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Updated: 04 जून, 2021 10:23 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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11 मई से ही कृष्णा रॉय अस्पताल में हैं और मुकुल रॉय होम आइसोलेशन में - मुकुल रॉय (Mukul Roy) और उनके बेटे शुभ्रांशु ने आपसी बातचीत में नाराजगी भी जताई थी कि कोरोना संक्रमित होने के बावजूद बीजेपी नेताओं में से किसी ने कोई खोज खबर नहीं ली. कृष्णा रॉय बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय की पत्नी हैं.

29 मई को जब शुभ्रांशु रॉय ने एक फेसबुक पोस्ट लिखी तो खलबली मच गयी. पोस्ट भी ऐसी ही थी. शुभ्रांशु ने अपनी पोस्ट में किसी का नाम तो नहीं लिया था, लेकिन साफ साफ समझ में आया कि निशाने पर तो बीजेपी नेतृत्व ही है.

शुभ्रांशु रॉय ने लिखा - 'जनता की चुनी हुई सरकार की आलोचना करने से ज्यादा स्वयं की आलोचना जरूरी है.'

शुभ्रांशु रॉय और मुकुल रॉय दोनों ही बीजेपी के टिकट पर पश्चिम बंगाल विधानसभा का चुनाव लड़े थे. मुकुल रॉय तो नदिया जिले की कृष्णानगर उत्तर विधानसभा क्षेत्र से विधानसभा पहु्ंच गये, लेकिन शुभ्रांशु उत्तर 24 परगना की बीजपुर विधानसभा सीटे से चुनाव हार गये थे. तृणमूल कांग्रेस से छह साल के लिए बाहर कर दिये जाने के बाद मुकुल रॉय ने अक्टूबर, 2017 में राज्य सभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया और महीने भर बाद ही बीजेपी ज्वाइन कर लिये. मुकुल रॉय के बेटे भी तृणमूल कांग्रेस छोड़ कर मई, 2019 में बीजेपी में चले गये - लंबे इंतजार के बाद बीजेपी ने सितंबर, 2020 में मुकुल रॉय को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया था.

मुकुल रॉय के परिवार की बीजेपी नेतृत्व को तब याद आयी जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerje) के सांसद भतीजे अभिषेक बनर्जी मुकुल रॉय की पत्नी से मिलने सीधे अस्पताल पहुंच गये.

जैसे ही अभिषेक बनर्जी और फेसबुक पोस्ट के जरिये बीजेपी नेतृत्व को शुभ्रांशु रॉय की कोलकाता के निजी अस्पताल में मुलाकात की जानकारी मिली बीजेपी में तो ऊपर से नीचे तक जैसे कोहराम ही मच गया.

अगले ही दिन आनन फानन में पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष भी दौड़े दौड़े अस्पताल जाते हैं - और 24 घंटे के भीतर दिल्ली से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) का फोन भी पहुंच जाता है.

ये सारे घटनाक्रम मुकुल रॉय की तृणमूल कांग्रेस में वापसी की चर्चाओं के बीच हुए हैं. मुकुल रॉय की बीजेपी को कितनी परवाह है, ये तो इतने दिनों तक किसी के हाल तक न पूछने से ही पता चलता है. मुकुल रॉय टीएमसी में वापसी को लेकर अपना पक्ष भी ट्विटर पर सबके सामने रख चुके हैं और उसके बाद भी फैसले पर कायम रहते हैं या नहीं ये भी कोई खास बात नहीं लगती.

ऐसा भी नहीं लगता कि हाल फिलहाल बीजेपी नेतृत्व को मुकुल रॉय की कोई जरूरत या अहमियत बची हुई है, लेकिन अगर मुकुल रॉय घर वापसी का फैसला कर लेते हैं तो राजनीतिक तौर पर ये बीजेपी के लिए ममता बनर्जी की तरफ से शह मात के खेल में एक और दौर की बाजी जीतने जैसी ही चाल होगी.

मुकुल रॉय ने अगर कोई मन बना भी लिया है और प्रधानमंत्री मोदी के फोन के बाद पसोपेश में पड़ जाते हैं या नहीं - लेकिन एक बात तो साफ है अस्पताल में अभिषेक बनर्जी का पहुंचना और उसके बाद प्रधानमंत्री मोदी की कॉल जिंदगी भर नहीं भूलने वाली है.

