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Updated: 05 अगस्त, 2016 02:51 PM
बालकृष्ण
बालकृष्ण
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मशहूर कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की बेटी सरोज जब अठारह साल की थी, तब अचानक इस दुनिया से चल बसी. बेटी की असमय, अचानक मौत से फक्कड़ कवि निराला एकदम टूट गए. जो बेटी उन्हें जान से प्यारी थी, जिस बेटी को लेकर उन्होंने तरह-तरह के सपने संजोए थे, उसके इस तरह अचानक चले जाने की वेदना को समेटकर निराला ने 'सरोज स्मृति' नाम की एक लंबी कविता लिख डाली. बेटी के याद में लिखी गई उनकी ये रचना, कालजयी शोकगीत बन गई. हिन्दी ही नहीं, 'सरोज स्मृति' को, दुनिया के किसी भी भाषा में लिखे गए सबसे मार्मिक शोकगीतों में से एक माना जाता है.

पिछले हफ्ते जब अस्पताल में, स्कूल ड्रेस पहने, अपनी मां के बेड के बगल में गुमसुम बैठी, बारह साल की उस लडकी को देखा तो जाने क्यों, सालों पहले पढ़े 'सरोज स्मृति' की याद ताजा हो गई. वह लड़की थी बीजेपी के नेता दयाशंकर सिंह की बेटी जो अपनी बीमार मां स्वाति सिंह से मिलने स्कूल से सीधा अस्पताल आई थी. इस कदर डरी और सहमी हुई, जैसे कोई सचमुच अभी उसे इस कमरे से खींचकर बाहर चौराहे पर ले जाएगा.

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 नेता के सियासत में होने की कीमत बेटी, बहु और बीवी को चुकानी पड़ती है

दयाशंकर सिंह ने मायावती के लिए जो कुछ कहा, उसे सबने सुना और देखा. और उसके बाद, बीएसपी के नेताओं और हजारों कार्यकर्ताओं ने हिसाब बराबर करने के लिए लखनऊ के हजरतगंज चौराहे पर जिस तरह दयाशंकर की बेटी और बीवी को पेश करने के वहशी नारे लगाए वो भी सबने देखा. मां नहीं चाहती थी, लेकिन सातवीं क्लास में पढ़ने वाली दयाशंकर की बेटी ने भी सारा तमाशा टीवी पर देखा. बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता जब मायावती को देवी साबित करने के लिए दयाशंकर सिंह की बेटी और बीवी को पेश करने की मांग कर रहे थे तब मैं वहीं मौजूद था- एक रिपोर्टर की हैसियत से. "दयाशंकर कुत्ता है", "हम उसकी जीभ काट लेंगे", और "उसकी बेटी को पेश करो, पेश करो"- जैसे तमाम नारे उस दिन मैंने भी देखे-सुने थे.

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लेकिन इन नारों का असर क्या होता है यह बात तब समझ में आई जब अस्पताल में मैंने दयाशंकर सिंह की बेटी से बात करने की कोशिश की. मेरी ये पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि वह 'पेश करने' का मतलब समझती है या नहीं. लेकिन उसके सहमे हुए चेहरे और शर्म से झुकी हुई निगाहों ने बता दिया कि वो सब कुछ समझती है.

उसकी मां ने बताया कि जब से ये सब हुआ है, उनकी बातूनी बेटी, अचानक चुप हो गई है. अब ना वो दोस्तों से बात करना चाहती है और ना ही ट्यूशन जाती है. बस कमरे में अकेले बंद होकर रोती रहती है और अपने उस पापा को याद करती है जिन्होंने फरार होने से लेकर गिरफ्तार होने तक, कभी फोन पर भी उसका हाल-चाल नहीं लिया.

तब ये अहसास हुआ कि निराला की बेटी तो एक बार मरी थी, नेता की बेटी को कई बार मरना पड़ता है. नेता के सियासत में होने की कीमत बेटी, बहु और बीवी को जाने कितनी बार चुकानी पड़ती है. उनकी इज्जत कभी भी चौराहे पर उछाली जा सकती है. लेकिन उन्हें सब कुछ सहना पड़ता है - चुपचाप, खामोशी से. क्योंकि नेता के बीवी, बहु और बेटी की इज़्जत, शायद इज्ज़त होती ही नहीं. अगर होती, तो यूपी की सियासत के कीचड़ में आए दिन उन्हें घरों से बाहर घसीटकर इस तरह से नंगा नहीं किया जाता.

