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Updated: 22 सितम्बर, 2019 08:24 PM
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ममता बनर्जी की हाल की दिल्ली यात्रा पुराने सभी दौरे से पूरी तरह अलग रही. चुनावों से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक्सपायरी बाबू बता चुकीं ममता बनर्जी ने खुद पहले से वक्त लेकर मुलाकात की. वरना, शपथग्रहण से लेकर दूसरे सरकारी कार्यक्रमों से भी दूरी बनाती रहीं.

ममता बनर्जी प्रधानमंत्री मोदी से मिलने मिठाई और कुर्ता लेकर पहुंची थीं, जबकि पहले कह रही थीं कि वो मोदी को कंकड़ वाला रसगुल्ला भेज देंगी. हैरानी की बात ये रही कि ममता बनर्जी, प्रधानमंत्री के साथ साथ अमित शाह से भी ये कहते हुए मिलीं कि बड़ी खुशी होगी अगर मुलाकात का वक्त मिल पाया, लेकिन दिल्ली आकर भी सोनिया गांधी से नहीं मिलीं - क्या ये नये राजनीतिक समीकरणों की तरफ कोई इशारा है?

ममता की मोदी-शाह से मुलाकात के मायने

एक लंबे अरसे बाद ममता बनर्जी के चेहरे पर प्रधानमंत्री का नाम लेते हुए मुस्कुराहट भी देखने को मिली. प्रधानमंत्री के साथ मीटिंग को अच्छा बताते हुए ममता बनर्जी ने कहा कि पश्चिम बंगाल का नाम बदलने से संबंधित उनका एजेंडा सबसे ऊपर है. ममता ने कहा, 'हमने पश्चिम बंगाल का नाम बदलकर बांग्ला करने पर चर्चा की और उन्होंने इसके बारे में कुछ करने का वादा भी किया है.'

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात में ममता बनर्जी ने उन्हें पश्चिम बंगाल आने का न्योता भी दिया, इस आग्रह के साथ कि वो दुनिया के दूसरे सबसे बड़े कोल ब्लॉक का उद्घाटन पश्चिम बंगाल में आकर करें.

ममता बनर्जी का कहना रहा कि उनका दिल्ली आना कम ही होता है. खास कर आम चुनाव के नतीजे आने के बाद तो बिलकुल ही कम हो गया है. ममता बनर्जी के दिल्ली आने के मौके तो काफी आये लेकिन वो नहीं आयीं. न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथग्रहण में और न ही 'एक देश एक चुनाव' को लेकर प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से बुलायी गयी मीटिंग में.

हालांकि, 23 मई से पहले ममता बनर्जी का दिल्ली आना इतना भी कम नहीं होता रहा. ममता बनर्जी जब भी विपक्षी दलों की मीटिंग होती रही जरूर आती रहीं. जब तो दिल्ली आतीं तो सोनिया गांधी से भी मिलतीं जरूर थीं. भले ही राहुल गांधी से परहेज करते हुए उन्हें नजरअंदाज कर देती रहीं.

mamata meets modi shah in delhiममता बनर्जी की मोदी-शाह से मुलाकात नये राजनीतिक समीकरण के संकेत तो हैं ही!

10, जनपथ से निकलने के बाद ममता बनर्जी ये भी अवश्य बतातीं कि शिष्टाचारवश वो दिल्ली आने पर यूं भी मिलती ही हैं. मगर, इस बार ऐसा नहीं हुआ. ममता बनर्जी दिल्ली आकर भी सोनिया गांधी से नहीं मिल सकीं. खबर तो यही आयी कि चूंकि सोनिया गांधी महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड चुनाव को लेकर तैयारियों में व्यस्त रहीं, इस कारण दोनों नेताओं की मुलाकात नहीं हो सकी. वैसे ये बात हजम नहीं होती. ऐसी भी क्या व्यस्तता कि 10 मिनट का वक्त नहीं निकाला जा सका.

तो क्या ये समझा जाये कि ममता बनर्जी चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से वक्त लेकर मिलने आयी थीं और शिष्टाचारवश अमित शाह मुलाकात कर लीं - इसलिए सोनिया गांधी से मिलने का कोई मतलब भी नहीं बनता. ममता बनर्जी वैसे भी नवीन पटनायक जैसी राजनीति तो करती नहीं हैं जो दोनों तरफ बराबर दूरी बनाकर चल सकें. ममता बनर्जी दोनों में से किसी एक तरफ रहती ही हैं - भले ही ये साथ ज्यादा लंबा नहीं चल पाता.

क्या ममता बनर्जी भी नीतीश कुमार को फॉलो करने वाली हैं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति ममता बनर्जी के व्यवहार में अचानक आया बदलाव काफी हद तक अरविंद केजरीवाल से मिलता जुलता नजर आ रहा है. इससे आगे का रास्ता वो है जिस पर चल कर नीतीश कुमार फिर से NDA में पहुंच गये हैं.

क्या ममता बनर्जी भी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए नीतीश कुमार को फॉलो करने वाली हैं?

