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Updated: 26 जून, 2016 03:46 PM
राकेश उपाध्याय
राकेश उपाध्याय
  @rakesh.upadhyay.1840
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बीजेपी की विचारधारा के प्रतिपादक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववादी दर्शन के आधार पर सरकार की नीतियों को दिशा देने के काम में आरएसएस के चिंतक जुटे हैं. आरएसएस से जुड़े दीनदयाल शोध संस्थान, दिल्ली की ओर से आयोजित स्वाध्याय मंडल में बीते शुक्रवार को जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद की आर्थिक अवधारणा की जगह जीएनएच यानी सकल राष्ट्रीय आनंद की अपेक्षाकृत नई अवधारणा पर चर्चा आयोजित की गई.

स्वाध्याय मंडल के सत्र में जनता की ओर से चुनी हुई सरकारों का काम एकात्ममानववादी व्यवस्था के अन्तर्गत सकल राष्ट्रीय सुख के आधार पर कैसे चलाया जा सकता है, इस पर भूटान के उदाहरण के जरिए दिलचस्प बहस पैदा करने की कोशिश की गई. सवाल उठे कि आखिर दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव दर्शन को सरकार के स्तर पर आर्थिक नीतियों में लागू करने का कोई प्रयोग देश में साकार क्यों नहीं हो सकता. जबकि पड़ोस में बसा छोटा सा भूटान एकात्म मानव दर्शन के बुनियादी सिद्धांत पर चलकर अपने सभी नागरिकों को जिदंगी की बेहतर सुविधाएं देने में सफल सिद्ध हुआ है.

आरएसएस के दिल्ली के प्रांत सहसंघचालक आलोक कुमार ने भूटान के जरिए एकात्म मानव दर्शन का राजनीतिक-आर्थिक अनुप्रयोग समझाया. हालांकि उन्होंने एक बेहद गंभीर विषय की शुरुआत कुछ इस तरह की कि कुछ लोग हंस पड़े तो कई लोग चौंक पड़े कि कहीं मोदी सरकार की फ्लैगशिप योजनाओं पर वो सवाल तो नहीं उठा रहे.

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 आरएसएस के दिल्ली के प्रांत सहसंघचालक आलोक कुमार

आलोक कुमार ने मोदी सरकार के स्टार्टअप और स्टैंड अप इंडिया योजना की तुलना एक चरवाहे के अन्तर्मन के सुख से कुछ इस तरह की कि सवाल उठने लाजिमी थे. उन्होंने स्टार्टअप और मुद्रा योजना के अन्तर्गत बांटे जा रहे लोन को लेकर एक चरवाहे लड़के की कहानी सुनाई.

'एक लड़का जो गाय चराता था, उसे किसी ने कहा कि लोन लेकर कारखाना खोलो. उस युवा चरवाहे ने पूछा कि उससे क्या होगा? जवाब मिला कि उससे पैसा पैदा होगा, सुविधाएं बढ़ेंगी, घर-बंगला बनवा लेना. युवा चरवाहे ने दोबारा पूछा कि उससे क्या होगा? जवाब मिला कि तुम सुखी हो जाओगे तो युवा चरवाहे ने जवाब दिया कि सो तो मैं आज भी सुखी हूं. गांव में रहता हूं, गाय चराता हूं, दूध पीता हूं, छोटे से घर में रहता हूं. अगर सारी दौड़ सुख-संतोष-प्रसन्नता के लिए हो रही है तो मुझसे ज्यादा सुखी और प्रसन्न कौन?

मोदी सरकार की फ्लैगशिप योजना का मूल्यांकन करती इस कहानी के साथ आरएसएस से जुड़ी डीआरआई के स्वाध्याय मंडल की जीएनएच-गाथा शुरु हुई. इसके पहले भूटान के ऊपर बनी छोटी सी डॉक्यूमेंट्री भी दिखाई गई. प्रगति और विकास को मापने वाले जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद की जगह 'जीएनएच यानी ग्रास नेशनल हैपीनेस' मतलब सकल घरेलू सुख के आर्थिक फार्मूले को भूटान की तरक्की के जरिए समझाया गया.

