New

होम -> ह्यूमर

 |  3-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 26 मार्च, 2015 07:47 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

अरसे बाद गौशाला में खूब चहल पहल थी. वरना वीरानी तो रोजमर्रा की बात थी. गायें तो वहां आना-जाना कब का छोड़ चुकी थीं. भेड़ बकरियां और मुर्गे तो उधर का रास्ता ही भूल चुके थे.

आज की महफिल कुछ ज्यादा ही गुलजार थी. कह सकते है कि जॉर्ज ऑरवेल के एनिमल फार्म जैसा जीवंत माहौल था. जानवरों की अपनी अलग जुबान होती है जिसे वे आपस में समझ लेते हैं. इंसानों की बातें समझने के लिए उन्हें भी इंटरप्रेटर की जरूरत होती है और इसके लिए वे नन्हकू की मदद लेते हैं. नन्हकू गौशाला का केयर टेकर है जिसे पंचायत ने नियुक्त कर रखा है. नन्हकू ने अपने दादा से जानवरों की बोली और उन्हें अपनी बात कैसे समझाई जाए ये सब सीख रखा है.

अब नन्हकू ही गौशाला के जानवरों को अपडेट दिया करता है. वही बताता है कि दिन की बड़ी खबर क्या है? और ट्विटर पर पर क्या ट्रेंड कर रहा है? जब नन्हकू ने उन्हें खबर दी थी कि #BeefBan ट्विटर पर दूसरे दिन भी नंबर वन पर ट्रेंड कर रहा है तो एक आपात बैठक बुलाई गई.

ये गौशाला गांव के बाहर एक खंडहर है जिसका एक सिरा जंगल से सटा हुआ है. नन्हकू की मानें तो उसके दादा के जमाने में आस पास के जानवर हर रोज वहां जुटते थे. तब नन्हकू के दादा उन्हें इंसानों के किस्से और राजनीतिक गतिविधियों के बारे में बताया करते थे. जानवरों की सबसे ज्यादा दिलचस्पी राजनीति में थी. ये बात नन्हकू को उसके दादा ने बताई थी.

नत्थू बकरे ने सबसे पहले मंच संभाला. "भई मान गए. गायों के तो अच्छे दिन आ गए." दुधनी गाय भी भीड़ में बैठे बैठे मुस्करा रही थी. नत्थू की बात पर उसने पलकें झपका कर हामी भर दी.

इसके बाद मित्तू चूहे ने सिर उठाया और गर्दन इधर-उधर घुमाते बोला, "जब मांझी जैसा ही एक इंसान अपने सूबे में ऑर्डर दे सकता है तो मांझी ऐसा क्यों नहीं कर सकते थे. इंसानों के लिए तो उन्होंने वो सब किया जो कर सकते थे क्या सपने में भी उन्हें हमारा ख्याल नहीं आया."

"हां, वैसे तो बड़े शान से बताते थे कि उन्होंने भी खूब चूहे खाए हैं," मित्तू के पास बैठे पुत्तू चूहे ने जोड़ा, "क्या इंसानों को खाते वक्त या खाने की बात पर ही हमारी याद आती है. बाद में उन्हें सब भूल जाता है."

"जब इंसान अपनों को ही भूल जाते हैं तो भला हम जानवरों को उम्मीद करना तो बेमानी ही है," मित्तू ने बात को आगे बढ़ाया. नत्थू फिर शुरू हो गए, "भई ये बात तो अब पूरी तरह साफ हो चुकी है कि इस गोले पर ठप्पे के साथ कोई पैदा नहीं होता. ये बात जितनी इंसानों पर लागू होती है उतनी ही जानवरों पर भी वैसे ही लागू होती है."

"ये इंसान ही हैं जो खुद की तरह हम जानवरों को भी बांट दिए हैं. बल्कि हमे तो और बुरा फंसा दिया है. उन्होंने अपने लिए तो कम से कम एक लकीर खींच ली है. जहां से खड़े हुए वहीं से उनकी लाइन शुरू भी होती है और कई बार अंत भी हो जाती है," मुन्ना मुर्गे ने नत्थू की बात को आगे बढ़ाया.

"कौन बच्चा किस धर्म और जाति का कहलाएगा ये तो वे पैदा होते ही तय कर लेते हैं. लेकिन हमारी जाति और धर्म तो मरते वक्त तय होती है. चाकू चलने से पहले तक हमें मालूम नहीं होता कि हमारा मजहब क्या है?" नत्थू ने मुन्ना की बात को आगे बढ़ाया, "हम जीवन भर सेक्युलर बने रहते हैं. कोई नहीं पूछता या फिर अपनी राजनीति के लिए हमें सेक्युलर बनाए रखा जाता है. अगर चाकू से हलाल किया गया तो हमारा मजहब अलग हो जाता है - और चाकू ने झटका दे दिया तो किसी और मजहब के खाते में रजिस्ट्रेशन हो जाता है."

