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Updated: 07 मार्च, 2017 08:27 PM
फाल्गुनी तिवारी
फाल्गुनी तिवारी
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उत्तर प्रदेश के 7वें चरण के चुनाव प्रचार की समाप्ति के साथ ही पांचों विधान सभाओं के चुनाव की प्रक्रिया लगभग अन्तिम चरण में पहुंच चुकी है. 8 मार्च को मतदान सम्पन्न होते ही पूरे देश की निगाहें मतगणना पर टिकी रहेंगी. केन्द्रों में सत्तारूढ़ मोदी सरकार के कामकाज पर तो यह चुनाव एक तरह से जनमत संग्रह जैसा ही है. गोवा में भाजपा सत्तारूढ़ पार्टी है. पंजाब में वह सत्तारूढ़ गठबंधन का अभिन्न हिस्सा. उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश एवं सुदूर पूर्व मणिपुर में भाजपा सत्ता की प्रबल दावेदार है.

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विधानसभा चुनाव मोदी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं. पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर एवं गोवा में तो कांग्रेस से ही सीधी टक्कार है. इन राज्यों में भाजपा की बड़ी हार भाजपा की 2019 की मुहिम के लिए दु:खदायी होगी. लेकिन भाजपा के लिए सबसे प्रमुख एवं निर्णायक चुनौती उत्तर प्रदेश जीतने की है. उत्तर प्रदेश की जीत इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि बिहार की पराजय के बाद हिन्दी हृदय-स्थल में बिना विजयी हुए भाजपा की 2019 की चुनावी मुहिम विश्वसनीय नहीं लगेगी. उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रधानमंत्री मोदी सहित 72 सांसद हैं. उत्तरप्रदेश में स्प्ष्ट बहुमत से कुछ भी कम मोदी की नीतियों पर प्रश्न चिन्ह लगा देगी.

इस चुनाव में नोटबन्दी का मुद्दा तो है ही. चुनाव से ठीक पहले नोटबन्दी लागू करके मोदी ने एक ऐसा राजनैतिक दांव चला था, जिसका दुनिया में सानी नहीं है. यह निश्चय ही साहसी कदम था. नोटबंदी के एक दांव से विरोधी दल चित्त हो गये. माया से लेकर ममता, अखिलेश से लेकर राहुल और केजरीवाल, सब मोदी की नोटबंदी के खिलाफ लामबन्द हो गये. मोदी को नोटबंदी का आर्थिक नफा-नुकसान जो भी रहा हो, गरीबों, शोषित एवं सर्वहारा वर्ग को अपनी ओर लामबंद करने में जरूर सफलता मिली है. मायावती, ममता एवं केजरीवाल के हाहाकारी चिल्लपों ने गरीबों की मोदी के प्रति एकजुटता को और भी मजबूत किया है. यदि निकाय चुनाव के परिणाम नोटबंदी के मापदंड माने जाए तो नोटबंदी के उपरान्त सभी स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा की बढ़त आम जनमानस में नोटबंदी की स्वीकार्यता दर्शाती है. उत्तर प्रदेश में भाजपा द्वारा नोटबंदी के सकारात्मक परिणाम की उम्मीद करना बेमानी नहीं है.

