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Updated: 19 अगस्त, 2015 05:44 PM
शेखर गुप्ता
शेखर गुप्ता
  @shekharguptaofficial
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अब शक की कोई गुंजाइश नहीं बची कि सरकार आखिरकार FTII के आंदोलनकारी छात्रों से हो रही जंग में जीत जाएगी. सरकारें किसी भी समय बहुत शक्ति‍शाली हो जाती हैं, लेकिन इस मामले में, विपक्ष में एक संस्थान के कुछ छात्र ही हैं. अगर ये आईआईटी या आईआईएम और एम्स होते, जिसमें बड़ी तादात में छात्र और माता-पिता शामिल होते, तो आक्रोश और भी ज़्यादा होता.

बहुत सारे तथ्य हैं जो आंदोलनकारियों के खिलाफ जाते हैं. इस संस्थान में अशांति का एक लंबा इतिहास रहा है. एयर इंडिया की तरह यहां भी एक साल में एक दो बार हड़ताल हो ही जाती है. पंद्रह वर्षों से यहां कोई भी दीक्षांत समारोह आयोजित नहीं किया गया. यहां के प्रतिष्ठित पूर्व छात्रों की संख्या बहुत है, लेकिन वो भी उतना नहीं बढ़ी जितना बढ़नी चाहिए थी.

लिहाजा, इसे किसी लोकप्रिय पारम्परिक शिक्षण संस्थान के रूप में नहीं देखा जाता. हमारे देश में पढ़ाई, परीक्षा, रैंक और ऑन कैंपस प्लेसमेंट के आधार पर ही एक संस्थान को व्यवसायिक संस्थान माना जाता है.

सृजनात्मक शिक्षा की भी बहुत अहमियत है, लेकिन सिर्फ तब, जब वो परंपरागत क्षेत्र जैसे आर्कीटेक्चर, डिज़ाइन या फिर कला से तल्लुक रखती हो. ये परंपरागत इसलिए हैं क्योंकि ये सीधे रोजगार से जुडे हैं,, जो FTII नहीं है.

यहां तक कि कुछ ही बड़े फिल्मी सितारे हैं जो FTII के पूर्व छात्र हैं, या फिर कोई और औपचारिक फिल्म ट्रेनिंग किए हुए हैं. आज शायद चोटी के 25 सितारों में से कोई भी FTII से नहीं है. ये FTII के कड़वे दशकों के साथ साथ, बॉलीवुड में स्टार बनने के वंशानुगत सिलसिले को ऋद्धांजलि देने जैसा है.

व्यवसायिक सिनेमा में आए बूम की वजह से संस्थान सालों अराजकता से पीड़ित रहा है. बॉलीवुड को हिन्दी, यहां तक कि मराठी थियेटर से नई प्रतिभाओं को खोज निकालने में कभी कोई हिचक नहीं हुई. लेकिन FTII को छोड़ दिया गया. ऐसा इसलिए क्योंकि यहां के नेतृत्व ने संस्थान को असफल बना दिया, और इसका सबसे ज़्यादा फायदा हुआ बॉलीवुड को.

दूसरी परेशानी ये कि, ये संस्थान गलत मंत्रालय में आता है. वरना 1960 में इस संस्थान की स्थापना करते हुए तत्कालीन सरकार ने एक दूरदर्शियता भरा फैसला लिया था. सरकारें इसे फंड देती रहीं फिर भी, जैसा आम तौर पर सृजनात्मक और शिष्ट संस्थान के साथ होता है, जबकि इसका सरकार-विरोधी था, चाहे कोई भी सत्ता रहा.
   
लेकिन क्योंकि ये सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत था, वो मंत्रालय जिसका मानना है कि उसकी मुख्य ज़िम्मेदारी (किसी भी सरकार में) ये सुनिश्चित करना है कि उसके आकाओं को बढ़िया प्रेस मिल सके, इससे समय के साथ-साथ FTII में नाराज़गी बढ़ती गई.

वर्तमान व्यवस्था इसका पूरा फायदा उठा रही है. गजेन्द्र सिंह चौहान के साथ समस्या ये नहीं है कि उन्हें बीजेपी ने नियुक्त किया है. कांग्रेस ने भी अपनी पसंद की नियुक्तियां की थीं, समस्या ये है कि उनका CV इस लायक नहीं है.

उनकी नियुक्ति किसी घिनौनी साजिश का हिस्सा नहीं है. उस मामले में, बीजपी के पास खेर से लेकर विनोद खन्ना तक या फिर भगवा संस्कृति से कई सारे प्रख्यात लोग थे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं था. ये बस किसी को नौकरी देने जैसा था. जैसा कि सेंसर बोर्ड की बागडोर एक कम योग्य इंसान को दी गई थी, FTII में भी कुछ ऐसा ही हुआ.

दुख की बात है कि FTII की शीर्षस्थ नौकरी को एक फालतू और चैन की नौकरी के रूप में देखा गया. और भी दुख की बात ये है कि सरकार तब तक कुछ नहीं करेगी जब तक कि अदालत बीच में नहीं आती या फिर चौहान खुद इस्तीफा नहीं देते. सबसे ज़्यादा दुख की बात तो ये है कि मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर बॉलीवुड के शीर्ष पर बैठे लोग मौन हैं.

जैसे कि- जया बच्चन कहां हैं? वो FTII के पूर्व विद्यार्थियों में से सबसे ज़्यादा लोकप्रिय, राजनीतिक प्रभाव वाली सम्मानित शख्सियत हैं. यहां तक कि मैने तो उनके साथ FTII में एक शानदार वॉक द टॉक रिकॉर्ड किया था. अगर वो और उनके जैसे और लोग संस्थान को बचाने का बीड़ा उठा लें तो अब भी भविष्य सुधर सकता है.

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लेखक

शेखर गुप्ता शेखर गुप्ता @shekharguptaofficial

वरिष्ठ पत्रकार

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