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Updated: 02 सितम्बर, 2015 07:36 PM
पंकज शर्मा
पंकज शर्मा
  @pankajdwijendra
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आरक्षण के पलीते में फिर आग लगी है. इस आग को बारूद तक पहुंचाने की कोशिशों ने फिर सिर उठाया है. सोशल नेटवर्किंग साइट्स से लेकर गली-मुहल्लों, चौक-चौराहों पर फिर से आरक्षण का जिन्न प्रगट हुआ है. आक्रोश और नफरत की तलवारें अपनी अपनी म्यान में फिर से बाहर निकलने का इंतज़ार कर रही हैं. ये लड़ाई सदियों से थी लेकिन इसने करीब 100 साल पहले से खतरनाक रूप लेना शुरू कर दिया था. वर्तमान को समझने के लिए आइए अतीत की गलियों में चलें.

1857 की लड़ाई में बहादुर शाह ज़फर को बादशाह बनाने के नाम पर हिंदू मुसलमान एक साथ हुए और अंग्रेज़ों के खिलाफ एक साथ लड़ाई लड़ी. अंग्रज़ों के लिए ये चिंता की बात थी... लिहाज़ा वायसराय कर्जन ने मुसलमानों के लिए अलग मतदान की व्यवस्था का सवाल उठा कर बंगाल को बांट दिया. कर्जन के बाद लॉर्ड मिंटो ने वायसराय की गद्दी संभाली. मिंटो ने इस मसले पर विशेष रुचि दिखाई और मुसलमानों का एक संगठन अक्टूबर 1906 को वायसराय से मिला, जिसकी अगुवाई आगा खां ने की थी. इस संगठन ने मांग उठाई कि साम्राज्य में उनके योगदान और राजनीतिक महत्व को देखते हुए प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जाए और ऐसा करते वक्त उनकी 100 वर्ष पूर्व की स्थिति को मद्देनज़र रखा जाए. और मुसलमानों को अपना अलग मतदान करके अपना प्रतिनिधि चुनने का हक मिले. 100 वर्ष पूर्व की स्थिति से उनका आशय ये था कि ब्रिटिश सरकार ये न भूले कि मुस्लिमों के हाथ शासन की बागडोर रही है.
मिंटो ने इस प्रस्ताव के पक्ष में अपनी सहमति जताई. इसका नतीजा कुछ सालों में ये हुआ कि जो लड़ाई अंग्रेजी हुकूमत बनाम जनता थी वो लड़ाई हिंदू बनाम मुस्लिम में बंट गई.

ये प्रयोग कारगर होते देख 1911 की जनगणना में अनुसूचित जाति और जनजातियों को हिंदुओं से अलग दर्ज़ किया गया जिन्हें हिंदुओं से अलग सर्वात्मवादी कहा गया. ये पहली दरार थी जिसने हिंदुओं को बांटने का काम किया. 1931 में सर्वात्मवाद, जनजातीय धर्म में बदल गया. साइमन कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में जनजातियों के अलगाव को मान्यता दे दी. महात्मा गांधी अंग्रेज़ों की इस चाल को समझ रहे थे और इसका अंजाम भी समझते थे, क्योंकि चंपारण प्रवास के दौरान उन्होनें जो छुआछूत देखा था उसके परिणाम अगर जातीय संघर्ष में बदलते तो कितने खतरनाक हो सकते थे इसका अंदाज़ा उन्हें बखूबी था। 1931 में हुए गोलमेज सम्मेलन में मुस्लिमों, अछूतों, रजवाड़ों और उद्योगपतियों के प्रतिनिधि मौजूद थे. गांधी जी नहीं चाहते थे के इस मंच पर अनुसूचित जातियों के अलग मतदान और अधिकारों की बात चले, लेकिन वे इसे रोक नहीं पाए. अंग्रेजों के सामने हिंदुस्तान की एकता नग्न होकर खड़ी थी. अंग्रेजों को कमज़ोर कड़ी तलाश करने में देन नहीं लगी और उन्होनें अनुसूचित जातियों को अलग से मतदान की व्यवस्था का भरोसा जताकर एक लकीर हमेशा के लिए खींच दी.