ऑडिएंस में तादाद सबसे ज्यादा तो भेड़ों की थी. फिर भी सब के सब शांत बैठे हुए थे. एक्स ऑफिशियो चेयरमैन प्रसाद भैंसा सभा की अध्यक्षता कर रहे थे. उनके बगल में कुमारी भैंस बैठी हुई थीं.

सबसे ज्यादा गुस्सा उन्हें 'आप' और 'हम' से था. आप यानी आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल और हम यानी हिंदुस्तान अवाम मोर्चा के नेता जीतन राम मांझी से. केजरीवाल से उन्हें उम्मीद थी कि जो इंसान आम आदमी के बारे में सोचता हो वो जानवरों के बारे में जरूर सोचेगा. लेकिन दिल्ली चुनावों में जब आप के मेनिफेस्टो में 70 में से एक भी खाने में उन्हें अपने लायक कुछ भी नहीं दिखा तो वे बड़े निराश हुए. इसी तरह उन्हें जीतन राम मांझी के मुख्यमंत्री बनने पर उम्मीद जगी थी कि कम से कम वो उन्हें महादलितों में तो शामिल करने का शासनादेश जारी कर ही देंगे. जब मांझी ने भी ऐसा नहीं किया तो उनका दिल टूट गया. वे बड़े मायूस हुए.

सभी जानवर ध्यान से सुन रहे थे इसलिए मुन्ना और नत्थू की आवाज तेज होती जा रही थी.

"होली हो, दिवाली, नया साल हो या फिर जश्न की कोई और वजह, कटना हमे ही है. हमारा कोई सेंसस नहीं होता. हो सकता है हमारे पैदा होने और कटने की तादाद इतनी ज्यादा है कि सेंसस किसी के बूते की बात भी नहीं है. तो इस तरह से तो हम बहुसंख्यक हुए. लेकिन अल्पसंख्यक का दर्जा तो दूर हम तो दलित कैटेगरी में भी नहीं आते."

"बिहार में नीतीश कुमार ने जब महादलित आयोग बनाया था तो लगा अब दिन बहुरेंगे. लेकिन उन्होंने कुछ भी नहीं किया." "मांझी से तो हमे इतनी उम्मीद थी कि क्या कहें. ऐसा लगा मांझी हम मुर्गों और बकरों को महादलित में तो शामिल कर ही लेंगे. लेकिन वो भी दगा दे गए. अगर मांझी हमें महादलित कैटेगरी में डाल देते तो अगला मुख्यमंत्री बनने से उन्हें कौन रोक सकता था?" "हम तो नवंबर में मांझी के लिए ही वोट मांगते. घास-फूस खानेवालों की बात छोड़ भी दें तो मुर्गा खानेवालों की तादाद कम है क्या? हम धरना देते प्रदर्शन करते? बंद की कॉल देते. क्या किसी की मजाल होती कि हमे नजरअंदाज कर दे. लोग बंद नहीं करते तो जबरन बंद करा देते."

बात चली जा रही थी और कोई नतीजा नहीं दिख रहा था. फिर कालू भेड़ खड़े होकर बोले, "भई समस्याएं तो अनगिनत हैं क्या हमारे पास इनका कोई समाधान भी है." तेतरी बकरी ने कालू की बात को एंडोर्स किया.

आखिर में सर्व सम्मति से प्रस्ताव पारित हुआ कि नवंबर में होने जा रहे चुनाव में उनकी पार्टी अपने बूते चुनाव लड़ेगी. जल्द ही पार्टी का एक ठेठ देसी नाम रखा जाएगा और औपचारिक रूप से चुनाव आयोग के पास अप्लाई किया जाएगा. तय हुआ कि पार्टी नाम ऐसा रखा जाएगा कि मीडिया उसे न तो 'आप' बोले न 'हम'. चुनाव चिह्न या तो इंसान के चेहरे का स्केच होगा या फिर चाकू. इसी के साथ सब लोग अपनी अपनी राह पकड़ लिए. कोई गांव की ओर तो कोई जंगल की ओर. दुधनी वहीं बैठी रही. उसे उम्मीद है कि अब गौशाला हर रोज गुलजार रहेगी.

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय