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Updated: 19 अक्टूबर, 2015 09:58 PM
गौरव चितरंजन सावंत
गौरव चितरंजन सावंत
  @gaurav.c.sawant
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26 मई 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के एक घंटे पहले अफगानिस्तान के तब के राष्ट्रपति हामिद करजई ने एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में मुझे बताया था कि हेरात में भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमले के लिए पाकिस्तान का लश्करे-तैयबा जिम्मेदार था.

करजई शपथ ग्रहण समारोह में भाग लेने के लिए दिल्ली आए थे. इसी समारोह में भाग लेने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सहित सार्क के अन्य नेता भी मौजूद थे. करजई ने कोई बड़बोलापन नहीं दिखाया था. उनकी खुफिया टीम के पास इस आंतकी हमले में पाकिस्तान से जुड़े तत्वों के शामिल होने की विस्तृत जानकारी थी. इस हमले का मकसद निर्वाचित प्रधानमंत्री को संदेश देना था. फिर चाहे वह 7 रेसकोर्स में बैठे मनमोहन सिंह हों या नरेंद्र मोदी, पाकिस्तान समर्थित आंतकवाद भारत को अस्थिर करना जारी रखेगा.

इस पर गौर कीजिएः

1. 13 मई, 2015: काबुल के एक गेस्ट हाउस में हुए पाकिस्तान समर्थित तालिबान आंतकी हमले में मारे गए 14 निर्दोष लोगों में चार भारतीय और एक अमेरिका का नागरिका शामिल था. अफगानिस्तान की खुफिया एजेंसी ने अपनी जांच रिपोर्ट में कहा कि इस हमले में निशाने पर भारतीय राजदूत थे.

2. 27 जुलाई, 2015: सेना के कपड़ों में आए पाकिस्तानी आतंकियों नें गुरुदासपुर स्थित दीनानगर पुलिस स्टेशन पर हमला किया. सुपरिटेंडेंट समेत सात लोग की इस आतंकी हमले में मौत हो गई. इससे पहले आतंकियों ने अमृतसर-पठानकोट रेल लाइन पर पांच बम लगाए थे. उनका इरादा जबर्दस्त तबाही लाने का था.

3. 5 अगस्त 2015: दो पाकिस्तानी आतंकियों ने उधमपुर में बीएसएफ के काफिले पर हमला किया. इस आंतकी हमले में बीएसएफ के दो जवान शहीद हो गए जबकि आठ अन्य घायल हो गए. एक पाकिस्तानी आतंकवादी को जिंदा पकड़ लिया गया.

4. 27 अगस्त, 2015: जम्मू-कश्मीर के बारामुला में हुए एक भीषण एनकाउंटर के बाद एक पाकिस्तानी आतंकवादी को जिंदा पकड़ा गया.

भारत में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद की घटनाओं के कई उदाहरण हैं, साथ ही लगातार घुसपैठ और सीजफायर के उल्लंघन की कोशिशें भी शामिल हैं जिनके कारण पाकिस्तानी सेनाओं द्वारा निर्दोष भारतीयों को अपनी जानें गंवानी पड़ती हैं.

आतंक के बीच आंतकवाद को समर्थन देने वाले देश के साथ क्रिकेट संबंधों को बहाल करने की मांग लगातार उठती रहती है. कई लोगों का तर्क है कि खेल को राजनीति और यहां तक की कूटनीति से भी अछूता रखा जाना चाहिए.

खेल हमेशा से दुनिया भर में कूटनीति का हिस्सा रहा है. संयुक्त राज्य अमेरिका ने 1980 के मास्को ओलंपिक में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले का विरोध दर्ज कराने के लिए भाग नहीं लिया था. और ऐसा करने वाला अमेरिका अकेला देश नहीं था बल्कि 60 देशों ने मास्को ओलंपिक का बहिष्कार किया था. यहां तक कि मोहम्मद अली की जबर्दस्त लोकप्रियता को देखते हुए अमेरिका ने उन्हें तंजानिया, नाइजीरिया और सेनेगल जैसे देशों में भेजा था ताकि इन देशों को मास्को ओलंपिक का बहिष्कार करने के लिए मनाया जा सके.

1984 में अमेरिका को उसके ही अंदाज में जवाब देने के लिए पूरे सोवियत संघ ने लॉस एंजिलिस ओलंपिक खेलों में भाग नहीं लिया. एक बार फिर से खेल देशों द्वारा एक दूसरे को दिए जाने वाले कूटनीतिक संकेतों का हिस्सा बना. क्या उस समय खिलाड़ियों और खेल संगठनों द्वारा इसका विरोध हुआ था? हां, कई अमेरिकी एथलीटों ने अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर से कहा था कि उनकी सारी मेहनत और ट्रेनिंग बेकार चली जाएगी. कार्टर ने उनसे कहा कि वह उनका दर्द समझते हैं लेकिन यह राष्ट्र के बड़े हित की बात है.

