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Updated: 13 अगस्त, 2018 05:36 PM
राहुल लाल
राहुल लाल
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देश के वामपंथी राजनीति के पुरोधा एवं शिखर स्तंभ सोमनाथ चटर्जी का निधन संपूर्ण राष्ट्र के लिए अपूरणीय क्षति है. वे 2004 से 2009 बीच लोकसभाध्यक्ष पद पर रहे. पेशे से वकील सोमनाथ चटर्जी ने 1968 में राजनीति शुरु की. मात्र 3 साल बाद ही 1971 में लोकसभा के सदस्य बन गये. इस दौरान वे निर्दलीय जीते थे, हालांकि उन्हें सीपीएम का समर्थन प्राप्त था. भारत के संसदीय इतिहास में उन्हें 10 बार सांसद बनने का गौरव हासिल है.

1971 से शुरू हुई संसदीय पारी 2009 तक चली. इसमें से 1984 अपवाद है, जब उन्हें पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से हार का सामना करना पड़ा. वर्ष 2004 में 14 वीं लोकसभा में वे 10 वीं बार निर्वाचित हुए. साल 1989 से 2004 तक वे लोकसभा में सीपीआईएम के नेता भी रहे. उन्होंने 35 सालों तक एक सांसद के रुप में देश की सेवा की. इसके लिए उन्हें साल 1996 में उत्कृष्ट सांसद पुरस्कार से नवाजा गया था.

somnath chatterjeeसोमनाथ चटर्जी को संसदीय इतिहास में 10 बार सांसद बनने का गौरव हासिल है.

क्यों याद रहेंगे सोमनाथ चटर्जी-

लोकसभाध्यक्ष के रूप में एक नए इतिहास का सृजन-

4 जून 2004 को 14 वीं लोकसभा के अध्यक्ष के रुप में श्री सोमनाथ चटर्जी का सर्वसहमति से  निर्वाचन से सदन में एक इतिहास रच गया. लोकसभा अध्यक्ष के रुप में सोमनाथ चटर्जी का निर्वाचन प्रस्ताव तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने रखा, जिसे तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी ने अनुमोदित किया. इस लोकसभा के 17 अन्य दलों ने भी सोमनाथ चटर्जी का नाम प्रस्तावित किया, जिसका समर्थन अन्य दलों के नेताओं द्वारा किया गया. इसके बाद वह निर्विरोध अध्यक्ष निर्वाचित हुए.

सरकारी पैसों से सांसदों के चायपानी पर रोक-

बतौर स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने सरकारी पैसों से सांसदों के चाय पानी पर रोक लगा दी थी. सोमनाथ चटर्जी ने ही दबाव डाला था कि अगर कोई सांसद विदेशी दौरे पर जाता है, और उसके साथ उसके परिवार वाले जाते हैं, तो परिवार वालों का खर्चा सांसदों को ही वहन करना होगा.

स्पीकर सोमनाथ चटर्जी और संसद तथा न्यायपालिका आमने-सामने-

भारत ने संसदीय व्यवस्था ब्रिटेन से ग्रहण की लेकिन भारतीय संसद ब्रिटिश संसद की तरह सर्वशक्तिमान नहीं है. यहां स्वतंत्र न्यायपालिका विद्यमान है, परंतु न्यायिक संप्रभुता की भी स्थिति नहीं है. ऐसे में भारतीय संविधान संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता के सिद्धांतों के बीच एक सामंजस्य स्थापित करता है. यही कारण है कि लोकसभाध्यक्ष के रूप में सोमनाथ चटर्जी ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा विधायी कार्यों में हस्तक्षेप को लेकर कड़ा विरोध दर्ज कराया. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के नोटिस को भी स्वीकार करने से इंकार कर दिया था. उसी समय जब झारखंड विधानसभा में बहुमत परीक्षण के दौरान सदन की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कैमरे लगाने के निर्देश दिए, तब भी सोमनाथ चटर्जी ने इस पर कड़ा विरोध दर्ज कराया कि न्यायपालिका अपने कार्यक्षेत्र से आगे जाकर विधायी कार्यों में हस्तक्षेप कर रही है. अंतत: उन्होंने विधायी कार्यों में न्यायिक हस्तक्षेप को लेकर देश के सभी विधानसभाध्यक्षों की बैठक भी बुलाई. यही वह समय था, जब संसद और सुप्रीम कोर्ट आमने-सामने थी तथा देश ने "लोकसभाध्यक्ष" को वास्तव में विधायिका के अभिभावक के रूप में भी देखा.

लोकसभाध्यक्ष की जिम्मेदारी को सही मायने में दलगत राजनीति से ऊपर रखा-

सैंद्धांतिक तौर पर मनमोहन सिंह की अगुवाई में जब भारत सरकार ने अमेरिका से परमाणु समझौता किया, तो ये वक्त सोमनाथ चटर्जी के जीवन में सियासी उथल पुथल का था. एक तरफ सोमनाथ चटर्जी के ऊपर दलगत राजनीति से तटस्थ होकर लोकसभाध्यक्ष की भूमिका के निर्वहन की जिम्मेदारी थी, तो दूसरी ओर उनकी पार्टी सीपीआई(एम) परमाणु समझौते का विरोध करते हुए सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सोमनाथ चटर्जी से भी लोकसभाध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया. लेकिन सोमनाथ चटर्जी जो सिद्धांत के पक्के थे, उन्होंने पार्टी जिम्मेदारी की तुलना में संवैधानिक जिम्मेदारी को महत्व दिया तथा स्पीकर पद से इस्तीफा नहीं दिया. 22 जुलाई 2008 को विश्वास मत के दौरान किए गए लोकसभा के संचालन के लिए उनको देश के विभिन्न नागरिकों तथा विदेशों से काफी सराहना मिली. लेकिन इस घटनाक्रम से नाराज सीपीईसी(एम) ने उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया. इस घटनाक्रम से दुखी सोमनाथ चटर्जी के आंसुओं को संपूर्ण देश ने लोकसभा में देखा था.

सोमनाथ चटर्जी ने कामगार वर्ग तथा वंचित वर्ग के लोगों के मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाकर उनके हितों के लिए आवाज बुलंद करने का कोई अवसर नहीं गंवाया. सोमनाथ चटर्जी का वाद-विवाद कौशल, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों की स्पष्ट समझ, भाषा के ऊपर पकड़ और जिस नम्रता के साथ वो सदन में अपना दृष्टिकोण रखते थे, उसे सुनने के लिए पूरा सदन एकाग्रचित्त होकर सुनता था. सोमनाथ चटर्जी ने भले ही 2009 में सक्रिय राजनीति से अलविदा कह दिया था और 2018 में हम सबों को अलविदा कह दिया, लेकिन उनके वे अमूल्य सिद्धांत सदैव जीवंत रहेंगे, जिन्होंने भारतीय संसदीय परंपरा को कई नवीन आयामों से विभूषित किया.

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लेखक

राहुल लाल राहुल लाल @rahul.lal.3110

लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं

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