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Updated: 24 फरवरी, 2016 06:15 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
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एक अच्छा नागरिक किसे कहा जाएगा? वह जो नेशनल सिक्योरिटी के लिए अपनी प्राइवेसी को दांव पर लगा दे या फिर वह जो अपनी निजता के लिए नेशनल सिक्योरिटी को दरकिनार कर दे? इस अहम सवाल का जवाब खोजने की कोशिश अमेरिका की प्रमुख जांच एजेंसी एफबीआई (फेडरल ब्यूरो ऑफ इनवेस्टिगेशन) और दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी एप्पल के बीच छिड़ी जंग में की जा रही है.

मामला दिसंबर 2015 सैन बर्नार्डिनो में हुई मास किलिंग (आतंकी हमला) का है जिसमें एक पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक दंपत्ति ने अंधाधुंध फायरिंग कर 14 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. इसकी जांच में जुटी एफबीआई के हाथ आरोपी सैय्यद रिजवान फारूख का आईफोन लगा लेकिन वह इस फोन से जानकारी नहीं ले सकी.

ऐसा इसलिए कि अमिरकी कंपनी एप्पल द्वारा निर्मित आईफोन दुनिया के उन चुनिंदा स्मार्टफोन में है जो अपने यूजर से संबंधित सभी आंकड़ों को किसी के हाथ नहीं लगने देता क्योंकि क्योंकि आईफोन में यूजर डेटा टेक्नोलॉजी की भाषा में एन्क्रिप्ट कर दिया जाता है. इस एन्क्रिप्टेड डेटा को पाने के लिए एफबीआई ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है जिससे वह कंपनी को आदेश दे सके कि एफबीआई को डीक्रिप्ट करने के लिए सॉफ्टवेयर दिया जाए.

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इस मामले में अमेरिका के प्रतिष्ठित प्यू रिसर्च ने स्मार्टफोन यूजर के बीच एक सर्वे भी कराया है जिसमें पूछा गया है कि क्या एप्पल को आतंकी सैय्यद रिजवान फारूख के आईफोन को अनलॉक कर देना चाहिए. इस सर्वे में 51 फीसदी लोगों का मानना है कि एप्पल को नैशनल सिक्योरिटी से जुड़े इस सवाल में एफबीआई का साथ देते हुए फोन को अनलॉक कर देना चाहिए वहीं 38 फीसदी लोगों का मत इसके खिलाफ है क्योंकि उन्हें उनकी प्राइवेसी ज्यादा महत्वपूर्ण है. हालांकि इस सर्वे के विरोध में कहा जा रहा है कि प्यू रिसर्च का सर्वे गलत सवाल कर रहा है.

एप्पल का दावा है कि एन्क्रिप्टेड फोन को डीक्रिप्ट करने के लिए एक विशेष सॉफ्टवेयर की जरूरत पड़ती है. वह सॉफ्टवेयर एफबीआई को देने से एप्पल फोन के सभी यूजर के लिए प्राइवेसी नाम की कोई चीज नहीं रह जाएगी. हालांकि की एफबीआई की तरफ से बढ़ते दबाव के चलते बिल गेट्स और मार्क जकरबर्ग सरीखे कारोबारी भी एप्पल की पैरवी में उतर आए हैं कि एफबीआई ऐसे सॉफ्टवेयर के लिए किसी कंपनी पर दबाव नहीं डाल सकती क्योंकि यह उन कंपनियों और ग्राहकों के बीच के करार को खारिज कर देगा और फिर किसी की कोई भी सूचना गोपनीय नहीं रह जाएगी.

अब यह रहा अमेरिका, एफबीआई और एप्पल के बीच का मुद्दा. इस मुद्दे का भारत पर क्या फर्क पड़ता है? अमेरिका में 50 फीसदी से ज्यादा लोग आईफोन का इस्तेमाल करते हैं वहीं भारत में महज 1 फीसदी जनसंख्या इस फोन का इस्तेमाल कर रही है. लेकिन इससे भारत में स्मार्टफोन यूजर के डेटा पर खतरा कम नहीं होता बल्कि बढ़ जाता है. मौजूदा समय में भारत में 28 से 30 फीसदी स्मार्ट फोन का इस्तेमाल हो रहा है और मोबाइल फोन इंडस्ट्री का अनुमान है कि 2020 तक भारत में लगभग 40 फीसदी जनसंख्या स्मार्टफोन का इस्तेमाल करने लगेंगे. अब भले ये सभी एप्पल के आईफोन न हों जहां यूजर के डेटा की सुरक्षा करने की किसी तरह की कोई गारंटी मिली हुई है (भले वह अमेरिकी कंपनी के हाथ में हो).

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हमारे देश में इस्तेमाल हो रहे ज्यादातर स्मार्टफोन चीन में निर्मित हैं. इन सभी में प्राइवेसी करार नगण्य के बराबर है. लिहाजा तेजी से बढ़ते स्मार्टफोन यूजर के साथ-साथ यूजर संबंधित डेटा या तो मोबाइल कंपनियों के पास एकत्रित हो रहे हैं नहीं तो देश की मोबाइल और इंटरनेट सेवा देने वाली कंपनियों के पास. लिहाजा, आईफोन को छोड़ दें तो बाकी स्मार्टफोन में यूजर के लिए प्राइवेसी तो पहले से ही राम भरोसे है.

अब रहा सवाल देश के उन 1 फीसदी लोगों की प्राइवेसी का जो आईफओन इस्तेमाल कर रहे हैं. इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि भारत में आतंकवाद में लिप्त लोग आईफोन का भी इस्तेमाल कर रहे होंगे. लिहाजा अमेरिका की तरह हमारे सामने भी नैशनल सिक्योरिटी बनाम निजता का सवाल तो जरूर खड़ा है. लेकिन इससे पहले हमारे देश के नागरिक अमेरिकी नागरिकों की तरह नैशनल सिक्योरिटी और निजता के सवाल पर जवाब दें, हमारी सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह पहले देश में स्मार्टफोन यूजर को प्राइवेसी मुहैया कराए. क्योंकि आईफोन के मुकाबले हो सकता है चीन के स्मार्टफोन यहां आतंकियों को ज्यादा स्मार्ट न लगे लेकिन स्मार्टफोन के बढ़ते क्रेज में हमारी निजता तो स्वत: ही खो रही है. हमारी निजता कहीं आईफोन के साथ-साथ चीन के स्मार्ट फोन, माबाइल और इंटरनेट सेवा दे रही कंपनियों के पास पहले से गिरवी तो नहीं पड़ी है?

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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