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Updated: 26 सितम्बर, 2016 07:03 PM
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अखिलेश यादव का कहना था कि परिवार में नहीं, समस्या सरकार को लेकर है. कई बार तो अखिलेश यादव की कुर्सी भी हिलती नजर आ रही थी. वैसे भी उन्होंने तो कह ही दिया था कि अगर समस्या सीएम की कुर्सी को लेकर है तो बदल दो - लेकिन चुनाव में टिकट उनकी मर्जी से बांटे जाने दो. नेताजी ने वीटो का इस्तेमाल किया. पूरा मामला रफा दफा करते हुए अखिलेश की कुर्सी भी बचा दी और टिकट बंटवारे में उन्हें दखल देने का अधिकार भी दे दिया.

जब मुलायम सिंह के पास ही सेफ्टी लॉक है तो आखिर अखिलेश की कुर्सी को किससे खतरा हो सकता है?

लेकिन अगर मुलायम को ये समझा दिया जाए कि मौजूदा हालात में चुनावी वैतरणी तो 'मौलाना-मुलायम' ही पार लगा सकते हैं, फिर? क्या वो बेटे को चक्रव्यूह में फंसा कर बैठे बैठे तमाशा देख पाएंगे?

कुर्सी पर तलवार

अखिलेश ने शिवपाल यादव को सब कुछ लौटा दिया लेकिन PWD विभाग अपने पास ही रखा. वजह इसकी जो भी लेकिन शिवपाल के मन में इस बात की खुन्नस तो जरूर होगी. मान लेते हैं कि चूंकि शिवपाल उन्हें बेटे जैसा मानते हैं तो उनके मन में न हो, लेकिन समर्थकों के मन में तो होगी ही. तो क्या वे चुपचाप बैठेंगे - या अखिलेश के विरोधी उन्हें भला बैठने देंगे.

सरकार में भी समस्या के पीछे अखिलेश ने बाहरी शख्स की ओर इशारा किया था - जो राजनीतिक गोटियों को फिट कर अब भीतरी बन चुका है. समाजवादी पार्टी की बात करें तो मौजूदा उठापटक में अखिलेश का पलड़ा कमजोर नजर आ रहा है. फिलहाल एक तरफ अखिलेश और उनके साथ चाचा रामगोपाल यादव हैं तो दूसरी तरह शिवपाल यादव, अमर सिंह, आजम खां और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे धुरंधर हैं.

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खबरें बताती हैं कि मुलायम सिंह को अमर सिंह के समझाने का ही नतीजा था कि दो मंत्रियों पर कार्रवाई हुई - और दीपक सिंघल भी उसी की भेंट चढ़ गये. बाद में बर्खास्त मंत्रियों ने मुलायम के सामने अपना पक्ष रखा तो उन्हें अभयदान मिल गया.

फर्ज कीजिए ताकतवर गुट नेताजी को ये समझा दे कि अगर उन्होंने नहीं संभाला तो सत्ता चुनाव बाद समाजवादी पार्टी के हाथ से फिसल जाएगी. अब इसमें कोई ये तो समझा नहीं रहा कि खिलेश के सीएम रहते समाजवादी पार्टी फिर से सरकार नहीं बना सकती. बात में दम तो है. मिशन में मसरूफ समझाने वाले समझाते तो ऐसे ही हैं.

फर्ज कीजिए अगर मुलायम सिंह को ये समझाया जाए कि उनके लीड रोल में आते पार्टी के लिए फायदों की बौछार होने लगेगी तो.

समाजवादी पार्टी की मजबूती

इस मुल्क में किसी को भी समझाना अमर सिंह के बायें हाथ का खेल है. इस खेल के वो इतने बड़े माहिर हैं कि अमिताभ बच्चन को आर्थिक संकट से उबारने से लेकर न्यूक्लियर डील के वक्त यूपीए की सरकार बचाने का क्रेडिट भी लोग उन्हें बिना किसी संकोच के दे देते हैं.

अमर की इसी अदा ने तो बाहरी से भीतरी बनने की हर अड़चन दूर कर दी. यहां तक कि अखिलेश भी नहीं रोक पाये.

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हल्ला बोल...

चार साल भले बीत चुके हों - चार महीने भी कम नहीं होते. किसी दौर में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अपने अपने छोटे से शासन काल के नाम पर ही वोट मांगते थे - चालीस साल बनाम चार महीने.

2012 में समाजवादी पार्टी को बहुमत मिलने के बाद सारे सीनियर नेता यही चाहते थे कि मुलायम ही सीएम बनें लेकिन उन्हें ठीक नहीं लगा. असल में, वो चुनाव अखिलेश ने ही जीता था - और वैसे भी एक दिन बेटे को गद्दी तो सौंपनी ही थी.

लेकिन चार साल में काफी कुछ बदल गया. अब जबकि शिवपाल, अमर, आजम और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे नेताओं को हैंडल करना है अखिलेश के लिए मुश्किल होगा. अगर नेताओं ने आधे अधूरे मन से काम किया तो लेने के देने पड़ सकते हैं.

मुस्लिम वोट बैंक

यूपी की राजनीति को जरा करीब से समझें तो मुस्लिम वोट बैंक की चुनाव जिताने में बड़ी भूमिका मानी जा रही है. मायावती तो दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने के लिए हर चाल आजमा रही हैं. कांग्रेस भी अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखने वाली. मुस्लिम वोट पर पहले तो कांग्रेस का ही कब्जा हुआ करता था लेकिन अयोध्या में कारसेवकों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई करके मुलायम ने इसे अपनी झोली में झटक लिया.

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हाल फिलहाल मुलायम फिर से कारसेवकों पर कार्रवाई का जिक्र और उसे सही ठहरा रहे थे. साफ तौर पर मुस्लिम वोट को डोरे डालने का मकसद था. इन्हीं बातों को लेकर मुलायम सिंह को कभी उनके विरोधी 'मौलाना मुलायम' भी कहा करते थे.

समाजवादी पार्टी में आजम खां की पूछ की वजह भी उनका मुस्लिम होना ही है. फिर उन्हें मलाल है कि मुस्लिम होने के कारण ही वो प्रधानमंत्री नहीं बन सकते - वरना पीएम मैटीरियल तो वो पैदाइशी हैं.

अखिलेश राज में आजम खां की भी पूछ कम हो गई थी. मंत्रिमंडल में फेरबदल के मौके पर वो नदारद ही देखे गये. खैर, अभी तो वो अपने परम विरोधी अमर सिंह को भी नहीं रोक पाये.

कहते हैं समाजवादी पार्टी में हालिया उठापटक की पटकथा तो खुद मुलायम ने ही लिखी थी - आगे की अमर कथा की पटकथा भी लिख कर तैयार है, बस मुलायम के अप्रूवल का इंतजार है. पटकथा का मजमून बांचने वालों के बीच चर्चा है कि यूपी सीएम की कुर्सी फिलहाल मुलायम खुद संभाल सकते हैं. लेकिन पितृपक्ष से पहले शुभेच्छुओं ने स्क्रिप्ट पर कोई फैसला न लेने की भी सलाह दी है. वैसे भी प्रधानमंत्री पद का रास्ता तो यूपी होकर ही गुजरता है. लालू ने पिछली बार मुलायम को प्रधानमंत्री भले न बनने दिया - अब तो समधी भी हैं और सियासत में साथ भी.

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