बुलंदशहर की गैंग रेप की घटना पर जब आजम खान ने सरकार को बदनाम करने की साजिश जैसी बेतुकी बात कही तो सब ने उसकी निंदा की. लेकिन बीजेपी के प्रवक्ता आई पी सिंह को लगा कि इस सियासत में स्वाद तब तक नहीं आएगा, जब तक आज़म के बेटी और बीवी को इसमें ना खींच लिया जाए. और आजम खान की बेटी और बहू को इस कीचड़ में घसीट कर लाने के लिए फेसबुक से बेहतर सार्वजनिक जगह भला क्या हो सकती थी! तो उन्होंने अपने फेसबुक पर लिखा- "आजम मिंया की आंखें तभी खुलेंगी जब उनकी बेटी और बीवी के साथ गैंगरेप होगा".

आई पी सिंह खुद ही बेटी के पिता हैं लेकिन उन्हें शायद मालूम नहीं होगा कि आजम खान की बेटी के साथ गैंगरेप नहीं हो सकता.  क्योंकि उनकी बेटी है ही नहीं. लेकिन  गैंग रेप की बात उनकी बीवी ने भी जरुर सुनी होगी. आजम खान की बीवी राज्यसभा की सांसद हैं, और अपने पति से उलट बेहद शांत, गंभीर और शालीन महिला हैं. उनके लिए ऐसी सोच रखने के लिए आई पी सिंह जैसे सूरमा का ही कलेजा चाहिए.

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लेकिन आजम खान शिकायत करें भी तो कैसे. वो तो खुद लड़के-लड़की का हिसाब करने में मशगूल थे. लखनऊ की अपनी रैली में राहुल गांधी बड़बोलेपन में बोल गए कि अखिलेश लड़का तो अच्छा है लेकिन कुछ कर नहीं पाया. आजम खान भला ऐसा चटखारेदार मौका कहां चूकने वाले थे!फौरन प्रियंका और सोनिया पर निशाना साधते हुए आजम खान ने जवाबी जुगलबंदी कर दी और फिकरा कसा कि लड़के हमारे यहां अच्छे हैं और लड़कियां उनके यहां. ये भी कह डाला कि उनकी लड़की अच्छी तो है लेकिन काम अच्छे नहीं करती. आज़म ने सोनिया गांधी को भी नहीं बख्शा और कहा- एक औरत भी है वहां वो भी काम अच्छे नहीं करती. औरत और लड़की तो वहां ज्यादा है. यहां तो लड़के ही हैं.

कांग्रेस के नेता बस दांत पीसकर सुनते ही रह गए. लेकिन बात प्रियंका और सोनिया पर ही रूक जाती तब भी गनीमत थी. यूपी के नेताओं पर तो लगता है महिलाओं को जलील करने का सुरूर कुछ इस तरह चढ़ा है की दादी की उम्र की शीला दीक्षित भी नहीं बच पाईं. कल तक मायावती के आगे भीगी बिल्ली बन कर रहने वाले स्वामी प्रसाद मौर्या की मर्दानगी आजकल ऐसी जाग गई है कि गुरुवार को बस्ती में एक कार्यक्रम में उन्होंने शीला दीक्षित को दिल्ली का 'रिजेक्टेड माल' कह डाला. दिल्ली से लेकर यूपी-बिहार में इस शब्द का इस्तेमाल किन अर्थों में होता है, स्वामी प्रसाद मौर्य भी जरुर जानते होंगे. लेकिन जब तक शब्दों से किसी महिला का चीर हरण नहीं किया, जब तक विरोधी को नीचा दिखाने के लिए उसकी बेटी पेश करने की मांग न की जाए, तब तक लोगों को पता कैसे चलेगा कि वह स्वामी प्रसाद मौर्य और नसीमुद्दीन सिद्दीकी राजनीति के कितने बड़े सूरमा हैं.

चर्चा है कि दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह चुनाव लड़ सकती हैं. यह भी हो सकता है कि वो विधायक बन जाएं और उनके जख्मों पर कुछ मरहम लग जाए. लेकिन 12 साल की उस बेटी का क्या जिसके लिए दयाशंकर नेता नहीं, सिर्फ 'पापा' हैं. इसलिए जब वो सुनती है तो उसके पापा के जीभ काट लेने पर किसी ने 50 लाख का ईनाम रख दिया है तो बंद कमरे में, फूट-फूट कर रोती है.

इस समय जेल में बंद उसके पापा कोई निराला या रवीन्द्र नाथ टैगोर भी नहीं जो बेटी की वेदना में 'सरोज स्मृति' या 'काबुलीवाला' लिख दें. सियासत के बिस्तर पर 'पेश होने' की पीड़ा में दयाशंकर की बेटी को घुट-घुट कर खुद ही मरना है. वो नेता की बेटी है, शायद इसलिए, उसका कोई शोकगीत भी नहीं हो सकता.

लेखक

बालकृष्ण बालकृष्ण @bala200

लेखक आज तक में पत्रकार हैं.

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