्चों के साथ लोगों की भीड़ जुटने लगी थी.

जब विरोध के स्वर गांधीनगर तक पहुंचने लगे तो गुजरात बीजेपी के नेता हद से ज्यादा परेशान होने लगे. थक हार कर गुजरात बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल और मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल को केंद्र सरकार से परियोजना वापस लेने की सिफारिश करनी पड़ी - हाल तो परियोजना का भी कृषि कानूनों का ही हुआ, बस ये बात किसी ने नहीं कही कि 'तपस्या में ही कोई कभी रह गयी' होगी.

महीना भर पहले की ही बात है, जब अनंत पटेल पर हुए हमले के का मामला भी काफी तूल पकड़ लिया था. तब अनंत पटेल का कहना रहा कि जब वो नवसारी में एक सभा के लिए जा रहे थे तभी कुछ लोगों ने उनको पीटा और कार में तोड़ फोड़ की. अनंत पटेल के मुताबिक, हमलावर कह रहे थे कि वो आदिवासियों के नेता बन रहे हैं इसलिए उनको बख्शा नहीं जाएगा - किसी आदिवासी को यहां नहीं चलने देंगे.

अनंत पटेल पर हमले के खिलाफ तो समर्थकों ने इलाके में कोहराम ही मचा दिया था. विरोध में भीड़ जमा हो गयी और एक दुकान में आग लगाने के साथ ही मौके पर पहुंची फायर ब्रिगेड की गाड़ी में भी तोड़फोड़ कर डाली थी - आदिवासियों के लिए लड़ने वाले अनंत पटेल पर हुआ हमला भी बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.

गुजरात में चुनाव प्रचार करेंगे राहुल गांधी: हिमाचल प्रदेश चुनाव से पूरी तरह दूर रहे राहुल गांधी के बारे में सुनने में आ रहा है कि वो गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए जाने वाले हैं. खबर आई है कि भारत जोड़ो यात्रा से ब्रेक लेकर राहुल गांधी 22 नवंबर को गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए जाएंगे. गुजरात में 1 और 5 दिसंबर को वोटिंग होनी है और नतीजे उपचुनावों के साथ ही 8 दिसंबर को आने की अपेक्षा है.

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा सहित कांग्रेस के तमाम नेता हिमाचल प्रदेश में खासे एक्टिव देखे गये, लेकिन गुजरात में कांग्रेस स्थानीय नेताओं पर इस बार ज्यादा भरोसा कर रही लगती है. दिल्ली से सोनिया गांधी ने अशोक गहलोत सहित करीबी नेताओं की टीम जरूर लगा रखी है, लेकिन राहुल गांधी तो रस्मअदायगी के लिए बस हाजिरी लगाने जा रहे हैं, ऐसा ही लगता है.

केजरीवाल अलग ही अंगड़ाई ले रहे हैं

अव्वल तो अरविंद केजरीवाल से परेशान कांग्रेस को होना चाहिये, लेकिन बीजेपी ज्यादा ही चिंतित लग रही होगी. प्रधानमंत्री मोदी भले ही केजरीवाल और उनकी पार्टी को इग्नोर कर रहे हों, लेकिन वो तो बीजेपी के खिलाफ ही हाथ धोकर पीछे पड़े हैं.

'आदिवासी संकल्प सम्मेलन' के दौरान अरविंद केजरीवाल ने बीजेपी पर 27 साल में गुजरात को बदहाल कर देने का आरोप लगाया - और दोहराया कि गुजरात में सरकार बनने की सूरत में वो दिल्ली और पंजाब जैसा गवर्नेंस मॉडल लागू करेंगे. पहले भी अरविंद केजरीवाल कई चीजों की गारंटी दे चुके हैं, लेकिन ये सब तो तब लोगों को समझ में आएगा जब किसी को लगे कि आम आदमी पार्टी भी गुजरात में सत्ता की बराबर की दावेदार है.

फिर भी 'वचनं किम् दरिद्रम्' वाले अंदाज में अरविंद केजरीवाल समझाते हैं, गुजरात में एक करोड़ से ज्यादा आदिवासी हैं... देश के सबसे अमीर दो आदमी और सबसे गरीब आदिवासी - दोनों गुजरात से ही हैं. और फिर अरविंद केजरीवाल भी राहुल गांधी वाले अंदाज में ही बीजेपी और लीडरशिप को जी भर खरी खोटी सुनाने हैं.

कुछ दिन पहले अरविंद केजरीवाल ने वडोदरा में आदिवासी समाज के लिए कुछ योजनाओं की गारंटी का ऐलान किया था, जिसमें फ्री बिजली और बेरोजगारों को नौकरी देने की गारंटी की बात कही गयी थी. साथ ही, आदिवासियों के हर इलाके में स्कूल, मोहल्ला क्लीनिक, अस्पताल, सड़क और बेघर आदिवासियों के लिए आवास की गारंटी दी थी - और आदिवासियों के लिए पेसा कानून लागू करने के वादे के साथ ही TAC यानी ट्राइबल एडवाइजरी कमेटी का चेयरमैन भी आदिवासी समुदाय से ही बनाने का वादा कर रखा है.

देखा जाये तो गुजरात के आदिवासी समुदाय के बीच अनंत पटेल के माध्यम से राहुल गांधी, खुद अरविंद केजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने अपने तरीके से रिझाने की कोशिश कर रहे हैं - और अब देखना है कि आदिवासी लोग सुनते किसकी बात हैं?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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