आज़ाद भारत में नेहरू भी जाति के आधार पर आरक्षण नहीं चाहते थे. उन्होंने जाति आधारित आरक्षण को मूर्खतापूर्ण माना था. काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया, लेकिन उनकी सिफारिशों को कभी सामने नहीं आने दिया गया.

1978 में मोरारजी देसाई ने उस वक्त के मधेपुरा के सांसद बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया, जिसका मकसद पिछड़ों की स्थिति का आकलन करना था 1980 में बीपी मंडल ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह को सौंप दी. इसमें कई सिफारिशें पिछड़े और अति पिछड़े लोगों को आर्थिक और सामाजिक रूप से मज़बूत करने के लिए की गई थीं.
वैसे भी संविधान ने सभी नागरिकों को जन्म, जाति या भाषा के आधार पर समान माना था, लेकिन अनुच्छेद 16 (4) में सरकार को अपने अधीन कार्यालय या विभाग में जाति के आधार पर आरक्षण देने की छूट दी गई थी. इन विशेष प्रावधानों के साथ एक चेतावनीनुमा शर्त भी जोड़ी थी- अनुच्छेद 355 के अनुसार संघ अथवा राज्य मामलों से संबंधित सेवाओं और पदों पर नियुक्ति करते समय अनुसूचित जाति और जनजातियों के दावों पर प्रशासन की कुशलता को ध्यान में रखकर विचार किया जाएगा.

राजीव गांधी सरकार में ये रिपोर्ट धूल खाती रही. दिसंबर 1989 में भ्रष्टाचार के खिलाफ नारों के साथ वीपी सिंह भारत के आठवें प्रधानमंत्री बने. उनकी सरकार भानुमती का पिटारा थी, बेमेल विचारधाराओं का अखाड़ा थी. देवीलाल से अनबन के चलते वीपी सिंह सरकार ने उन्हें जब सरकार से बाहर का रास्ता दिखाया तो देवीलाल ने वीपी सिंह को अपनी ताकत दिखाने के लिए बोट क्लब में महारैली का आयोजन किया. तारीख तय की गई 9 अगस्त. वीपी सिंह को किसानों के मुद्दे पर देवीलाल की ताकत का अहसास था. देवीलाल की रैली का सीधा मतलब था दिल्ली में शासन व्यवस्था का किला भहरा जाना.

देवीलाल की रैली की तपिश से बचने के लिए वीपी सिंह ने 7 अगस्त को ही मंडल आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने का ऐलान कर दिया. पूरा देश सकते में आ गया. मंडल आयोग ने पिछड़े वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए सामाजिक और आर्थिक मज़बूती के लिहाज़ से 12 मुख्य सिफारिशें की थीं. जिनमें से एक थी सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था. लेकिन वीपी सिंह ने बाकी सभी सिफारिशों को एक तरफ रखते हुए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था लागू कर दी. उनके इस कदम के साथ जो बीज कभी लेडी मिंटो ने बोया था उसने असर दिखाना शुरू कर दिया. पहले से ही ऊंच-नीच में बंटे हिंदू और बंट गए. सरकारी नौकरियों में अब आरक्षण पहले से निर्धारित 22.5 प्रतिशत से बढ़कर 49.5 प्रतिशत हो गया.

लालू, मुलायम, मायावती जैसे नेता क्षेत्रीय क्षत्रप बनते चलते गए, वक्त के साथ लालू और मुलायम मजबूत होते गए और अपने-अपने राज्यों में ये नेता पिछड़ों की राजनीति से पलायन करते करते सिर्फ और सिर्फ अपनी जाति की राजनीति करने लगे, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए दोनों ने मुसलमानों को भी साथ जोड़ा और सत्ता सुख भोगने लगे. परिवारवाद हावी हुआ और अतिपिछड़े एक बार फिर हाशिये पर रहे. बीते दो दशक में सिर्फ मायावती ने अतिपिछड़ों के उत्थान के लिए काम किया, उन्हें एक सम्मानजनक दर्जा भी दिलाया, लेकिन अगड़ों जैसा रुतबा हासिल कर चुके मुलायम सिंह के सामने वे कमज़ोर ही रहीं. कमोवेश यही हाल बिहार में रामविलास पासवान के साथ हुआ.