ये बाजी तो ममता बनर्जी के हाथ ही लगी है

ऐसे समय जब कोरोना संक्रमित मरीज से डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ के अलावा कोई नहीं मिल रहा. जान पहचान वालों की कौन कहे, जब कोई जिंदगी के लिए मौत को मात देने के लिए जूझ रहा हो और करीबी लोग भी दूरी बना लेते हों - किसी ऐसे शख्स का हालचाल के लिए सीधे अस्पताल पहुंच जाने पर कैसा महसूस होता है, फिलहाल तो ये मुकुल रॉय का परिवार ही महसूस कर रहा होगा.

हाल फिलहाल जो दौर चल रहा है - अगर कोई अस्पताल पहुंच कर राजनीतिक के हिसाब से भी कोरोना संक्रमित का हाल पूछे तो उसे शिष्टाचार ही कहा जाएगा - राजनीति तो हमेशा होती ही रहती है. शिष्टाचार तो वैसे भी राजनीति के नींव की पहली ईंट जैसी लगने लगी है.

मुकुल रॉय के परिवार के लिए राजनीति और शिष्टाचार में फर्क कर पाना मुश्किल हो रहा होगा - समझना काफी मुश्किल हो रहा होगा कि वे लोग अभिषेक बनर्जी के अस्पताल पहुंच कर हाल पूछने को राजनीति मानें या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फोन करके हाल जानने को शिष्टाचार समझें?

mamata banerjee, mukul roy, narendra modiनाराज मुकुल रॉय को मनाने की कोशिश हो रही है - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का फोन कर हालचाल लेना भी उसी का हिस्सा बताया जा रहा है.

मुश्किल वक्त में नजर उठाकर देखने पर अगर दुश्मन भी नजर आये और वो आत्मीयता भी दिखाये तो दुश्मनी की गुंजाइश कम ही बचती है. फिलहाल मुकुल रॉय और उनकी पत्नी को देखने अस्पताल पहुंचे अभिषेक बनर्जी के बीच ऐसा ही अनुभव हो रहा होगा. अभिषेक बनर्जी भले ही वहां अपने मन से गये हों या ममता बनर्जी के भेजने पर उनका प्रतिनिधि बन कर - फर्क नहीं पड़ता.

और ऐन उसी वक्त दोस्त भी मौके की नजाकत को समझते हुए दौड़ते हांफते भी पहुंचे तो उसके शिष्टाचार में भी राजनीति की हू बू नजर आएगी. बड़े इंतजार के बाद लोक-लाज के डर से दोस्त भी हाल समाचार के लिए मुखातिब हो, भले करीब हो न हो - ठीक वैसे ही दोस्ती की गुंजाइश बहुत ही कम बची हुई लगती है.

अभिषेक बनर्जी के अस्पताल पहुंच कर मुकुल रॉय की पत्नी का हालचाल पूछ कर चले जाने के बाद दिलीप घोष का धावा बोलना या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन आना, मुकुल रॉय के परिवार को ताउम्र नहीं भूलेगा.

अभिषेक बनर्जी अस्पताल पहुंचे तो मुकुल रॉय से तो नहीं, लेकिन उनके बेटे शुभ्रांशु रॉय से भेंट जरूर हुई. हालचाल और बाकी बातों के बाद अभिषेक बनर्जी लौट गये - टीएमसी नेताओं की तरफ से इसे एक शिष्टाचार मुलाकात बताया गया है.

एक पुराना वाकया भी ऐसा ही है. तब भी मुकुल रॉय के वापसी की चर्चा चली थी, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ. मुकुल रॉय बीजेपी ज्वाइन कर चुके थे, लेकिन शुभ्रांशु तब तृणमूल कांग्रेस में ही थे. शुभ्रांशु बीमार थे - और ममता बनर्जी हालचाल लेने खुद पहुंची थीं. वहीं पर, पास में ही मुकुल रॉय भी मौजूद थे, तब की खबरों के मुताबिक, दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई थी.

