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Updated: 19 मई, 2015 07:52 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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क्या बीजेपी ने जातिवाद के खिलाफ अपनी मुहिम से यू-टर्न ले लिया है? या फिर बीजेपी ने संघ से अलग अपने रास्ते पर चलने का फैसला किया है? कम से कम जातिवाद को लेकर संघ की नई अवधारणा को लेकर, संकेत तो यही मिल रहे हैं.

बीजेपी अपने नए सदस्यों से उनकी जाति खासतौर पर पूछ रही है. ये वही नए सदस्य हैं जिन्होंने मिस-कॉल देकर बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी बना दिया है.

ज्यादा दिन नहीं हुए जब संघ ने सभी हिंदुओं के लिए 'एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान भूमि' की अवधारणा पर आगे बढ़ने की बात कही थी. इसके बाद संघ के सहयोगी संगठनों ने ढोल पीट पीट कर आगे बढ़ने का एलान किया. कई कार्यक्रमों की घोषणा की गई - और दलितों के साथ भोजन करते बीजेपी नेताओं के फोटो छपवाए गए. तो क्या अब ये बीते दिनों की हो जाएगी? क्या बीजेपी जातिवाद खत्म करने के संघ के उपायों से खुद किनारा कर लेगी? खैर, ये तो बीजेपी ही जाने.

बीजेपी नए सदस्यों को अब कॉल-बैक करने जा रही है. 'महाजनसंपर्क अभियान' के तहत बीजेपी घर-घर जाकर नए सदस्यों को एक प्रोफॉर्मा देने जा रही है. इसमें जो जानकारियां देनी हैं उसमें से 'जाति' भी एक है.

इससे पहले संघ की पहल को आगे बढ़ाते हुए विश्व हिंदू परिषद ने 'हिंदू परिवार मित्र' योजना की शुरुआत की थी. इस योजना के तहत हर सवर्ण परिवार को एक दलित परिवार से मैत्री संबंध बनाते हुए एक-दूसरे के घर आना-जाना, सुख-दुख की घड़ी में साथ दिखाई देना और साथ बैठकर खाना खाना शामिल था.

अंबेडकर जयंती के मौके पर बीजेपी की ओर से 'सहभोज' का आयोजन हुआ. इसमें बीजेपी नेता दलित परिवार के लोगों के हाथ से भोजन करते नजर आए. ऐसे ही एक कार्यक्रम में बीजेपी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह ने शिरकत की और कहा, ‘अगड़े-पिछड़ों की राजनीति बीते कल की बात है. मोदी सरकार विकास चाहती है. छोटे मन से बड़ा कार्य नहीं हो सकता है. बड़ा कार्य करना है. सभी को साथ लेकर चलना है.’

बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए पूर्व अध्यक्ष एम. वेंकैया नायडू ने दूसरे राजनीतिक दलों पर कटाक्ष भी किया था, 'हमारा एक राष्ट्र, एक जाति और एक मजहब में विश्वास है. वे हमें सांप्रदायिक कहते हैं.'

बीजेपी भी शायद उसी सरकारी राह पर चल रही है जिसके दो विभाग समानांतर काम करते हैं - पहला, मद्यनिषेध और दूसरा आबकारी विभाग. आखिर अच्छे दिनों के कुछ तो ऊसूल होने ही चाहिए.

क्या उस अवधारणा के खाने और दिखाने के दांत अलग अलग पहले से ही थे या बाद में इसमें संशोधन किया गया. क्या लोगों से उनकी जाति पूछ कर ही भेदभाव मिटाए जा सकते हैं?

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मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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