क्या बीसीसीआई, हमारे खिलाड़ियों, स्पॉन्सर्स आदि के लिए पैसा कमाना पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद में मारे गए भारतीयों के लिए न्याय मांगने से ज्यादा महत्वपूर्ण है?

क्या बीसीसीआई इन सवालों के जवाब दे सकती है-

1. क्या पाकिस्तान ने 26/11 के मुंबई आतंकी हमले के दोषियों को सजा दिलाने के लिए कोई कार्रवाई की?

2. क्या पाकिस्तान ने भारत को निशाना बनाने वाले आतंकवाद को रोकन के लिए कोई कदम उठाया?

3. क्या पाकिस्तानी सेना ने भारत में भेजे जाने आतंकियों को सहायता, प्रशिक्षण और समर्थन देना बंद कर दिया है?

4. क्या पाकिस्तान ने भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने के लिए नकली भारतीय करंसी छापना बंद कर दिया है?

5. क्या पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में भारतीय हितों को नुकसान पहुंचाना बंद किया?

6. क्या बीसीसीआई, हमारे क्रिकेटरों और स्पॉन्सर्स के लिए भारतीयों की जिंदगी से ज्यादा महत्वपूर्ण पैसा है?

अगर नहीं, तो हम पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने को लेकर इतने आतुर क्यों हैं? ग्‍लोबल सीरीज के मामले में कुछ मजबूरी हो सकती है लेकिन द्विपक्षीय क्रिकेट को बहाल करने का क्या औचित्य है. क्या यह सभी भारतीयों की जिम्मेदारी नहीं है कि वह ये संदेश दें कि हम उस देश से समर्थित आतंकवाद को और नहीं सहेंगे. और न ही उसे रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाए जाने तक उसके साथ क्रिकेट ही खेलेंगे.

खेल अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का अहम हिस्सा है और यह महज मॉस्को या लॉस एंजिलिस तक सीमित नहीं है. एक समय समूचे क्रिकेट जगत ने रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका का बहिष्कार किया था. नतीजतन, 1970 में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) ने दक्षिण अफ्रीका को प्रतिबंधित कर दिया.

इसके बाद 1971 में ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट टीम ने दक्षिण अफ्रीका का दौरा रद्द कर दिया. उससे पहले 1968 में संयुक्त राष्ट्र की महासभा (यूएनजीए) ने भी रंगभेद नीति खत्म किए जाने तक दक्षिण अफ्रीका के सभी खेल संघों के बहिष्कार का आह्वान किया था. उससे भी पहले 1964 में दक्षिण अफ्रीका के टोक्यों ओलंपिक में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध लगाया गया था.

19 अगस्त को आईपीएल कमिश्नर राजीव शुक्ला ने ट्वीट किया, 'क्रिकेट जेंटलमैन गेम है. इस खेल से प्यार करने वाले लोगों से उदारता और सहनशीलता की उम्मीद की जाती है'.

जहां तक मुंबई में बीसीसीआई ऑफिस में शिवसेना द्वारा हंगामा करने का सवाल है तो मैं यहां राजीव शुक्ला से सहमत हूं. लेकिन मिस्टर शुक्ला क्या आतंक रंगभेद से कम खतरनाक है? अगर पूरा क्रिकेट जगत रंगभेद को लेकर दक्षिण अफ्रीका का बहिष्कार कर सकता है तो भारत क्यों नहीं पाकिस्तान की आर्मी और ISI द्वारा समर्थित आतंकवाद को रोके जाने तक उसके साथ क्रिकेट खेलने से मना कर सकता है.

पाकिस्तान को यह समझना होगा कि वह एक टीम बंदूकों के साथ और दूसरी टीम क्रिकेट के बल्लों के साथ यहां नहीं भेज सकता. यह संदेश मजबूती से और एक आवाज में पाकिस्तान के पास पहुंचना चाहिए. नहीं तो, पाकिस्तान ऐसे ही हमारे साथ खेलता भी रहेगा और हमें लहूलुहान भी करता रहेगा और फिर हम खुद को ही दोष देते रह जाएंगे.

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लेखक

गौरव चितरंजन सावंत गौरव चितरंजन सावंत @gaurav.c.sawant

लेखक इंडिया टुडे टेलीविजन में एडिटर (स्ट्रैटेजिक अफेयर्स) हैं.

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