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 भूटान में दिखता है जीएनएच का फायदा

डॉक्यूमेंट्री दिखाए जाने के बाद आरएसएस विचारक और संघचालक आलोक कुमार ने कहा, 'सकल घरेलू आनंद कोई यूटोपिया नहीं है, ये तो ऐसा व्यावहारिक प्रयोग है जिसका सपना दीनदयाल उपाध्याय ने देखा था और जिसे भूटान ने साकार कर दिखाया है. एकात्म मानववादी विकास पर चलकर सकल घरेलू आनंद प्राप्त किया जा सकता है.'

एकात्म मानव वादी दर्शन की व्याख्या में चर्चा संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से 19 जुलाई 2011 को पारित उस प्रस्ताव की भी आई जिसमें 'होलिस्टिक हैपीनेस' और 'होलिस्टिक एप्रोच ऑफ डिवेलपमेंट' पर जोर दिया गया है. आलोक कुमार ने संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव पढ़ा और साफ किया कि 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय की चर्चा विश्व में हो रही है, संयुक्त राष्ट्र ने उनकी अवधारणा को मान्यता दी है.'

देश में ही दो दुनिया कैसे बन गई?

चर्चा की दिशा इस सवाल की ओर भी मुड़ी कि भारत में ही दीनदयाल उपाध्याय की विकास नीति पर कोई काम क्यों नहीं? आलोक कुमार के दिल से दर्द छलक उठा. कहने लगे कि 'पूरी की पूरी दो दुनिया हमने बना डाली है. एकतरफ गरीब और अभावग्रस्त लोगों का हाहाकार है तो दूसरी ओर अमीरी और साधन संपन्न लोगों के राजसी ठाठ हैं. गरीब अब बाजार जाता है, अमीरों के लिए एसी बाजार और मॉल्स खुल चुके हैं. गरीब नलके और हैंडपंप के प्रदूषित पानी से प्यास बुझा रहा है तो अमीरों के लिए बोतलबंद पानी और आरओ वॉटर का इंतजाम है.

दोनों के अस्पताल अलग-अलग हैं, दोनों के बच्चों के स्कूल भी अलग-अलग हैं. विकास की दौड़ में नदियां जहरीली हो चुकी हैं, तालाब सूख गए हैं या खत्म कर दिए गए हैं, हवा प्रदूषित हो चली है.

अमर्यादित जीवन ने भारत के भीतर ही दो तरह की जीवन व्यवस्थाएं पैदा कर दी हैं. एक ओर शहरों में रेल की पटरी और नालों के किनारे लाखों लोग जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं, जिनके लिए जीवन की मूलभूत सुविधाएं का चारों ओर अभाव है.

वहीं, दूसरी ओर होटलों में जिंदगी गुजारने वाला ऐसा तबका भी है जो एक दिन में ही इतना होटल में व्यय करता है जितनी की उसी होटल में काम करने वाले साधारण कर्मचारी की मासिक या सालाना तनख्वाह है. जरा सोचो कि क्या ऐसा विकास टिक सकेगा जिसने जिंदगी की बुनियाद में इतना भारी फर्क पैदा कर दिया है?'

सवाल खड़ा हुआ कि विकल्प क्या है? असंतुलित विकास की वजहें क्या हैं? क्यों गरीबी-अमीरी के बीच का अंतर आर्थिक उदारीकरण के मौजूदा दौर में बढ़ता जा रहा है? इसे रोकने का तरीका क्या होगा? आलोक कुमार ने अपनी चर्चा में इन सवालों का जवाब भी देने की कोशिश की. उन्होंने फिर से भूटान का उदाहरण दिया और बताया कि 'भूटान में विकास योजनाओं को जीएनएच कमीशन यानी सकल राष्ट्रीय सुख आयोग से मंजूरी लेनी पड़ती है. इसके बगैर कोई परियोजना पारित नहीं हो सकती. आयोग हर परियोजना का इस आधार पर अध्ययन करता है कि इससे लोगों की जिंदगी पर क्या असर होगा? अगर परियोजना की वजह से पत्नी-बच्चों के साथ परिवार के अलग रहने की नौबत आती है तो ऐसी परियोजना मंजूर नहीं की जाती, किसी परियोजना से विस्थापन बढ़ता है तो उसे रोक दिया जाता है.'

