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Updated: 06 जुलाई, 2015 11:30 AM
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सरकार का कहना है कि उसने 2011 के सामाजिक-आर्थिक और जाति आधारित जनगणना के आर्थिक डाटा को इसलिए सार्वजनिक किया है, क्योंकि वह लोगों के आर्थिक पिछड़ेपन से ज्यादा चिंतित है. सुर्खियां कहती हैं कि जातिगत आंकड़े जारी नहीं किए गए. जबकि यह सच नहीं है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़ों को सार्वजनिक किया गया है.

आप देख सकते हैं कि राज्य दर राज्य कितने घरों में नौकरीपेशा लोग रहते हैं. महीने में कितने लोग पांच हजार से ज्यादा कमाते हैं या कितने लोगों के पास अपनी जमीन या गाड़ी है. आप इन आंकड़ो को राज्यवार देख सकते हैं. इसमें एससी, एसटी परिवार, अन्य दूसरे परिवार (SC और ST छोड़कर) और फिर वैसे परिवार जहां महिलाओं की भूमिका प्रमुख है, शामिल हैं.

जाहिर है जारी किए गए आंकड़ों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और उच्च वर्ग से संबंधित आंकड़ो को छिपाया गया है. इससे निश्चित रूप से जातिगत जनगणना के मुख्य उद्देश्य को धक्का लगा है.

जातिगत जनगणना को मंजूरी इसलिए मिली थी क्योंकि कई पार्टियों की रूचि ओबीसी संख्या में है. सरकार ने कहा है कि इन आंकड़ों को संसद में रखा जाएगा. सरकार के अनुसार यह बजट डॉक्यूमेंट है इसलिए इसे सबसे पहले संसद में सार्वजनिक किया जाना चाहिए. लेकिन ऐसा नही है. सही कारण शायद यह है कि सरकार अभी बिहार चुनाव से ठीक पहले ओबीसी की संख्या और आरक्षण पर कोई बहस करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती.

जातिगत आंकड़ों को छिपाने का एकमात्र मकसद राजनैतिक ही हो सकता है. एक समाचार पत्र की हेडलाइन कहती है कि सामाजिक उथल-पुथल को टालने के लिए इस डाटा को छिपाया जा रहा है. यह सुनकर ऐसा लगता है कि आंकड़े सामने आ जाने से देश में दंगे शुरू हो जाएंगे. हम सच से डरते क्यों हैं. जब हमें एससी और एसटी के आंकड़ो से कोई समस्या नहीं है तो फिर ओबीसी और उच्च वर्ग की संख्या सामने लाने से हम क्यों हिचक रहे हैं?

ओबीसी आरक्षण की नीति पर किसी ठोस फैसले के लिए इन आंकड़ो को सामने लाना जरूरी है. आज जबकि नेशनल कमिशन फॉर बैकवॉर्ड क्लासेस (एनसीबीसी) और कई राज्य कमिशन अपने नियमित सर्वे को नहीं कर रहे हैं, जिससे हमें पता चलता कि फलां जाति को ओबीसी में रहना चाहिए या नहीं. ऐसे में हमें इस गणना के डाटा की सख्त जरूरत है. हमें यह जानने की जरूरत है कि क्या राजस्थान के जाट सच में आर्थिक रूप से इतने पिछड़े हैं कि उन्हें किसी आरक्षण की जरूरत है. सवाल यह भी कि भारत में गरीबी और आर्थिक विकास जाति से इतने जुड़े हुए हैं. फिर हम सबसे बड़ी जाति समूह ओबीसी के आंकड़ो से इतना क्यों डर रहे हैं?

जब पिछली बार 2006 में हम ओबीसी आरक्षण पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस कर रहे थे तब हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं था. मंडल कमिशन ने 1931 की जनगणना को आधार बनाते हुए यह पाया था कि 52 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में आते हैं. इसके बाद नेशनल सैंपल सर्वे (NSSO) के एक डाटा से यह बात सामने आई कि आज करीब 41 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में शामिल हैं.
 
इस डाटा से ओबीसी वर्ग डरा हुआ नहीं हैं बल्कि उच्च वर्ग जरूर चिंतित है. जैसे ही यह मालूम होगा कि कितने ओबीसी हैं, वे पूछना शुरू करेंगे कि उन्हें आरक्षण के बराबर प्रतिनिधित्व क्यों नहीं दिया गया. अगर एससी और एसटी को उनकी जनसंख्या के अनुसार आरक्षण मिलता है तो फिर यही बात ओबीसी पर लागू क्यों नहीं होती. अब हमारे पास इन सवालों के जवाब नहीं है इसलिए आंकड़े भी जारी नहीं किए जाते. जो यह नहीं चाहते कि ओबीसी से संबंधित डाटा सार्वजनिक किए जाए उन्हें शायद डर है कि आंकड़े आने के बाद दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार ओबीसी की संख्या के बारे में पूछा है. लेकिन भारतीय सरकार जिसने कई दशकों के टालमटोल के बाद जातिगत गणना कराई, अब इसका खुलासा नहीं करना चाहती. अगर सरकार इसे छिपा रही है तो इसका मतलब है कि सच्चाई जरूर बेहद कड़वी होगी. सरकार हालांकि इसे ज्यादा दिनों तक नहीं छिपा सकेगी. जहां तक बिहार चुनाव की बात है तो सरकार आंकड़े जारी करे या नहीं, यह विवाद जरूर चुनावी मुद्दा बनेगा.

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लेखक

शिवम विज शिवम विज @shivamvijdillidurast

लेखक एक पत्रकार हैं.

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