2014 का चुनाव एक आंदोलन था जिसमें एक बार फिर ज्यादातर अगड़े-पिछड़ों ने विकास के नाम पर मोदी सरकार को चुना. मुसलमानों को बरगलाकर अपना उल्लू साधने वाले नेताओं को अपने अपने राज्यों में ऐसी पटखनी मिली कि उनके वजूद हिल गए. कांग्रेस कई राज्यों में खाता तक नहीं खोल पाई. इसके बाद एक बार फिर बांटने की राजनीति शुरू हुई. अतिपिछड़ों को सामाजिक न्याय की याद दिलाई जाने लगी. आरक्षण के समर्थकों ने आरक्षण विरोध को ब्राह्मणवादी सोच कहना शुरू कर दिया. ये कोशिश है अगड़ों की जमात से ब्राह्मणों को अलग थलग करने की. जबकि वीपी सिंह के नाम पर राजपूतों को अपनी तरफ झुकाने की या तटस्थ रहने की. बनियों पर तो वैसे भी आरोप लगता रहता है वे बीजेपी की ताकत हैं.

आज डॉ. भीमराव अंबेडकर कहीं पीछे रह गए हैं, जिन्होंने पिछड़ों की समृद्धि का सपना तो देखा था, लेकिन इस रूप में नहीं जैसा आज है. अतिपिछड़े अपने उन साथियों की ज़्यादतियों का शिकार हैं जो सिर्फ नाम के पिछड़े रह गए हैं. सामाजिक और आर्थिक रूप से वे अगड़ी जातियों से कहीं आगे हैं.

हार्दिक पटेल ने आरक्षण के पलीते में फिर से आग लगा दी है. लेकिन असमंजस की स्थिति है. हार्दिक जोश में हैं, लेकिन जोश में होश अक्सर लड़खड़ा जाता है. हार्दिक सरदार पटेल के नाम पर खुद का आंदोलन खड़ा करते हैं, लेकिन बाल ठाकरे को अपना आदर्श बताते हैं. हार्दिक जब मुट्ठियां भींचकर या बंदूक की तस्वीर के साथ आरक्षण की मांग करते हैं, तो वो अतिपिछड़ों के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकता. वैसे भी हार्दिक पटेल का पूरा खेल इस एक लाइन में छिपा है. या तो सबको आरक्षण दो या किसी को नहीं. मंडल-कमंडल से आगे का दौर चल रहा है, लेकिन उस दौर के कई सिपाही अपनी-अपनी राजनीति की आखिरी पारी खेल रहे हैं. फिर भी आरक्षण एक बड़ा सवाल है. संविधान ने उसे विशेष सुविधा बताया था. मुट्ठियां और जबड़े भींचे लोग उसे हक बताते हैं, हक से ज़्यादा वो अगड़ों के प्रति नफरत का प्रदर्शन होता है. लेकिन इतना तय है कि अब ये लड़ाई इतनी आसान नहीं होगी. ना सियासी तौर पर और ना सामाजिक तौर पर. जातीय संघर्ष अगर हुआ तो वर्तमान के कई पन्ने खून से लाल होंगे, जिनकी समीक्षा इतिहास अपने अपने ढंग से करेगा. और कहीं न कहीं कोई न कोई दूर बैठा मुस्कुरा रहा होगा. शायद सैकड़ों साल की शिकस्त की फतेह की शक्ल में.

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लेखक

पंकज शर्मा पंकज शर्मा @pankajdwijendra

लेखक आजतक न्यूज चैनल में सीनियर प्रोड्यूसर हैं

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