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Updated: 02 नवम्बर, 2016 11:08 AM
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चुनावी वादे भी अब कंज्यूमर राइट्स की शक्ल लेते दिख रहे हैं. आगे से अगर किसी पार्टी ने कोई चुनावी वादा किया और सरकार बनने पर पूरा नहीं किया तो उसे भी वैसे ही लेने के देने पड़ सकते हैं जैसे किसी कंपनी को सर्विस न देने पर.

चुनाव आयोग अब ऐसी पार्टियों से उनका चुनाव चिह्न तक छीन लेने की योजना पर काम कर रहा है - और वो भी अगले ही चुनावों में.

क्या है प्लान?

मौजूदा चुनाव आयोग में भी फिर से टीएन शेषन और केजे राव जैसे अफसरों के साये देखे जा सकते हैं, जिनकी कोशिशों की बदौलत अपराधियों के चुनाव लड़ने और चुनावों में भारी भरकम खर्च पर काबू पाया जा सका.

आयोग की ताजा कोशिश वोट देने वालों के अच्छे दिन और वादाखिलाफी करने वालों के बुरे दिन लाने की है.

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खबर है कि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों से स्टांप पेपर पर उनके वादों का हलफनामा लेने की तैयारी में है - जिनसे पीछे हटना कड़ी कार्रवाई को न्योता देना होगा.

खबरों के मुताबिक 23 सितंबर को आयोग की हुई एक मीटिंग के इंटरनल लेटर में लिखा है, “यह माना जाता है कि मैनिफेस्टो ही चुनावी वादों का एक रूप है, जिन्हें पूरा करने के लिए उसी स्तर के धन की भी जरूरत होती है. मतदाताओं का भरोसा चुनावी वादों पर ही टिका होता है इसलिए उन्हें पूरा किया जाना जरूरी है.”

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आइडिया बेहतरीन, चुनौतियां हजार

आयोग का मकसद साफ है - अगर चुनाव बाद किसी ने अमानत में खयानत की सोची भी तो उसकी खैर नहीं. ऐसा करने पर उस पॉलिटिकल पार्टी का सिंबल तक वापस लिया जा सकता है.

द टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये नियम उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों से ही लागू होने जा रहा है.

यानी अब चाहे कोई स्मार्टफोन देने का वादा करे या फिर चांद सितारे तोड़ कर लाने का - आयोग को बस इतने से मतलब होगा कि जो भी करो बस लिख कर जमा कर दो ताकि वक्त आने पर सनद रहे - और नोटिस भेज कर जवाब मांगा जा सके.

अमल कैसे होगा?

ऐसे देखें तो आइडिया तो बेहतरीन है. वादों का हलफनामा आयोग में दाखिल होने से अब लोग भी ठोक बजा कर वोट देंगे - और बाद में कुछ ऊंच नीच हुआ तो चुनाव आयोग तो है ना. लोग इतना तो मान कर चल ही सकते हैं कि अब कोई भी राजनीतिक दल भोले भाले वोटरों को आसानी से बेवकूफ नहीं बना पाएगा - बड़े बड़े वादों के झांसे में नहीं ला पाएगा.

निश्चित तौर पर राजनीतिक दलों पर भी चुनावी प्रतियोगिता के चलते अनाप शनाप वादे करने बचने के लिए दबाव बनेगा. जो भी वादे करेंगे - उनके पीछे ठोस योजना जरूर बनाएंगे और मैनिफेस्टो का हिस्सा बनाने से पहले दो बार सोचेंगे भी.

लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि आयोग इस पर अमल कैसे करेगा? आयोग ये कैसे सुनिश्चित करेगा कि किसी सत्ताधारी पार्टी ने अपने चुनावी वादे पूरे नहीं किये. आखिर उसका कोई फूलप्रूफ मेकैनिज्म कैसे बन पाएगा? अगर कोई राज्य सरकार कोई वादा इसलिए नहीं निभा पाई क्योंकि उसमें केंद्र को अप्रूवल देना था तो कैसे तय होगा कि असल दोषी कौन है?

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दिल्ली की जंग ऐसे मामलों में बढ़िया केस स्टडी हो सकता है. आम आदमी पार्टी ने 70 वादे किये थे - लेकिन जब से सरकार बनी केंद्र की मोदी सरकार से झगड़ा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा. वादों की बात कौन करे?

अगर नया नियम लागू होने का बाद दिल्ली जैसी स्थिति कहीं और बनती है तो चुनाव आयोग उन परिस्थितियों से कैसे निबटेगा?

अव्वल तो चुनाव आयोग कैसे तय करेगा कि चुनावी वादों पर संबंधित सरकार पूरी तरह अमल कर रही है भी या नहीं?

चुनाव काल में आयोग के पास पूरे अधिकार होते हैं - और हर तरह का मानव संसाधन भी. लेकिन चुनाव प्रक्रिया पूरी होने के बाद आयोग के पास आवश्यक कामकाज भर से ज्यादा स्टाफ नहीं होता. चुनाव के वक्त तो आयोग राजनीतिक दलों के पाई पाई के खर्च का हिसाब ले लेता है - लेकिन क्या चुनावी मैनिफेस्टो की तहकीकात भी आयोग उसी तरीके से कर पाएगा? फिलहाल तो नहीं लगता?

आम दिनों में आखिर चुनाव आयोग कैसे मालूम करेगा कि वादों पर अमल हो रहा है भी या नहीं. क्या इसके लिए उसे इतने अधिकार मिलेंगे कि वो जब चाहे किसी भी सरकार से योजनाओं की प्रोग्रेस रिपोर्ट तलब कर सके? या वो भी उन तमाम मॉनिटरिंग एजेंसियों पर निर्भर रहेगा जो मीडिया की खबरों और सर्वे के आधार पर अपनी रिपोर्ट तैयार करती हैं? या फिर थक हर कर आयोग भी सूचना के अधिकार कानून की मदद लेगा?

2012 के विधानसभा चुनावों के दौरान शिरोमणि अकाली दल ने 12वीं के सभी छात्रों को लैपटॉप देने का वादा किया था - लेकिन बाद में वो पंजाब सरकार पर सवा लाख करोड़ का कर्ज बता कर वादे से पलट गया. 2012 में ही समाजवादी पार्टी ने लैपटॉप देने का वादा किया था - और अब उसने स्मार्टफोन देने की बात कही है. इस बार फर्क ये होगा ये बात उसे लिख कर चुनाव आयोग को देनी होगी. लैप टॉप देने में अगर कोई भूल चूक रही भी तो कोई बात नहीं लेकिन समाजवादी स्मार्टफोन में कोई चालाकी नहीं चलेगी.

सबसे बड़ा सवाल ये है कि वादे पूरे हुए या नहीं इस बात की पैमाइश तो किसी भी सरकार के पूरे कार्यकाल की समीक्षा के बाद ही संभव हो पाएगी. तो क्या आयोग सरकार के कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद उसके कामकाज को रिव्यू करेगा. तब तक तो नयी सरकार आ चुकी होगी? अगर चुनाव आयोग इन सबके लिए कोई कारगर कार्ययोजना नहीं बना पाया तो उसकी ये कवायद भी जुमला ही साबित होगी.

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