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Updated: 19 फरवरी, 2016 08:34 PM
एम जे वारसी
एम जे वारसी
  @warsimj
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भाषा महज एक भाषा नहीं होती, बल्कि भाषा के साथ एक पूरी सांस्कृतिक विरासत, संस्कार, परंपराएं और रीति-रिवाज़ भी जुड़ी होती हैं. हमारी मातृभाषा एवं संस्कृति किसी धर्म या जाति की नहीं, अपितु हमारे भारतीय होने की द्योतक है. समय समय पर शिक्षा में इस बात को लेकर बहस होती रही है कि बच्चों को शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही दी जाए या किसी और भाषा में. दुनिया के अधिकतर मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, विद्वानों एवं भाषा वैज्ञानिक इस बात पर सहमत हैं की बच्चों को शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए. यह एक हकीकत है कि मातृभाषा में शिक्षा बच्चों के उन्मुक्त विकास में ज्यादा कारगर होती है. मातृभाषा के माध्यम से जब पढाया जाता है तो बालकों के चेहरे उत्फुल्लित दिखाई देते हैं. भाषा सीखना अच्छी बात है और गुणकारी भी है. भाषा हमें एक नये संसार में प्रवेश कराती है. भाषाएं लगातार परिवर्तनशील रही हैं तथा समय के साथ-साथ इस में बदलाव होता रहा है. यह बोलने वालों पर छोड़ दिया जाए कि वे अपने लिए कौन सी भाषा चुनते हैं. भाषा स्वतः विकसित होती चली जाती है.

व्यक्ति जिस भाषा में अपने सुख-दुख, ख़ुशी या ग़म, आश्चर्य या अन्य भावों को व्यक्त करने में सक्षम हो, वही उसकी मातृभाषा है. चोट लगने पर मेरे मुंह से हमेशा ओ माँ, हे भगवान या फिर या अल्लाह ही निकलता है. आप जिस भाषा में सपने देखते हैं, वही आपकी मातृभाषा है. भारत जैसे विकासशील एवं बहुभाषीय देश में हमारी अपनी राष्टीय शिक्षा नीति भी मातृभाषा की अहमियत को स्वीकार करती है. मगर मुझे ऐसा लगता है कि देश में भारतीय भाषाएँ खासकर छोटी-छोटी बोलियों के संरक्षण पर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा है. मातृभाषा से पढऩा लिखना, समझना व अभिव्यक्त करना अन्य पाश्चात्य भाषाओं की तुलना में सहज व सरल होता है. हम अपनी मातृभाषा का गौरव बढ़ाए, क्योंकि यह राष्ट्र निर्माण की प्रथम सीढ़ी है. मेरा मानना है कि कोई भी लेखक अपनी मातृभाषा में ही सर्वोत्तम लेखन प्रस्तुत कर सकता है. इस सोच के पीछे अपनी भाषा के प्रति प्यार ही नहीं है, बल्कि इसका वैज्ञानिक आधार भी है.

दुनिया भर में हजारों छोटी-छोटी भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं. आज ज़रुरत है उन्हें संरक्षण देने की, उन छोटी-छोटी बोलियों को संवारने की ताकि आने वाली नस्लो को हम अपनी सांस्कृतिक विरासत से अवगत करा सकें. हाल ही में मैं ने उत्तर बिहार के कुछ जिलों में अल्पसंख्यक समुदाय के द्वारा बोली जाने वाली एक बोली की खोज की है जो वहाँ के लोगो की मातृभाषा है, जिसे हम ने "मिथिलांचल उर्दू" का नाम दिया है. सांस्कृतिक और साहित्यिक रूप से सचेत बहुत कम लोग "मिथिलांचल उर्दू" के जानकार हैं. लेकिन मेरी खोज के बाद अब काफी विद्वान, भाषाविद और शिक्षाविद उसके प्रचार प्रसार में जुट गए हैं. हमारी सरकारें ठेकों, पुलों, सड़कों, इमारतों की कमीशनखोरी में इतनी उलझी हुई हैं कि भाषा और बोलियां उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं. जो अकादमियां बनाई गई हैं, वहां काम से ज्यादा राजनीति हावी है. स्थानीय बोलियां नेताओं के लिए सिर्फ वोट मांगने की जुबान भर रह गई हैं. हमें सरकार पर ज़ोर डालते हुए अपनी ओर से इन बोलियों को बचाने का भरसक प्रयास करना होगा, वरना न जाने दुनिया की कितनी सारी बोलियाँ विलुप्त होकर केवल इतिहास के पन्नों तक सिमट कर रह गई हैं.

आजकल नौकरी के कारण अपने माता-पिता के साथ घर से बाहर जाकर शिक्षा हासिल करने की वजह से बच्चों की परवरिश दादा-दादी और नाना-नानी से दूर होती है. खासकर विदेशों में रह रहे बच्चे अपनी भाषा एवं संस्कृति को संजोये जब भारत में रह रहे अपने दादा-दादी से अपनी मातृभाषा में बात करते हैं तो दादा-दादी और नाना-नानी भी गर्व महसूस करते हैं कि उनके पोते-पोती विदेशों में रहकर भी अपनी संस्कृति को संजोये हुए हैं. यह हमारे लिए बहुत ही ख़ुशी की बात है कि एक बड़ी पीढ़ी को हम भाषा के संवदेना व अर्थ से परिपूर्ण भविष्य देने की कोशिश कर रहे हैं. आज मैं आपको पिछले 15 सालों से अमेरीका में रह रहे बिहार निवासी संजीव शेखर के बारे में बताना चाहता हूँ. वैसे तो पेश से वे एक सफल इंजीनियर हैं और अपने परिवार पत्नी माधवी, पुत्र सुयश तथा बेटी सुभी के साथ अमेरीका में रहते हैं. रहने वाले वे मूल रूप से बिहार के हैं और अंग्रेजी धरा-प्रवाह बोलते हैं. उन्हें जब पता चला के कोई भारत से खासकर बिहार से नया इस शहर में आया है तो उन्होंने एक दिन मुझे खाने का निमंत्रण देकर घर बुलाया. मैं बहुत खुश था कि काफी दिनों बाद अच्छा खाने को मिलेगा. लेकिन थोड़ा गंभीर भी था कि बात-चीत अंग्रेजी में करनी पड़ेगी और वह भी बहुत सीरियस अंदाज़ में क्योंकि अब तक सिर्फ फ़ोन पर धरा-प्रवाह अंग्रेजी में ही बात की थी जिस से लगता था की उनका परिवार, जिनमें दो बच्चे भी शामिल हैं, बिलकुल अमेरिकनाइज़ हो गए होंगे. जब मैं उनके घर पहुँचा और घंटी बजाई तो एक अधेड़ उम्र का आदमी सामने आकर दरवाजा खोला और बिना किसी आव-भाव के बोले कि आप वारसी साहब हैं न! मैं ने कहा yes, I am. फिर उन्होंने कहा की अरे वारसी साहब अंग्रेजी छोड़िये, आइये हम अपनी मातृभाषा में बात करते हैं, अगर आप बुरा न मानें तब. अब तो मेरी आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि मैं अपनी ख़ुशी का इज़हार उनसे कैसे करूँ. हमलोग कई घंटों तक बिना किसी रोकटोक के अपनी मात्र भाषा में बात करते रहे. हमें पता ही नहीं चला कि कब दोपहर से शाम हो गई.

अगर हम दुनिया के विकसित देशों को देखें खासकर मैं बात करना चाहता हूँ चीन, जर्मनी और फ़्रांस जैसे देशो की जिन्होंने अपनी मातृभाषा को विज्ञानों और तकनीकी की भाषा बनाया, स्कूलों और यूनिवर्सिटियों की भाषा बनाया, शोध् और प्रक्रिया की भाषा बनाया. इसीलिए ये सारे देश दुनिया में इतनी तेजी से आगे बढ़ सके. अगर आज हम अपने पडोसी मुल्क जापान को देखें जो लम्बे समय तक ग़ुलामी और युद्ध से परेशान रहा लेकिन जब आज़ाद हुआ तो अपने जीवन के हर क्षेत्र में मातृभाषा को सम्मान दिया, मातृभाषा को प्रश्रय दिया, मातृभाषा का उपयोग किया. आज जापान दुनिया के सबसे सम्पन आर्थिक देशों में गिना जाने लगा है.

लेखक

एम जे वारसी एम जे वारसी @warsimj

लेखक भाषा वैज्ञानिक हैं और अमेरिका के वाशिंगटन यूनिवर्सिटी, सैंट लुईस में कार्यरत हैं

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