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Updated: 22 जनवरी, 2017 01:30 PM
पीयूष द्विवेदी
पीयूष द्विवेदी
  @piyush.dwiwedi
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आरक्षण तो इस देश में हमेशा से ही बहस, विवाद और राजनीति का विषय रहा है. पर फ़िलहाल कुछ समय से ये विषय ठण्डा पड़ा था, लेकिन संघ विचार कमन मोहन वैद्य द्वारा अभी हाल ही में जिस तरह से आरक्षण पर बयान दिया गया, उसके बाद यह मामला फिर गरमा चुका है.

बीते दिनों जयपुर साहित्य महोत्सव में आरक्षण को लेकर सवाल पूछे जाने पर उन्होंने कहा था आरक्षण का विषय भारत में एससी-एसटी के लिए अलग से आया है. उस समाज का पूर्व में शोषण हुआ. उनको साथ लाने के लिए संविधान में आरंभ से आरक्षण का प्रावधान किया गया है. अंबेडकर ने कहा था कि किसी भी राष्ट्र में आरक्षण की व्यवस्था हमेशा रहे, यह भी ठीक नहीं है. बाकी सबको अवसर अधिक दिए जाएं, शिक्षा मिले. इसके आगे आरक्षण देना अलगाववाद को बढ़ावा देना है.

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 आरक्षण सिस्टम को बनाते वक्त उसकी समीक्षा के बारे में भी कहा गया था जो अभी तक नहीं हुई है

‘अब मनमोहन वैद्य ने ये बयान दिया नहीं कि पूरे राजनीतिक महकमे में इसका विरोध शुरू हो गया. इस बयान को संघ और भाजपा का दलित विरोधी रुख बताते हुए विविध राजनीतिक दलों के राजनेताओं द्वारा इसका विरोध शुरू कर दिया गया. लालू यादव, मायावती, अरविन्द केजरीवाल, रणदीप सुरजेवाला आदि नेता इस यान के विरोध में कमर कसकर उतर गए.ऐसा कहा जा रहा कि उन्होंने आरक्षण ख़त्म करने की बात कही है. लेकिन अगर हम मनमोहन वैद्य के उक्त बयान को देखें तो उसमें कहीं ऐसा कुछ नहीं दिखता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इसमें आरक्षण ख़त्म करने की बात है.

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गौर करें तो अपने बयान में वैद्य ने सिर्फ आरक्षण के लम्बे समय तक खिंचते जाने की ओर इशारा करते हुए अम्बेडकर के बयान का उल्लेख किया है. या यूँ कहें कि उनकी बात आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था के औचित्य को लेकर है. ये आरक्षण की समी. के प्रति आग्रही वक्तव्य है. इससे पूर्व बिहार चुनाव के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी यह बिंदु उठाए थे. तब उनका भी काफी विरोध हुआ था. लेकिन वास्तविकता यही है कि इस बिंदु पर चर्चा होनी चाहिए क्योंकि यह सवाल तो जायज़ है कि आज़ादी के बाद से चली आ रही आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था क्या अपने उस उद्देश्य में कामयाब हुई है, जिसके लिए इसे बनाया गया था ?लेकिन दिक्कत ये है कि जब भी इस तरह का सवाल कोई उठाता है, तो जाति के सहारे अपनी राजनीति चमकाने वाले राजनीतिक दलों द्वारा आँख मूंदकर उसका इस तरह विरोध शुरू कर दिया जाता है, जैसे कि वो आरक्षण को ख़त्म ही करने जा रहा हो. वैसे हकीकत तो यही है कि आरक्षण इस देश में अगर अधिक लम्बे समय तक बना रहता है, तो ये न केवल सामाजिक बल्कि हमारी बड़ी राजनीतिक विफलता भी होगी.

दरअसल, संविधान में आरक्षण की व्यवस्था देने का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज से असमानता को समाप्त करना तथा पिछड़े वर्गों को जीवन के हर क्षेत्र में अवसर की समानता देना था. आजादी के बाद संविधान में जाति आधारित आरक्षण का प्रावधान किया गया जो कि तत्कालीन सामाजिक, शैक्षणिक परिस्थितियों के अनुसार काफी हद तक उचित भी था. यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि संविधान की निर्मात्री सभा के अध्यक्ष डॉ अम्बेडकर का मानना था कि आरक्षण के जरिये किसी एक निश्चित अवधि में समाज की दबी-पिछड़ी जातियांस माज के सशक्त वर्गों के समकक्ष आ जाएंगी और फिर आरक्षण की आवश्यकता धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी.

इसी कारण उन्होंने आरक्षण के विषय में यह तय किया था कि हर दस वर्ष पर आरक्षण से पड़नेवाले अच्छे-बुरे प्रभावों की समीक्षा की जाएगी और जो तथ्य सामने आएंगे उनके आधार पर भविष्य में आरक्षण के दायरों को सीमित या पूर्णतः समाप्त करने पर विचार किया जाएगा.