अब मुकुल रॉय और उनके बेटे शुभ्रांशु रॉय दोनों ही टीएमसी में नहीं हैं, लेकिन अभिषेक बनर्जी हाल पूछने अस्पताल पहले ही पहुंच जाते हैं - और दिलीप घोष बाद में आते हैं. कुछ मन से और कुछ बेमन से लेकिन दोनों ही तरफ कुछ लोग सोच जरूर रहे होंगे - राजनीति में, कट्टर विरोध और गला काट राजनीति में भी ये रिश्ता क्या कहलाता है.

याद किया जाये तो मुकुल रॉय को बीजेपी में कभी सम्मान नहीं मिल पाया. बीजेपी में जो सम्मान शुभेंदु अधिकारी को मिला वैसा तो मुकुल रॉय के कल्पना के भी बाहर होगा. टीएमसी छोड़ते ही उनको हाई फाई सिक्योरिटी मिल गयी. अमित शाह ने उनके साथ हाथ मिलाकर कर मंच शेयर किया - और उसके बाद उनके सपोर्ट में रोड शो किया तो यहां तक कह डाले कि बीजेपी अध्यक्ष रहते भी कई रोड शो किये, लेकिन वैसी भीड़ कभी नहीं देखी.

जब मुकुल रॉय बीजेपी ज्वाइन कर रहे थे तो अमित शाह उस मौके से दूरी बना लिये थे. मुकुल रॉय के भगवा धारण कर लेने के बाद अमित शाह से अंदर मुलाकात हुई. मुकुल रॉय की छवि अच्छी नहीं थी. उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे और सीबीआई की जांच चल रही थी. माना भी यही गया कि मुकुल रॉय ने कानूनी पचड़ों से बचने के लिए ही बीजेपी ज्वाइन कर लिया था - और करीब करीब ऐसी ही धारणा शुभेंदु अधिकारी के बारे में भी बनी है.

धारणा का सबूत भी साक्षात सामने तब आया जब एक ही चार्जशीट में शुभेंदु अधिकारी और मुकुल रॉय का नाम होने के बावजूद सीबीआई ने टीएमसी के चार नेताओं को हाल ही में गिरफ्तार किया. ये सवाल हाई कोर्ट में भी उठा था. जब जवाब देने की बारी आयी तो सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता साफ मुकर गये. बोले, सिर्फ कानूनी सवालों के ही जवाब देंगे. राजनीतिक सवालों के जवाब देते भी तो क्या देते. जवाब था भी कहां?

कुछ दिन पहले भी मुकुल रॉय की घर वापसी की चर्चा रही. खासकर तब जब बीजेपी ज्वाइन कर चुके कुछ नेताओं ने ममता बनर्जी से सरेआम माफी मांगते हुए ये कहते हुए लौटने की इच्छा जतायी कि दम घुट रहा है. पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले 34 विधायकों सहित 50 से भी ज्यादा तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने बीजेपी का दामन थाम लिया था.

नेताओं में एक नाम दिनेश त्रिवेदी का भी है. वही दिनेश त्रिवेदी जिनसे नाराज होकर ममता बनर्जी ने रेल बजट के बीच ही यूपीए सरकार से हटवा कर मुकुल रॉय को बनवाया था. दिनेश त्रिवेदी के हिस्से की औपचारिकताएं भी मुकुल रॉय को शपथ लेते ही निभानी पड़ी थी. दिनेश त्रिवेदी के साथ एक बार फिर वैसा ही सुलूक हुआ, बीजेपी ने टीएमसी से आये सिर्फ 13 नेताओं को ही टिकट दिया था और उनमें दिनेश त्रिवेदी का नाम नहीं था. घर वापसी की चर्चा में राजीब बनर्जी के साथ साथ मुकुल रॉय का भी नाम उछला तो मुकुल रॉय को ट्विटर पर सफाई भी देनी पड़ी.

मालूम हुआ है कि जितना वक्त अभिषेक बनर्जी ने अस्पताल में बिताया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संयोग से उतनी ही देर बात की - कुल 10 मिनट.

कुल जमा दस मिनट का ही मामला रहा, लेकिन कोई आगे तो कोई पीछे रह गया. मुकुल रॉय आगे जो भी फैसला करें, ममता बनर्जी ने राजनीति के बाद शिष्टाचार के मामले में भी बीजेपी नेतृत्व को एक बार भी जोर का झटका धीरे से दिया है - कोई कुछ भी सोचे, कुछ भी समझे एक बार फिर बंगाली की बाजी ममता बनर्जी के ही हाथ लगी है.