सवाल उठा कि क्या मोदी सरकार को ऐसा जीएनएच आयोग बनाने की सलाह आप भारत में देंगे? आलोक कुमार ने कहा कि 'ये सलाह जरुर देंगे कि नीति ऐसी बनाइए जिसमें प्रसन्नता शामिल रहे. मतलब ये कि नीति के नतीजों से लोग प्रसन्नता अनुभव कर सकें, लोगों के सुख में बढ़ोतरी हो, देश के परिवार, लोगों के घर-बार सुखी रह सकें.'

क्या है सकल राष्ट्रीय सुख?

यानी मुद्दा सरकारी नीतियों पर आकर अटक गया. जो भूटान में हो सकता है वो भारत में क्यों नहीं हो सकता? पूरा देश न सही कोई छोटा सा राज्य भी भूटान की राह पर क्यों नहीं चलता जहां आम लोगों की जिंदगी में पढ़ाई-दवाई-बिजली-पानी समेत हर बुनियादी व्यवस्थाएं मुफ्त में बगैर किसी भेदभाव के सरकार उपलब्ध कराती है. और तो और जल-जंगल-जमीन-जानवर समेत पूरे प्राकृतिक पर्यावरण को भी कानून के कवच से उसी तरह सुरक्षित किया गया है जिस तरह से इंसानी आबादी को सुख की सारी व्यवस्थाएं दी गई हैं.

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लोगों को भी सरकार की नीतियां अपनी लगती हैं जिसके बनाने और क्रियान्वयन में भी जनता की राय की अहमियत होती है. आलोक कुमार के मुताबिक, 'भूटान विश्व के सामने एकात्म मानववादी आर्थिक व्यवस्था का आदर्श बनकर उभरा है. भूटान के सकल राष्ट्रीय सुख का मतलब है कि सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों से जनता में लगातार बढ़ती जाने वाली खुशी-आनंद-प्रसन्नता.'

मशीनीकरण से सुख नहीं आएगा?

सवाल उठता है कि क्या भारत में भी सरकार की नीतियों से लोगों के सुख में बढ़ोतरी हो रही है? आलोक कुमार ने इस सवाल का जवाब दिल्ली मेट्रो के उदाहरण से दिया. उन्होंने कहा, 'समाचार पत्रों से जानकारी मिली है कि मेट्रो में टिकट बांटने के काम में लोगों की जगह मशीनें लगाई जाएंगी. सरकार अगर मेट्रो में सिर्फ मशीन के जरिए टिकट बांटने का बंदोबस्त करेगी और लोगों को काउंटर से हटा देगी तो भला ऐसी नीति किस काम की? मत भूलिए कि भारत में विशाल जनसंख्या रहती है जहां बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हैं. अगर सरकार की किसी नीति से बेरोजगारी बढ़ती है तो फिर ऐसी नीति बदलने में क्या बुराई है?'

सकल सुख देने वाला देश का पहला राज्य कौन?

सैकड़ों की तादाद में स्वाध्याय मंडल में लोग जुटे थे. इसमें रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स भी थे तो मौजूदा नौकरशाह भी थे. बीजेपी के नेता भी थे तो कई राज्य सरकारों के मंत्री भी मौजूद थे. सबने गौर से आरएसएस विचारक आलोक कुमार के जरिए सकल राष्ट्रीय आनंद के बारे में सुना. एक दूसरे से यही सवाल करते हुए कई लोग सभागार से बाहर निकले कि केंद्र सरकार तो छोड़िए, जीएनएच पर जो बताया और समझाया गया है क्या उस पर बीजेपी की कोई राज्य सरकार किसी छोटे से इलाके में भी अमल कर दिखाएगी?

लेखक

राकेश उपाध्याय राकेश उपाध्याय @rakesh.upadhyay.1840

लेखक भारत अध्ययन केंद्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं

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