और अब जब 7वें एवं अंतिम चरण का प्रचार थम चुका है, उत्तर प्रदेश के प्रमुख प्रतिद्वंदी दलों की रणनीति की समीक्षा की जा सकती है. बसपा ने एक रणनीति के तहत इस बार मुसलमानों को लुभाने की कोशिश की. अति उत्साह में बसपा ने एक बड़ी रणनीतिक भूल कर डाली. मुसलमानों को लुभाने के चक्कर में वह मुस्लिम तुष्टिकरण में सपा एवं कांग्रेस से भी आगे निकल गयी. दलित-मुस्लिम गठजोड़ के लिए जिस वैचारिक बड़प्पन एवं सहृदयता की आवश्यकता है, उसके लिए न तो दलित समाज ही उतना परिपक्वप है और न ही मुस्लिम समाज ही उतना उदात्त. मायावती अपने परम्परागत दलित-अति पिछड़े मतों को बसपा के मुस्लिम प्रत्याशियों के पक्ष में लामबंद नहीं कर पायी. इसी प्रकार हर बार की तरह बसपा के सवर्ण उम्मीदवार भी अपने सजातीय वोट बटोरने में उतने सफल नहीं रहे. अखिलेश यादव तो अक्टूबर 2016 में ही हिट-विकेट हो गये थे. पिता एवं चाचा द्वय की त्रयी के पाश से मुक्त  होने के चक्कर में उन्होंने ऐसा दांव चला कि खुद ही मैट से बाहर जा गिरे. अखिलेश वर्चस्व की लड़ाई में जयकारा लगाने वाले चाटुकारों की रौ में कुछ इस तरह बह गये कि उन्होंने 25 वर्ष पुरानी समाजवादी पार्टी एवं पिता मुलायम सिंह की पिछड़ों एवं अल्प‍संख्यकों की शानदार विरासत को ही लात मार दी. जब महज़ 40 सीटें शिवपाल यादव को देकर समाजवादी कुनबे का एका बनाए रखा जा सकता था, तो क्यों कर कांग्रेस जैसी निर्जीव एवं थकी-हारी पार्टी को 105 सीटें उपहार स्वारूप दे दी, यह तो चुनाव-विश्लेषकों के समझ के भी परे है. नोटबंदी के अलावा भी भाजपा के रणनीतिकारों ने सधी हुई चालें चली हैं. भाजपा ने सबसे बड़ी बुद्धिमानी का कार्य यही किया कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री का कोई चेहरा सामने नहीं लाए. सवर्ण मतदाताओं की आपसी एकता बनाए रखने एवं पिछड़े-दलितों को अपनी ओर रोके रहने में यह नीति कारगर दिखती है. किसी भी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट न देना एवं कुछ यादवों को टिकट देकर भाजपा ने हिन्दू् ध्रुवीकरण को प्रकारान्तर से हवा दी है. इसी बहाने भाजपा ने बसपा एवं सपा-कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति को रेखांकित करने में भरपूर सफलता पायी है. गाज़ीपुर जैसे जनपद तक में यादव-मुस्लिम परम्परागत एकता टूट गयी है एवं यादव भी इस चुनाव में भाजपाई हो गये हैं.

प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि उत्तरप्रदेश चुनाव को मोदी ने क्योंकर अपनी निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया हैॽ राजनाथ सिंह के अलावा उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास कोई मतदाताओं को लुभाने वाला स्थाानीय चेहरा नहीं है. 2002 के चुनाव में राजनाथ के लाख प्रयास के बावजूद भी न तो भाजपा की पार्टी एवं संगठन में वह एकजुटता दिखी एवं न ही सवर्ण का. 2007 एवं 2012 के विधान सभा चुनावों में भी राष्ट्रीय एवं प्रदेश की यही कमजोरी भाजपा को इस सत्ता की दौड़ फिसड्डी ही साबित करती रही है. पर मोदी के आने बाद पूरी पार्टी एवं संगठन में उर्जा का संचार हुआ है. मोदी सच्चे मायने में सेना के सेनानायक हैं. वह अपनी सेना का नेतृत्व सबसे आगे से करते हैं. उनके अन्दर गज़ब की उर्जा है जो बिना थके बनारस के 4 घंटे के रोड-शो में लगातार खड़े रह कर जनता को दोनों हाथ हिलाकर अभिवादन करते हैं एवं पुष्प वर्षा भी. एक संस्कारित योगी की भॉति संयमित जीवनचर्या एवं धर्मनिष्ठ होने का उपमान भी देते हैं.

भले ही आज़म खान मोदी के बनारस रोड-शो को नुक्कड़ सभा कहें, या मोदी की स्थानीय नेता जैसी प्रचार शैली पर तंज कसे. उत्तर प्रदेश  के चुनाव प्रचार से मोदी ने एक बात तो स्पष्ट कर दी है कि इस समय राष्ट्रीय परिदृश्य में उनका कोई सानी नहीं है. न तो भाजपा में एवं न ही कांग्रेस या अन्य किसी पार्टी के नेता मोदी के कद के आस-पास खड़े हो पाते हैं. फणनवीस एवं शिवराज सिंह जैसी प्रादेशिक स्वीकार्यता उत्तर प्रदेश के किसी स्थानीय नेता में न होने के कारण भी मोदी को उत्तर प्रदेश में ओवर टाईम करना पड़ा है. आज भले ही मोदी का चुनाव प्रचार जरूरत से ज्यादा लगे, किन्तु उत्तर प्रदेश  एक प्रदेश भर नहीं है, यह भारत का हृदय प्रदेश है. दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है और 2019 भी कोई बहुत दूर नहीं है. इस तथ्य को मोदी से भला और कौन जानता है. 6 चरण के चुनाव एवं 7वें चरण के धुंआधार प्रचार से तो यही लगता है कि शायद मोदी की मेहनत रंग लायेगी.

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लेखक

फाल्गुनी तिवारी फाल्गुनी तिवारी @falguni.tewari.1

लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च असिस्टेंट हैं

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