पर जाने क्यों कभी भी ऐसी कोई समीक्षा नहीं हुई और आधिकारिक रूप से देश आज भी इस बात से अनभिज्ञ है कि आरक्षण से लाभ हो रहा है या हानि. साथ ही, आरक्षण के जिस दायरे को समय के साथ सीमित करने की बात संविधान निर्माताओं ने सोची थी, वो सीमित होने की बजाय और बढ़ता जा रहा है.

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आरक्षण की समीक्षा न होने व उसके दायरों के निरंतर बढ़ते जाने के लिए प्रमुख कारण यही कि आज आरक्षण जातिगत राजनीति करने वाले दलों और नेताओं के लिए तुष्टिकरण की राजनीति का एक बड़ा औजार बन गया है. ऐसे कई दल हैं जिनके अस्तित्व का आधार ही आरक्षण के भरोसे है. आरक्षण के वादे के दम पर तमाम दलों द्वारा अनुसूचित जातियों-जनजातियों को अपनी तरफ करने का सफल प्रयास किया जाता रहा है.

इन सब बातों को देखते हुए अब ये समझना बेहद आसान है कि इस तुष्टिकरण की राजनीति के ही कारण सभी राजनीतिक दलों द्वारा जाति आधारित आरक्षण की वकालत और इससे इतर आरक्षण पर किसी भी पक्ष का विरोध किया जाता है. मनमोहन वैद्य के बयान पर मचा बवाल भी इसी का एक उदाहरण है.

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 जब भी कभी आरक्षण की बात होती है तब-तब राजनीति गर्मा जाती है

ऐसे ही बिहार चुनाव के दौरान संघ प्रमुख मोहन गवत ने भी आरक्षण की समीक्षा व आर्थिक आधार पर आरक्षण देने से सम्बंधित बयान दिया था जिसका इसी तरह से विरोध हुआ था. जबकि वास्तव में आज इस बात की पुख्ता तौर पर ज़रूरत महसूस होती है कि आरक्षण की समीक्षा हो तथा उसके हानि-लाभ का आंकलन कर उसके वर्तमान स्वरूप को कायम रखने या न रखने का निर्णय लिया जाए. अम्बेडकर की भी यही इच्छा थी और इसी के लिए उन्होंने समीक्षा का प्रावधान भी किया था.

ये सही है कि समाज की कथित निम्न जातियों के तमाम लोग आज भी अक्षम और विपन्न होकर जीने को मजबूर हैं. लेकिन इन जातियों-जनजातियों में अब ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो कि आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक हर तरह से सशक्त हो चुके हैं. पर बावजूद इस सक्षमता के जाति आधारित आरक्षण के कारण बदस्तूर उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिलता जा रहा है.

ऐसे ही लोगों के लिए सन 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर शब्द का इस्तेमाल किया था. इस क्रीमी लेयर के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि क्रीमी लेयर यानि कि संवैधानिक पद पर आसीन पिछड़े तबके के व्यक्ति के परिवार व बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए. लेकिन जाने क्यों सर्वोच्च न्यायालय के इस क्रीमी लेयर की परिभाषा पर भी अमल करने में हमारा सियासी महकमा हिचकता और घबराता रहा?

हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय इस विषय पर कोई सवाल न उठाए इसके लि एहमारे सियासी आकाओं ने क्रीमी लेयर की आय में भारी-भरकम इजाफा कर उसकी परिभाषा को ही बदल दिया. यानि कि पहले डेढ़ लाख की वार्षिक आय वाले पिछड़े वर्ग के लोग क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते थे, पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने उस आय को बढ़ा कर साढ़े चार लाख कर दिया.

समय की ज़रूरत है कि आरक्षण की वर्तमान जाति आधारित व्यवस्था जो जातिगत राजनीति का एक उपकरण भर बनकर रह गयी है, में बदलाव लाया जाए और इसकी जगह आर्थिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की जाए. क्योंकि, जाति आधारितव आर्थिक आधार प रआरक्षण के बीच तुलनात्मक अध्ययन करने पर ये स्पष्ट है कि आर्थिक आधार पर अगर आरक्षण दिया जाए तो वो न सिर्फ समानता के साथ अधिकाधिक लोगों को लाभ पहुंचाएगा, बल्कि वर्तमान आरक्षण की तरह तुष्टि करण की राजनीति के तहत इस्तेमाल होने से भी बचेगा. अगर इन बातों पर सरकार द्वारा सही ढंग से ध्यान दिया जाता है तो ही हम आरक्षण के उस उद्देश्य को पाने की तरफ अग्रसर हो सकेंगे जिसके लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. अन्यथा तो आरक्षण एक अंतहीन प्रक्रिया जिसकी तरफ ही मनमोहन वैद्य ने अपने बयान में इशारा किया है, की तरह जारी रहेगा जिसका कोई लाभ और उद्देश्य नहीं होगा.

लेखक

पीयूष द्विवेदी पीयूष द्विवेदी @piyush.dwiwedi

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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