क्या लालू गैर एनडीए दलों के रिंग मास्टर बन गए हैं
पटना पहुंचे तो राबड़ी देवी ने मकई की रोटी और ओल का चोखा पहले से ही तैयार करा रखा था. दिसंबर के महीने में ठंड के बावजूद राजनीतिक माहौल काफी गर्म था.
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ढाई साल पहले जब लालू प्रसाद जेल जा रहे थे तो उन्हें सबसे बड़ी चिंता थी कि पार्टी का क्या होगा? ढाई महीने जेल में बिताने के बाद जब बाहर आए तो कार्यकर्ताओं ने लालटेन जलाकर स्वागत किया, मिठाइयां बांटी और खूब नारेबाजी भी की. पटना पहुंचे तो राबड़ी देवी ने मकई की रोटी और ओल का चोखा पहले से ही तैयार करा रखा था. दिसंबर के महीने में ठंड के बावजूद राजनीतिक माहौल काफी गर्म था. कुछ ही महीनों में लोक सभा चुनाव जो होने वाले थे.
कैसे बढ़ी ताकत
लोक सभा चुनाव में लालू को सीधे तो नहीं, परोक्ष रूप से काफी फायदा हुआ. सीटें तो बस चार ही मिलीं लेकिन 142 विधान सभा क्षेत्रों में आरजेडी उम्मीदवार पहले और दूसरे स्थान पर रहे.
दूसरी तरफ, सत्ताधारी जेडीयू को सीटें भी दो ही मिलीं और महज 37 विधानसभा क्षेत्रों में उसके उम्मीदवार नंबर 1 या 2 पर आए. जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश कुमार ने इस्तीफा देकर जीतन राम मांझी को कुर्सी पर बिठा दिया.
करीब बीस साल बाद लालू और नीतीश ने फिर से दोस्ती का हाथ मिलाया - और बिहार में महागठबंधन बना. कुछ ही दिन बाद हुए उपचुनावों में महागठबंधन को उम्मीद से ज्यादा कामयाबी मिली. बस यहीं से लालू की ताकत में इजाफा होना शुरू हो गया.
नौ महीने बाद जब नीतीश ने मांझी से कुर्सी वापस मांगी तो उन्होंने इनकार कर दिया. इस दौरान हर किसी ने मांझी के कंधे पर बंदूक रख कर नीतीश को निशाना बनाया. चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस सब यही चाहते थे कि मांझी जितना भी नीतीश को नुकसान पहुंचा सकें पहुंचा दें.
फिलहाल लोक सभा का वोट शेयर ही लालू के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है. उसी के आधार पर लालू गठबंधन की स्थिति में ज्यादा सीटों पर दावेदारी जता रहे हैं.
जातीय और अन्य समीकरण
बिहार में लालू के सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला भी उन्हें मजबूत बनाता है. एमवाय यानी मुस्लिम यादव समीकरण के जनक लालू को लोक सभा चुनाव में भी इसी का फायदा मिला. बिहार के यादव-मुस्लिम बहुल पूर्वोत्तर इलाके से ही लालू को लोक सभा की चार सीटें मिली थीं. अगर इसी फैक्टर की बात करें तो बिहार में 14 फीसदी यादव और 16.5 फीसदी मुस्लिम वोट है. ये किसी के भी वोट बैंक पर भारी पड़ता है. खास बात ये है कि बाकी समीकरणों में वोट बंट जाते हैं जबकि लालू का वोट बैंक हरदम एकजुट रहता है.
कौन कौन है लालू के सहारे
अभी तक कांग्रेस पार्टी पूरी तरह लालू पर निर्भरता जता रही है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार काफी हद तक लालू पर निर्भर हैं. न तो जनता परिवार का गठन हो पाया न गठबंधन कोई रूप ले सका है, जबकि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार पर गतिरोध अब भी बना हुआ है. मांझी को साथ लेने का शिगूफा छोड़ कर लालू ने नीतीश की मुश्किल और बढ़ा दी है. हालांकि, मांझी ने दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात भी कर ली है. मांझी की मोदी से मुलाकात अमित शाह के पॉजिटिव संकेत देने के बाद हुई है. लालू और नीतीश में गठबंधन न होने की स्थिति में कांग्रेस के लिए मुश्किल ये है कि वो जाए तो जाए किसके साथ?
इस दौरान लालू को अगर किसी तरह का नुकसान हुआ है तो वो है पप्पू यादव का आरजेडी से निकाला जाना. मधेपुरा सांसद पप्पू यादव पूर्णिया, सहरसा, मधेपुरा, अररिया और सुपौल में लगातार सक्रिय रहे हैं. सुपौल से ही उनकी पत्नी रंजीता रंजन कांग्रेस सांसद भी हैं.
अब लालू को उम्मीद है कि जिस तरह आय से अधिक संपत्ति के मामलों से जयललिता बरी हो गईं, वो भी देर सबेर हो ही जाएंगे. कैसे बरी होंगे इसे सबसे बेहतर तो वही समझ रहे होंगे. आगे जो भी हो, फिलहाल तो बिहार की मौजूदा राजनीति में लालू प्रसाद रिंग मास्टर जरूर बने हुए हैं.

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