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Updated: 19 मई, 2016 04:35 PM
विनीत कुमार
विनीत कुमार
  @vineet.dubey.98
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दिलचस्प है. पिछले ही हफ्ते जब पूरा देश पांच राज्यों के चुनावी नतीजे का इंताजार कर रहा था, तरुण गोगोई ने अपनी ऑटोबायोग्राफी 'टर्नअराउंड: लीडिंग असम फ्रॉम द फ्रंट' रिलीज कर दी. 82 साल के हो चुके गोगोई को शायद विदाई की आहट लग गई हो. एंटीइनकंबैशी सहित कई और फैक्टर मसलन बांग्लादेशी प्रवासियों का मुद्दा रहा जिससे बीजेपी को इतिहास रचने का मौका मिल गया. लेकिन गोगोई की उम्र भी राज्य में कांग्रेस की हार का एक कारण रही? अगर हां! तो केरल के बारे में क्या कहेंगे जहां अच्युतानंद शायद देश सबसे उम्रदराज मुख्यमंत्री बनने की ओर हैं.

उम्र का खेल!

कहा जा रहा है कि तमाम कारणों के बीच 80 साल से ऊपर के एक चेहरे को एक बार फिर बतौर सीएम पेश करना भी कांग्रेस के लिए महंगा पड़ा. जबकि बीजेपी ने असम में 53 साल के सर्वानंद सोनोवाल को बतौर सीएम प्रोजेक्ट कर दिया था. तो क्या कांग्रेस को चाहिए था कि वो गोगोई के अलावा कोई और चेहरा तलाशती. लेकिन कांग्रेस करती क्या. कोई और चेहरा था ही नहीं. गोगोई पर आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने असम में अपने समकक्ष कोई दूसरा चेहरा पैदा होने ही नहीं दिया. सोनिया और राहुल गांधी से नजदीकी ने उन्हें खुली छूट दी. पार्टी में असंतोष पैदा हुआ. हेमंत बिस्वा शर्मा जैसा नेता बीजेपी में जा मिला.

फिर भी, अगर उम्र कारक है तो केरल की राजनीति के बारे में क्या कहेंगे जहां 92 साल का एक चेहरा केंद्र में बना हुआ है.

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 उम्र न पूछो नेता की...

लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (LDF) की सत्ता में वापसी हुई है. अभी हालांकि कहना जल्दबाजी होगी कि वहां सीएम कौन होगा. 92 साल के वीएस अच्युतानंदन या फिर कोई और. अच्युतानंदन के अलावा सियासी हलको में 72 साल के पिन्नारई विजयन का नाम भी सुर्खियों में है. लेकिन उम्र के लिहाज से तो दोनों युवा मिजाज के करीब नजर नहीं आते.

अंतर गोगोई की 'हार' और अच्युतानंदन की 'जीत' का

असम में गोगोई जरूर अपनी सीट जीतने में कामयाब रहे लेकिन पार्टी की हार उनके राजनीतिक करियर का अंत है. लेकिन आखिर क्या कारण है कि एक जगह पर एक पार्टी को हार का सामना करना पड़ता है जबकि दूसरे राज्य में जनता 90 साल से ऊपर के शख्स पर भरोसा दिखाती है. जाहिर तौर पर भारतीय राजनीति में उम्र अब भी बड़ा फैक्टर नहीं है.

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 गोगोई के बाद कौन?

गोगोई की हार का कारण जनता में असंतोष का बढ़ना रहा. चिकित्सा से लेकर कानून व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति, बांग्लादेश से 'घुसपैठ' और गोगोई पर उसे वोट बैंक के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश जैसे गंभीर आरोप पार्टी पर भारी पड़े. बीजेपी ने इन्हें ही मुद्दा बनाया और चुनाव से पहले ही वह ज्यादा मजबूत नजर आने लगी थी.

दूसरी ओर, अच्युतानंदन और LDF को एक फायदा तो केरल की चुनावी इतिहास का मिला जहां करीब-करीब यह तय रहता है कि हर पांच साल में सत्ताधारी पार्टी को कुर्सी छोड़नी है. LDF में ही अच्युतानंदन के कई विरोधी मौजूद हैं लेकिन पिछले दो महीनों में चुनाव प्रचार के दौरान सब एकमंच पर रहे और शायद ही कोई विवाद सामने आया. इसका फायदा इस फ्रंट को मिला. विभिन्न चुनावों में अच्युतानंदन की जीत का ट्रैक रिकॉर्ड भी देखिए तो वो भी गजब का है. पिछले दो चुनावों में वो बीस हजार से ज्यादा मतों से विजयी रहे हैं. मतलब साफ है, युवा चेहरे को मौका देने वालों का जरूर स्वागत कीजिए लेकिन भारतीय लोकतंत्र में उम्र अब भी एक 'जुमला' ही है.

लेखक

विनीत कुमार विनीत कुमार @vineet.dubey.98

लेखक आईचौक.इन में सीनियर सब एडिटर हैं.

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