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Updated: 08 सितम्बर, 2016 02:17 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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महबूबा मुफ्ती के ताजा तेवर से अलगाववादी ही सबसे ज्यादा हैरान होंगे. जो महबूबा कल तक सुरक्षा बलों के हाथों मारे गये नौजवानों के घरवालों को रोने के लिए कंधा दिया करती थीं, अलगाववादियों के तकरीबन हर स्टैंड का ब्लाइंड सपोर्ट किया करती थीं, वही आज उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखी हैं.

महबूबा के लिए उनका मौजूदा स्टैंड सियासी मजबूरी भले ही हो, लेकिन कश्मीर के लिए अच्छा है - और इस तरह देश के लिए सबसे अच्छा है.

सूरत-ए-हाल

कश्मीर में हिंसा और उसके बाद लंबे कर्फ्यू के चलते आम जीवन काफी मुश्किल हो चला है. बीबीसी हिंदी की साइट पर पत्रकार गौहर गिलानी लिखते हैं, "एक दो बार मैं कुछ ज़रूरी सामान लाने के लिए घर के बाहर भी निकला, लेकिन सारी दुकानें बंद थीं. यहां तक कि छोटी सड़कों और गलियों में भी दुकानों के शटर बंद थे और दुकानदारों का कहना था कि उनके पास माल ख़त्म हो चुका है और सप्लाई की कोई सूरत नहीं."

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घरों में कैद आम कश्मीरी निश्चित रूप से बाकी बातों से पहले रोजमर्रा की जिंदगी सामान्य हो ऐसा जरूर चाहता होगा. फिलहाल तो हालात ऐसे हैं कि लोग दैनिक जरूरतों में दूध-ब्रेड को तरस गये हैं.

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मिशन कश्मीर पर चर्चा...

महबूबा बार बार कह रही हैं कि सिर्फ 5 फीसदी लोग बवाल करा रहे हैं जबकि 95 फीसदी अमन चैन की जिंदगी चाहते हैं. ऐसे ही लोगों को सेंटरस्टेज पर लाकर महबूबा अलगाववादियों को कठघरे में खड़ा कर रही हैं.

महबूबा अब खुल्लम खुल्ला इल्जाम लगा रही हैं कि मुट्ठी भर लोग गरीब कश्मीरियों के बच्चों को अपने मंसूबों को अंजाम देने में इस्तेमाल कर रहे हैं. राजनाथ सिंह के साथ प्रेस कांफ्रेंस में भी महबूबा ने यही कहा था कि जो बच्चे सेना और सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसा रहे हैं वे घरों से दूध-ब्रेड लेने तो नहीं ही निकलते. महबूबा अब डंके की चोट पर अलगाववादियों को टारगेट कर रही हैं. कहती हैं - उनके बच्चे या तो विदेश या देश के दूसरे हिस्सों में पढ़ते हैं. "अगर घायल बच्चों में उनमें से किसी एक का बच्चा निकला तो राजनीति छोड़ दूंगी," महबूबा की ये खुली चुनौती है.

महबूबा की मजबूरी

महबूबा के मौजूदा स्टैंड की अपनी सियासी मजबूरी है. सीएम की गद्दी संभालने से पहले निश्चित तौर पर उन्होंने इस बातों पर गौर किया होगा. वैसे भी अगर महबूबा सरकार बनाने से पीछे हटतीं तो पीडीपी को टूटने से बचाने की भी चुनौती खड़ी हो जाती.

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पीडीपी का बीजेपी के साथ गठबंधन का फैसला सही था या गलत इसकी अलग अलग पक्षों के हिसाब से विवेचना की जा सकती है. इसी तरह बीजेपी का पीडीपी के साथ सरकार बनाने का फैसला ठीक था या नहीं इसकी भी हर कोई अपने हिसाब से व्याख्या कर सकता है.

महबूबा की एक बड़ी मजबूरी तो यही है कि अगर कश्मीर को लेकर अपने पुराने रवैये पर कायम रहतीं तो देर सबेर वो दिना आ ही जाता जब बीजेपी सपोर्ट वापस ले लेती. केंद्र में उसकी सत्ता होने से कभी भी गवर्नर रूल लागू करने का ऑप्शन खुला है.

सत्ता गंवाने के बाद महबूबा चुनाव फेस करने की स्थिति में नहीं हैं. आखिर चुनाव में उतरेंगी तो लोगों को बताएंगी क्या - आखिर क्यों बीजेपी से अलग होना पड़ा. फिर दोबारा सरकार बनाने की जरूरत ही क्या थी?

कश्मीरी लोगों को आखिर महबूबा कैसे समझा पातीं कि कि उनके पिता का फैसला गलत था - और पिता के बाद महबूबा ने वही गलती क्यों दोहरायी? अब तक अलगाववादियों की सबसे बड़ी हितैषी रहीं महबूबा अब उनसे भी दुश्मनी मोल ली हैं - लिहाजा उन्होंने समर्थन करनेवाले ही एक धड़े को विरोधी बना लिया है.

समस्या और सॉल्यूशन

हर कोई यही कहता रहा है कि कश्मीर समस्या का सिर्फ राजनीतिक हल ही निकाला जा सकता है. लगता है बीजेपी, खास तौर पर मोदी ने इसे बहुत पहले समझ लिया था.

ये मोदी की ही दूरदृष्टि रही कि पीडीपी के साथ गठबंधन का फैसला किया और इसके लिए पूरे वक्त धैर्य बनाये रखा. हर किसी ने इसे बेमेल गठबंधन या दो अलग अलग ध्रुवों, आइडियोलॉजी का गठबंधन बताया.

अब इस गठबंधन का असर दिखने लगा है. मोदी के इस पॉलिटिकल ऑपरेशन में साझीदार बनी हैं महबूबा मुफ्ती. साझीदार ऐसी कि कदम कदम पर साथ नजर आ रही हैं. कम से कम फिलहाल तो ऐसा कहा ही जा सकता है.

पहले पीडीपी के साथ सूबे में गठबंधन सरकार और अब विपक्ष को साथ लेकर अलगाववादियों से बातचीत का कदम. इसमें श्रीश्री रविशंकर जैसे लोगों की बैकडोर बातचीत की स्टेटस रिपोर्ट सामने नहीं आई है. जिस तरह की सक्रियता रविशंकर दिखा रहे हैं, ये तो लगता ही है कि बात कुछ न कुछ तो जरूर है.

अलगाववादी चाहे जिस किसी के भी प्रभाव में हों, विपक्षी नेताओं से उनका न मिलना पूरी तरह मोदी-महबूबा के मिशन कश्मीर के पक्ष में गया है. एक गलती कर अलगाववादियों ने केंद्र सरकार को सख्त कदम उठाने का मौका दे दिया है.

आगे जो भी हो मोदी-महबूबा के मिशन कश्मीर अभी तो सही दिशा में जा रहा है. आखिर बेमेल जोड़ों की जिंदगी में कामयाबी के किस्से सुनने को तो मिलते ही हैं. बस कुछ दिन धैर्य रखने कि जरूरत है, जिस दिन बलूची में मन की बात टीवी पर देखने को मिली तस्वीर साफ हो जाएगी.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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