महाराष्ट्र में विधानसभा के लिए चुनाव 21 अक्टूबर, 2019 को होने जा रहे हैं - और नतीजे भी 24 अक्टूबर को आ जाएंगे. उस दिन वोटों की गिनती होगी. जिस तरीके से बीजेपी ने महाराष्ट्र में अपना विस्तार किया है, निश्चित तौर पर ममता बनर्जी गौर फरमा रही होंगी. बीजेपी ने महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी एनसीपी और कांग्रेस को पूरी तरह साफ कर दिया है. दोनों दलों के 16 विधायक और 30 बड़े नेता या तो बीजेपी या फिर गठबंधन की दूसरी पार्टी शिवसेना में पहुंच चुके हैं. अगर आपने इंडिया टुडे कॉनक्लेव देखा होगा तो पता ही होगा कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कैसे आत्मविश्वास से भरपूर नजर आ रहे थे. साथ ही साथ, शिवसेना के आदित्य ठाकरे कैसे गठबंधन से जुड़े किसी भी सवाल का जवाब देने से बचते रहे. एक अहम बात और भी है कि किस तरह उद्धव ठाकरे ने वक्त की नब्ज पहचानते हुए बेटे आदित्य को मुख्यमंत्री की कुर्सी का सपना कुछ दिन के लिए होल्ड करने के लिए समझा लिया - वैसे भी सपनों को होल्ड करना सबसे खतरनाक नहीं होता.

बिहार में नीतीश कुमार के सामने की राजनीतिक चुनौतियां कैसी हैं, ममता बनर्जी अच्छी तरह समझती हैं. फिर भी महाराष्ट्र की तरह बीजेपी ऐसी स्थिति में तो नहीं ही है जो अपने बूते सरकार बना सके. जिस तरह बिहार में बीजेपी अब भी नीतीश कुमार पर निर्भर है, ठीक उसी तरह पश्चिम बंगाल में अकेले दम पर सरकार बनाना अभी की स्थिति में बीजेपी के लिए नामुमकिन सा है.

बिहार चुनाव में बीजेपी की बुरी तरह शिकस्त होने के अगले ही साल हुए पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी अपने बूते दोबारा सत्ता में लौटीं - लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की सत्ता में दोबारा वापसी होते होते ममता बनर्जी कमजोर हो चुकी हैं.

ममता बनर्जी की मजबूरी ये है कि अगर बीजेपी के खिलाफ वो किसी भी पार्टी से गठबंधन कर लें तब भी कोई फायदा होने वाला नहीं हैं - क्योंकि न तो वाम दल और न ही कांग्रेस बीजेपी के बढ़ते दबदबे के दौरान ममता का मददगार बनने की हालत में है ही नहीं.

ये ठीक है कि बीजेपी के पास पश्चिम बंगाल में अभी ममता बनर्जी के मुकाबले खड़ा होने के लिए कोई नेता नहीं है - लेकिन ऐसी स्थिति में तो बीजेपी प्रदानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही आगे कर देती है और कामयाब भी रहती है. जब त्रिपुरा में लाल रंग पर मोदी ने अकेले दम पर भगवा पेंट कर दिया तो क्या पश्चिम बंगाल में ये असंभव होगा? एक पल के लिए तो नहीं लगता. वैसे राजनीति का क्या - क्या मालूम जिस तरह 2016 में चुनावों के ऐन पहले नारदा स्टिंग और सारदा घोटाले को नजरअंदाज करते हुए लोगों ने ममता बनर्जी को कुर्सी सौंप दी, चुनाव आते आते फिर से ऐसा कोई माहौल बन जाये.

वैसे आम चुनाव के नतीजों से ममता बनर्जी का जनाधार काफी खिसका हुआ लगता है. बीजेपी के प्रभाव को देखते हुए टीएमसी के नेता पार्टी की ओर काफी आकर्षित भी लग रहे हैं - और उनसे संवाद स्थापित करने के लिए मुकुल रॉय को तो बीजेपी ने पहले से ही झटक रखा है.

ये सच है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार या अरविंद केजरीवाल के खिलाफ बीजेपी उस हथियार का इस्तेमाल तो नहीं कर सकती है जिसे उसने कांग्रेस नेताओं के खिलाफ मोर्चे पर तैनात कर रखा है. मगर, एक सच ये भी है कि ममता बनर्जी के साथियों के खिलाफ तो भ्रष्टाचार वाले हथियार के साये में जांच एजेंसियां एक्टिव हो ही सकती हैं. ममता बनर्जी की मोदी-शाह से मुलाकात को कोलकाता के पूर्व पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के केस से भी जोड़ कर देखा गया. ममता बनर्जी के करीबी पुलिस अफसर को गिरफ्तार करने के लिए सीबीआई के अफसर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं. वो तो लोकेशन नहीं मिल पा रहा है, वरना कब दीवार फांद कर पी. चिदंबरम की तरह उठा ले जायें आसानी से समझा जा सकता है.

ममता बनर्जी के सामने जो चुनौतियां खड़ी हो रही हैं, वैसी हालत में उनके सामने बड़े ही सीमित विकल्प हैं. नीतीश कुमार को फॉलो करते हुए वो फिर से एनडीए में शामिल हो सकती हैं - और ऐसा करके वो ज्यादा कुछ तो नहीं लेकिन कुछ साल के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी जरूर बचा सकती हैं.

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