घर वापसी की तो क्या सीबीआई पीछे पड़ जाएगी?

मुकुल रॉय की तृणमूल कांग्रेस में लौटने की जो चर्चा है वो अनायास तो बिलकुल नहीं है. जिन नेताओं ने फेसबुक पोस्ट लिख कर कह डाला है कि बीजेपी में उनका दम घुट रहा है, वे काफी हल्का महसूस कर रहे होंगे. मुकुल रॉय का तो पहले से ही दम घुट रहा था, शुभेंदु अधिकारी के आ जाने के बाद तो माहौल और भी दमघोंटू हो गया होगा.

राजनीतिक स्वार्थ में मुकुल रॉय को तृणमूल कांग्रेस से झटक लेने के बावजूद बीजेपी नेतृत्व मुकुल रॉय पर एहसान ही जताता रहा है - कृपा दृष्टि के चलते जांच एजेंसियों से पीछा छूट गया वरना, ममता बनर्जी कितना भी शोर मचातीं, पूछताछ की प्रताड़ना से लेकर जेल का वक्त तो अकेले ही गुजारना पड़ता.

मुकुल रॉय से बीजेपी को काफी उम्मीदें थीं क्योंकि वो संगठन के नेता रहे और तृणमूल कार्यकर्ताओं तक उनकी सीधी पहुंच मानी जाती रही, लेकिन वो बीजेपी के लिए वैसा नहीं कर सके थे. आम चुनाव से पहले पंचायत चुनाव में बीजेपी को थोड़ी बहुत कामयाबी जरूर मिली थी.

बीजेपी भले ये माने कि 2019 के आम चुनाव में पार्टी ने पश्चिम बंगाल की 42 संसदीय सीटों में से 18 मोदी लहर के चलते झटक लिया, लेकिन क्या मुकुल रॉय का उसमें कोई योगदान नहीं था? अगर वास्तव में ऐसा ही था तो तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों में मोदी लहर का कोई असर क्यों नहीं देखने को मिला था?

और अगर मुकुल रॉय कोई महत्व नहीं रखते तो पूरी ताकत झोंक देने के बावजूद विधानसभा चुनाव में बीजेपी 100 सीटों तक भी क्यों नहीं पहुंच पायी?

नतीजे तो वैसे ही रहे जैसा ममता बनर्जी के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर का दावा रहा. चुनावों के रुझान आने के दौरान प्रशांत किशोर का कहना रहा कि तृणमूल कांग्रेस से बीजेपी में वे ही नेता गये जो पार्टी पर बोझ रहे. प्रशांत किशोर के कहने का भाव कूड़ा कचरा जैसा ही रहा. प्रशांत किशोर के नजरिये से देखें तो मुकुल रॉय ने तृणमूल कांग्रेस में स्वच्छता अभियान चला कर पार्टी को पूरी तरह साफ सुथरा कर दिया है - सारा कचरा ममता से उठाकर बीजेपी की झोली में डाल दिया है. टीएमसी से बीजेपी में आये उम्मीदवारों की विधानसभा चुनावों में हार भी तो यही चीज साबित करती है.

नेताओं की घर वापसी को लेकर तृणमूल कांग्रेस सांसद सुखेंदु शेखर रॉय ने काफी महत्वपूर्ण बयान दिया है. कहते हैं, 'अब पार्टी में किसी को भी शामिल करने से पहले बहुत सारे सवालों के जवाब तलाशे जाएंगे... मसलन, जो लौटना चाहता है, वो पार्टी छोड़कर गया क्यों था? वो वापसी क्यों चाहता है - ये भी देखेंगे कि कहीं ये BJP की साजिश तो नहीं?

मुकुल रॉय के लिए भी फैसला मुश्किल भरा होगा. ये सवाल तो मुकुल रॉय के मन में होगा ही कि उनके फिर से पाला बदलने की सूरत में नारदा स्टिंग केस में सीबीआई का स्टैंड और उसके हिसाब से एक्शन बदल तो नहीं जाएगा?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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